साधको, स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया लगन से कर मानव जीवन का ध्येय ‘आनंदप्राप्ति’ साध्य कर लें !

साधको, स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया लगन से कर मानव जीवन का ध्येय ‘आनंदप्राप्ति’ साध्य कर लें !

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी

‘पिछले अनेक वर्षों से सनातन संस्था साधकों को स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन हेतु प्रयास करने के लिए कह रही है । वर्तमान कलियुग में अनिष्ट शक्तियों के कष्ट तथा स्वभावदोष एवं अहं के कारण साधकों की आध्यात्मिक उन्नति होने में अनेक बाधाएं आ रही हैं । साधक आनंदप्राप्ति हेतु साधना कर रहे हैं । जीवन आनंदमय होने हेतु चित्त पर अंकित जन्म-जन्म के संस्कार नष्ट होने चाहिए तथा उसके लिए स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया गंभीरता से अपनाई जानी चाहिए । साधकों ने सेवा अथवा कोई भी व्यावहारिक कृति करते समय अंतर्मुख रहकर अपनी चूकों का निरीक्षण एवं चिंतन (टिप्पणी) किया, तो स्वभावदोष एवं अहं के पहलू ध्यान में आने लगते हैं । निरंतर प्रयास करने के उपरांत उनकी तीव्रता अल्प होने लगती है । उसके उपरांत अंतर्मन पर इस प्रक्रिया का संस्कार होने पर चूक होने से पूर्व ही उसका भान होकर उचित कृति होती है तथा साधना से आनंद मिलने लगता है ।’ (टिप्पणी : ‘कौनसी चूक हुई ? उसके पीछे कौनसा स्वभावदोष था ? उस चूक का परिणाम स्वयं पर अथवा समष्टि पर क्या हुआ ? चूक पुनः न हो; इसके लिए उपाय तथा पापक्षालन होने हेतु क्या प्रायश्चित लेंगे ?’, इस विषय में चिंतन करें ।) – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले


अध्ययन कर प्राप्त ज्ञान की अपेक्षा साधना करने पर ईश्वर से मिलनेवाला ज्ञान श्रेष्ठ है !

‘अध्ययन कर अध्यात्म का ज्ञान प्राप्त करने हेतु अनेक ग्रंथों का अध्ययन करना पडता है तथा उस पर चिंतन-मनन करना पडता है । जिस विषय का अध्ययन किया होता है, उसी का उत्तर देना संभव होता है । इसके विपरीत साधना करने के कारण विश्वमन एवं विश्वबुद्धि से जुडने के कारण किसी भी विषय का अध्ययन तथा विचार नहीं करना पडता । पूछे गए प्रश्न से संबंधित ज्ञान अंदर से उत्स्फूर्तता से मिलता है । उसमें विषय की भी सीमा नहीं होती ।’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले


संत केवल स्वयं के साधनामार्ग के साधक को ही शिष्य के रूप में स्वीकारते हैं !

‘अनेक संतों के जीवनचरित्र में हम यह पढते हैं कि वे उनकी साधना के आरंभिक काल में गुरु की खोज में अनेक संतों से मिले; परंतु उन संतों ने उन्हें बताया, ‘मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं ।’ इसका मूल कारण यह है कि संत उनके पास साधना सीखने हेतु आनेवाले प्रत्येक साधक को शिष्य के रूप में स्वीकार नहीं करते । उनके पास आए साधक के लिए उनका साधनामार्ग उपयुक्त है अथवा नहीं, यह देखकर ही ‘शिष्य के रूप में उसको स्वीकार करना है अथवा नहीं’, यह वे सुनिश्चित करते हैं । इसके विपरीत सनातन में आनेवाले प्रत्येक साधक को ‘उसके लिए आवश्यक साधना’ बताई जाती है ।’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले


सनातन के साधकों का साधना हेतु समर्पण का एक उदाहरण !

‘देश-विदेश से अनेक लोग गोवा में पर्यटन हेतु आते हैं तथा समुद्र तट देखने जाते हैं; परंतु सनातन के गोवा के आश्रम में रहनेवाले अनेक साधकों ने वर्षाें से गोवा का समुद्र भी नहीं देखा है ।’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले