राष्ट्र एवं धर्माभिमानी युवा चाहिए !
‘युवा एवं राष्ट्र’ का विषय आता है, तब युवाओं की ओर राष्ट्र के भविष्य के रूप में देखा जाता है । ‘युवा सक्षम, तो राष्ट्र सक्षम’, ऐसा सरल संबंध है । छत्रपति शिवाजी महाराज ने उनकी युवावस्था में ही हिन्दवी स्वराज्य निर्माण करने का बडा ध्येय लिया और वह पूर्ण भी किया । वीर सावरकरजी ने युवावस्था में ही अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति का अभियान खडा करने का ध्येय लिया और वह पूर्ण किया । इन राष्ट्रपुरुषों ने उनकी युवावस्था में ही बडा राष्ट्रीय ध्येय लेकर उसके लिए पराकाष्ठा के प्रयत्न किए । इस मार्गक्रमण में उनके सामने अनेक दु:ख, मानहानि, अपमान के प्रसंग आए, संकट आए, बडी समस्याएं आईं; परंतु वे नहीं डगमगाए । उनकी अतुलनीय ध्येयनिष्ठा, ध्येय के लिए सर्वस्व का त्याग करने की तैयारी, प्रचंड मनोबल, इस बल पर वे कार्यरत रहे एवं अत्यधिक पराक्रम से ध्येयपूर्ति की ।
स्वामी विवेकानंद कहते थे, ‘यदि मुझे ऊर्जावान १०० युवा मिल जाएं, तो मैं भारत की काया पलटकर रख दूंगा । जिस देश में ऐसे चरित्र के महापुरुष भारत के समान विविध अंगों से सजे देश में यद्यपि उत्कृष्ट चरित्र के महापुरुषों का जन्म हुआ है, तथापि आज के भारत के बहुसंख्यक युवाओं की स्थिति तेजोहीन, बलहीन, ध्येयहीन, स्वार्थी, संकुचित हो गई है, ऐसा दिखाई देता है । नैतिकता गिरकर स्वत्व भी खोने के कारण छोटी-छोटी समस्याओं, बाधाओं के आगे वे सिर झुका रहे हैं । व्यसनों से खोखले हो गए हैं । अश्लील एवं अभिरुचिहीन चलचित्र, नाटक, वीडियो देखकर युवाओं के मन मर रहे हैं और वे दिशाहीन होकर उनके कदम अनुचित स्थानों कर पड रहे हैं । वासनाओं की बलि चढकर वे स्वकोष में अधिकाधिक लिप्त हो रहे हैं । शीघ्र पैसा कमाने, अधिकाधिक पदवियां लेकर ‘सुखासीन जीवन जीने की ओर झुकाव होने के कारण वे मानवता भी भूलते जा रहे हैं । ऐसा होते हुए भी कुछ युवा स्वयं का दायित्व समझकर व्यक्तिगत प्रगति सहित राष्ट्र एवं धर्म का विचार कर रहे हैं । यद्यपि यह अच्छा लक्षण है, तथापि बहुसंख्यक युवाओं ने अपने दायित्व से मुंह मोड लिया है । भारत में युवाओं की संख्या सर्वाधिक होने के कारण अधिकाधिक युवा राष्ट्र के लिए समर्पण करें, तो राष्ट्र का भविष्य बनेगा ।
– श्री. यज्ञेश सावंत, सनातन आश्रम, देवद, पनवेल. (८.४.२०२३)
युवाओ, कल के दैदीप्यमान राष्ट्र की निर्मिति के लिए आज ही कार्यरत हों !
हम जिस भारत देश में रहते हैं, क्या उस पर हमारा प्रेम है ? भारतमाता की रक्षा करना, उसकी स्वतंत्रता संप्रभुता के लिए स्वतंत्र, स्वाभिमानी अस्तित्व के लिए प्राणों की बाजी से लडेंगे क्या ? भारतमाता के उद्धार के लिए प्रगति के लिए परिश्रम करेंगे क्या ? किसी भी परिस्थिति में क्या हम सब भारतीय बनकर एकत्रित आएंगे ? इसके लिए सर्व भेद भुलाना आवश्यक है । भारतमाता के लिए आवश्यक सबकुछ हम करेंगे क्या ? हम ‘भारतमाता की जय ।’, ‘वन्दे मातरम्’ कहते हैं; परंतु उसके समान नैतिक आचरण करेंगे क्या ? ये सब करनेवाले हों तथा न करनेवालों से समय पर ही स्पष्टीकरण मांगनेवाले हों, तो ही कल का देश रहेगा । भारतमाता पर हमारा अखंड प्रेम होना ही चाहिए । भारतमाता को वंदन करना ही चाहिए ।
– एक स्वतंत्रता सैनिक (लोकजागर, संपादक एवं प्रकाशक : प्रवीण कवठेकर, सांगली, पृष्ठ २२)