परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी द्वारा हिन्दुत्वनिष्ठों को किया गया अमूल्य मार्गदर्शन 

‘सनातन संस्था के संस्थापक परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने वर्ष १९९० से अध्यात्मप्रसार का कार्य आरंभ किया । उस उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्होंने आनंदप्राप्ति हेतु साधना विषय से संबंधित अभ्यासवर्ग लेना, विभिन्न ग्रंथों का संकलन करना, अनेक छोटे-बडे प्रवचन लेना आदि विभिन्न पद्धतियां अपनाई । अब देश-विदेश के सहस्रों साधक उनके मार्गदर्शन में साधना कर रहे हैं । परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी की प्रेरणा से ही वर्ष २००२ में ‘हिन्दू जनजजागृति समिति’ की स्थापना हुई ।

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी

१. समिति का ध्येय – हिन्दू राष्ट्र की स्थापना !

हिन्दू जनजागृति समिति का मूल उद्देश्य हिन्दुओं को धर्म की शिक्षा देना, राष्ट्र एवं धर्म पर मंडरा रहे विभिन्न संकटों के प्रति हिन्दुओं को जागृत करना तथा हिन्दुओं का संगठन करना है । हिन्दू जनजागृति समिति द्वारा प्रतिवर्ष ‘वैश्विक हिन्दू राष्ट्र महोत्सव’ का आयोजन किया जाता है ।

इस अधिवेशन काल में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने कुछ हिन्दुत्वनिष्ठों का मार्गदर्शन किया था, उसके कुछ अंश आगे दिए गए हैं ।

१ अ. हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की दृष्टि से साधना समझ लें !

१ अ १. साधना करनेवाला मनुष्य ही वास्तव में ‘मनुष्य’ होता है ! : साधना नहीं की, तो मनुष्य एवं पशु में क्या अंतर रह जाएगा ? संस्कृत में एक सुभाषित है –

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् ।
धर्मो हि तेषां अधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः ।।

– हितोपदेश, कथामुख, श्लोक २५

अर्थ : मनुष्य एवं पशु में आहार, निद्रा, भय एवं मैथुन, ये चार बातें समान हैं; परंतु धर्माचरण मनुष्य को प्राप्त अतिरिक्त विषय है । धर्मविहीन (धर्माचरण न करनेवाले) लोग पशुओं के समान ही हैं । जो साधना करता है, वही वास्तव में ‘मनुष्य’ है, अन्य सभी अर्थात साधना न करनेवाले मनुष्य ‘देहधारी पशु हैं !’


साधको, ‘सेवा हेतु ली गई सामग्री सेवा संपन्न होने पर यथास्थान रखना’ साधना है !

‘साधक सेवा हेतु ली गई सामग्री तथा उपकरण सेवा संपन्न होने के उपरांत यथास्थान नहीं रखते । सेवा पूर्ण होने के उपरांत सेवा के लिए ली गई सामग्री को यथास्थान रखने के उपरांत ही साधकों की सेवा परिपूर्ण होती है । साधक यदि कोई सामग्री यथास्थान  नहीं रखें तथा कुछ समय पश्चात किसी को उस सामग्री की आवश्यकता हो, तो उसे ढूंढने में संबंधित साधक का समय व्यर्थ होता है, साथ ही साधकों ने सामग्री अव्यवस्थित पद्धति से रखी हो, तो वहां से अच्छे स्पंदन भी नहीं आते । साधको, सेवा हेतु ली गई सामग्री को सेवा संपन्न होने के उपरांत यथास्थान रखना साधना ही है ।’


साधना में चरण-प्रति-चरण सर्वस्व का त्याग करना चाहिए !

‘साधना के आरंभिक चरण में ही सर्वस्व का, अर्थात ही तन, मन एवं धन का १०० प्रतिशत त्याग करना संभव नहीं होता । इसके लिए उनमें से एक-एक का थोडा-थोडा त्याग करें, उदा. सेवा एवं नामजप की अवधि प्रतिमाह थोडी-थोडी बढाना, अर्पण देने का स्तर बढाते जाना !’


साधको, ‘मन में अकेले रहने के विचार आना’ आध्यात्मिक कष्ट बढने का लक्षण है, अतः यह कष्ट न्यून करने हेतु प्रभावकारी उपचार करें !

‘व्यक्ति का आध्यात्मिक कष्ट बढने पर उसके मन में अकेले रहने के विचार आते हैं तथा उससे उसका दूसरों में मिलना अल्प होने लगता है । ‘अकेले रहने के विचार आना’ आध्यात्मिक कष्ट का लक्षण है, इसे ध्यान में लेकर कष्ट न्यून होने हेतु साधक ‘सत् में रहने, नामजपादि आध्यात्मिक उपचार करने, सत्सेवा करने के प्रयास बढाएं । इन प्रयासों को निरंतर तथा प्रभावकारी पद्धति से करने पर धीरे-धीरे उनका यह कष्ट घटने लगता है !’


जगे होते समय बाह्यमन, जबकि सोने के उपरांत अंतर्मन कार्यरत होता है

‘हम ‘मन’ का उल्लेख करते हैं, तब उनके दो भाग होते हैं – ‘बाह्यमन’ एवं ‘अंतर्मन ।’ बाह्यमन केवल १० प्रतिशत, जबकि अंतर्मन ९० प्रतिशत होता है । हम जब जगे रहते हैं, तब बाह्यमन पूर्णतः कार्यरत होता है । इस कारण इस समय अंतर्मन कार्यरत हो, तब भी मन में आए विचार बाह्यमन के हैं या अंतर्मन के, यह समझना कठिन है । सोने पर बाह्यमन कार्यरत नहीं होता । उस समय अंतर्मन पूर्णतः कार्यरत होता है । इस कारण नींद में सपने आना, नींद में असंबद्ध विचार आना आदि अंतर्मन के कारण होता है ।’

१. माता-पिता परिवार के केवल २ – ३ बच्चों पर संस्कार करते हैं, जबकि संत अपने अनेक शिष्यों को तैयार करते हैं !

२. साधक सेवा करते हैं, अर्थात वे कर्मयोग अनुसार साधना करनेवाले कर्मयोगी हैं !

– सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी