धर्म की लडाई में अधिवक्ता जैन पिता-पुत्र का योगदान !
‘कुछ ही दिन पूर्व अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि के स्थान पर श्रीराममूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा का समारोह संपन्न हुआ । उस विषय में संपूर्ण देश में बहुत बडे स्तर पर आनंदोत्सव मनाया गया । श्रीराम मंदिर हेतु किए गए इस संघर्ष में अनेक लोगों ने अपना योगदान दिया है; परंतु उसके लिए सर्वाधिक प्रमुखता से किसने लडाई लडी हो, तो वे हैं धर्मप्रेमी पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी एवं उनके पुत्र अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ! केवल श्रीराम मंदिर ही नहीं, अपितु काशी, मथुरा आदि के लिए भी उनकी लडाई चल ही रही है, उसके कारण देश में ‘‘टेंपल वॉरियर्स’ (मंदिरों के लडाके), यह उनकी पहचान बनी है । धर्म की लडाई लडते समय उन्हें प्राप्त अनुभवों को हम उन्हीं के शब्दों में जान लेंगे –
१. बचपन से ही ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना हेतु लडने का दृढ निश्चय !
मैं जब १० वर्ष का था, तभी मेरी मां ने मुझे ‘मुघलों के काल में जिन हिन्दू मंदिरों के साथ गडबड हुई है अर्थात जिन मंदिरों को गिराकर वहां मस्जिदें बनाई गईं, उन सभी को वापस लेना है तथा आगे जाकर हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना साकार करनी है’, यह सीख दी थी । मेरे पिता गांधीवादी अथवा धर्मनिरपेक्षतावादी विचारधारा के थे; इसलिए इन बातों को उनका विरोध था । मेरी शिक्षा, विवाह आदि में कुछ समय बीत गया । वर्ष १९८६ में श्रीराम जन्मभूमि का ताला खोले जाने के उपरांत संपूर्ण देश में हिन्दुत्व की एक लहर उमड पडी । उस समय मुझे इसका भान हुआ कि मेरी मां ने मुझे जो सीख दी थी, उसके क्रियान्वयन का समय आ गया है तथा अब मुझे कुछ तो करना पडेगा । तब से मैंने इस कार्य में सक्रिय होने हेतु प्रयास आरंभ किए । १० जुलाई १९८९ को उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने आदेश दिया था कि ‘श्रीराम जन्मभूमि से संबंधित सभी अभियोग अब उच्च न्यायालय में चलेंगे ।’जब यह अभियोग उच्च न्यायालय में आया, उस समय सौभाग्यवश हिन्दू महासभा ने मुझे उनका अधिवक्ता नियुक्त किया । मैंने वर्ष १९९१ में श्रीराम जन्मभूमि प्रकरण से संबंधित लिखित कथन न्यायालय में प्रविष्ट किया तथा मैं हिन्दू महासभा के माध्यम से श्रीराम मंदिर की लडाई में सक्रिय रूप से सम्मिलित हुआ । जब मैं अयोध्या प्रकरण में कूद पडा, उस समय मेरे पिता ने इसका विरोध किया । उन्होंने कहा, ‘‘इसने बहुत ही बुरा किया ।’’ मां मुझे कहने लगी, ‘‘तुम उचित ही कर रहे हो ।’’ मेरे पीछे एक प्रेरणा थी, जिसे हम ईश्वरीय शक्ति कह सकते हैं । मैं जब १०-१२ वर्ष का था, तब से मुझ में ‘मुझे हिन्दुत्व के लिए ही कुछ करना है’, यह दृढ भावना थी । ‘बच्चों का चाहे हो अथवा न हो; परंतु मैंने एक प्रण लिया था तथा मैं उसे पूर्ण किए बिना नहीं रहूंगा’, यह निदिध्यास मेरे मस्तिष्क में बन चुका था ।
२. अपमान से सम्मानतक की कठिन यात्रा
एक काल था, जब हिन्दुत्व का कार्य करते समय संबंधियों एवं समाज की प्रतिक्रिया अत्यंत नकारात्मक होती थी । उस समय अनेक लोग मेरी ओर तुच्छ दृष्टि से देखते थे । सभी ने मुझे सनकी एवं पागल प्रमाणित किया था । लोग मेरे पुत्र को (अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन को ) कहते थे, ‘तुम यदि तुम्हारे पिता के मार्ग पर चल पडे, तो तुम नष्ट हो जाओगे ।’ बडे पद पर आसीन लोग उसे कहते थे, ‘बेटा, तुम तुम्हारे पिता जैसे मत बनो !’ अनेक लोग मुझे उनके कार्यक्रमों में बुलाना टाल देते थे । उनकी यह धारणा बन गई थी कि हमने इसे बुलाया, तो हम पर सांप्रदायिक अथवा हिन्दुत्वनिष्ठ का ठप्पा लगेगा । ये लोग हमारे घर आ गए, तो हमारे घर पुलिस आएगी ।’ लोगों को ऐसा लगता था, ‘अधिवक्ता जैन ‘हिटलिस्ट’ में (आपराधिक अथवा राजनीतिक कारणों से मारे जानेवालों की सूची) में हैं; इसलिए उनका नाम भी नहीं लेना चाहिए ।’
मैंने ‘विश्व हिन्दू अधिवक्ता संघ’ की स्थापना की थी तथा मैं उसका महासचिव था । इसलिए न्यायालयीन क्षेत्र में कार्यरत लोग मुझसे कहते थे, ‘क्या कोई अधिवक्ता हिन्दू अथवा मुसलमान हो सकता है ?’ अधिवक्ता तथा न्यायाधीश भी मुझ पर ‘कमेंट’ (ताने लगाना) करते थे । सबसे दुखद बात यह थी कि संबंधी तथा परिचित भी हमें अस्पृश्य मानते थे । उन्हें ऐसा लगता था कि उन पर मेरी छाया भी पडी, तो भी उनकी हानि होगी । कोई आक्रमण अथवा गडबड न हो; इसके लिए लोग मुझसे दूर रहते थे । मैंने लोगों का वह तिरस्कारपूर्ण व्यवहार सहन किया है । मेरी पत्नी को लगता था, ‘उसके माता-पिता ने उसे कुएं में ढकेल दिया है तथा उसका यह दुर्भाग्य है कि वह मेरे घर आई है; परंतु ऐसा होकर भी वह कहती थी, ‘‘मैं भारतीय नारी हूं तथा अब मैंने कुमकुम लगाया ही है, तो मैं गृहस्थी पूर्ण करूंगी ।’’
३. धर्म-अधर्म की लडाई में ईश्वर की कृपा से रक्षा होना !
समाजवादी दल के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने एक सुरक्षा दल बनाया था । उसमें हिन्दू-मुसलमानों का अनुपात ५०-५० प्रतिशत रहनेवाला था । मैंने उसे भी रोका । उर्दू भाषांतरकार तथा उर्दू शिक्षकों की भर्ती रोकी । तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने १९ धर्मांध आतंकवादियों को छोड दिया था, इसलिए मैंने उनके विरुद्ध अभियोग प्रविष्ट किया था । उसके उपरांत अखिलेश यादव ने मुझे शिक्षा विभाग की ‘स्टैंडिंग काउंसिल’ से (संचालक मंडल से) निकाल दिया । ईश्वर की कृपा से मुझ पर कोई आक्रमण नहीं हुआ ।
(६ दिसंबर १९९२ के दिन बाबरी ढांचा गिराया गया, उसी दिन मेरी दादी (पू. अधिवक्ता हरि शंकर जैनजी की माता) का स्वर्गवास हुआ । उसके निधन के १३ वें दिन का अनुष्ठान संपन्न होने के दूसरे दिन अर्थात २० दिसंबर १९९२ को मेरे पिता ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लक्ष्मणपुरी खंडपीठ में याचिका प्रविष्ट की थी । उस समय कडाके की ठंड में वे सभी कागदपत्रों के साथ ऑटो में अकेले बैठकर लखनऊ उच्च न्यायालय जाते थे । जब श्रीराम जन्मभूमि के विषय में विशेष सुनवाई चलती थी, तब न्यायालय धर्मांधों से भरा होता था; परंतु उस स्थिति में भी मेरे पिता हिन्दुओं के पक्ष में आवेशपूर्ण प्रतिवाद करते थे । वह सुनवाई निरंतर १० दिन तक चली । १ जनवरी १९९३ को न्यायाधीश हरिनाथ तिलारी ने ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा, ‘श्रीराम के दर्शन तुरंत आरंभ किए जाएं । प्रभु श्रीराम संवैधानिक पुरुष हैं तथा उनका दर्शन रोका नहीं जा सकता ।’ उसके उपरांत न्यायाधीश तिलारी कहने लगे, ‘‘आज जब जैनसाहब न्यायालय के बाहर जाएंगे, तब उनके प्राणों पर संकट होगा ।’’ (अतः उन्होंने पिता को अपने कक्ष में बुला लिया तथा कहा, ‘‘आप बाहर कहां जा रहे हैं ? ये लोग आपको नहीं छोडेंगे ।’’ उन्होंने मेरे पिता को स्वयं की गाडी में बैठाकर हबीबगंज चौक पर स्थित हनुमान मंदिर तक पहुंचाया तथा वहां से निकट हमारे घर तक सुरक्षित पहुंचने के लिए कहा । हमने ऐसा काल भी देखा है; इसलिए आज का यह संघर्ष हमारे लिए नया नहीं है । – अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन)
४. पिता की धर्म की लडाई को आगे भी जारी रखने का पुत्र का निश्चय !
हमारे यहां प्रतिदिन रात को १० से १२ बजे तक अनौपचारिक चर्चा चलती है । उसमें संसद की भांति वाद-विवाद, तीव्र वक्तव्य, बहिष्कार (बाइकॉट) इत्यादि सब चलता है । उसमें वाद-प्रतिवाद होते हैं; परंतु कोई आहत नहीं होता । विजयी होनेवालों का मत स्वीकारा जाता है । इसमें अधिकतर बार विष्णु (अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन) ही जीत जाते हैं । अधिवक्ता बनने के उपरांत उसने सर्वाेच्च न्यायालय में अपना पहला अभियोग प्रविष्ट किया, उस समय मैंने उससे कहा, ‘‘यह मार्ग काटों से भरा हुआ है । क्या तुम इसी प्रकार इस संघर्ष को आगे बढा पाओगे ?; क्योंकि हमारे यहां संघर्ष की पहली शर्त यह है कि किसी से भी पैसा नहीं लेना है, किसी की अनुशंसा नहीं सुननी, दबाव की राजनीति नहीं करनी तथा पद का दुरुपयोग नहीं करना है । तुम्हें इन सभी बातों का पालन करना आना चाहिए ।’’ इस पर उसने कहा, ‘‘पिताजी, आप चिंता न करें । इस विषय में मैं आपसे अधिक कट्टर बना रहूंगा ।’’
५. श्रीराम जन्मभूमि प्रकरण में न्यायालयीन लडाई का संघर्ष
अ. वर्ष १९८९ में श्रीराम मंदिर का अभियोग उच्च न्यायालय पहुंचा तथा सौभाग्यवश मैं उससे जुड गया । उसके उपरांत मुझे इस अभियोग से संबंधित सभी स्तर का संघर्ष देखने का सौभाग्य मिला । इस संघर्ष में मेरे साथ अन्य ५-६ अधिवक्ता थे, जो एक से एक धुरंधर थे । वे उनका तथा मैं मेरा काम करता था; परंतु हममें एक बहुत सुंदर समन्वय था ।
उस समय अयोध्या के विषय पर पूर्व न्यायाधीश सय्यद रफत आलम के सामने सुनवाई होनेवाली थी । ‘बाबरी एक्शन कमिटी’ के सय्यद शहाबुद्दीन उनके सगे भाई के साले थे; इसलिए वे अयोध्या प्रकरण की सुनवाई न करें’, ऐसा मैंने आवेदन प्रविष्ट किया । इस बात में सत्यता होने से वे मेरी आपत्ति को टाल नहीं सके; परंतु वे मुझ पर अत्यंत क्षुब्ध थे । उस समय किसी ने भी न्या. आलम सुनवाई न करें, ऐसा बताने का साहस नहीं दिखाया । जब तक आलम वहां न्यायाधीश के रूप में रहे तथा यह अभियोग उनके सामने आया, तब क्या हुआ होगा; इसकी कल्पना की जा सकती है ।
आ. मुलायम सिंह के द्वारा न्यायाधीश पांडे की पदोन्नति रोकी जाना : वर्ष १९८६ में न्यायाधीश के.एम. पांडे ने श्रीराम मंदिर को खोलने का ऐतिहासिक निर्णय दिया था । उस समय उन्हें इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर पदोन्नति मिलनेवाली थी । उस समय किसी न्यायाधीश को पदोन्नति मिलनी हो, तो उसकी धारिका प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पास जाती थी । यदि राज्य सरकार आपत्ति जताती थी, तो पदोन्नति रुक जाती थी । उक्त निर्णय देने के कारण उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव न्या. पांडे पर बहुत क्षुब्ध थे । इसलिए मुलायम सिंह ने अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा, ‘न्यायाधीश के.एम. पांडे अत्यंत निर्भय एवं प्रामाणिक हैं; परंतु उन्होंने श्रीराम मंदिर का ताला खोलने का आदेश दिया है; इसलिए मैं उनके नाम को स्वीकृति नहीं दूंगा ।’’ यह गुप्त लिखितपत्र (सिक्रेट नोट) मुझे मिला था । इस विषय में मैंने अपने हस्ताक्षर सहित न्यायालय में शपथपत्र प्रविष्ट किया, तब यह ‘सिक्रेट’ इन्हें कैसे मिला ?, इसका न्यायालय को आश्चर्य हुआ । न्यायालय ने बताया, ‘‘जैनसाहब, आज आप कारागृह जानेवाले हैं; क्योंकि आपने ‘अधिकृत ‘सिक्रेट’ का उल्लंघन किया है ।’’ मैंने कहा, ‘‘कारागृह जाने में मुझे कोई समस्या नहीं है । मैं तो उसके लिए तैयार होकर आया हूं; परंतु आज मुझे किस कारण से कारागृह भेजनेवाले हैं ? यदि मैंने अधिकृत ‘सिक्रेट’ का उल्लंघन किया होगा, तो आपको यह भी लिखना पडेगा कि ‘मुलायम सिंह यादव ने यह संबंधित लेखन किया है ।’ उसके उपरांत आप मुझे अवश्य कारागृह भेजें ।’ अतः मैंने झूठा शपथपत्र प्रविष्ट किया, इसलिए आप मुझे कारागृह भेजेंगे या मेरा शपथपत्र सत्य है, इसलिए कारागृह भेजेंगे ?’’ उसके ३ महिने उपरांत न्यायाधीश पांडे को पदोन्नति मिली; परंतु मैं उनके न्यायालय में कभी नहीं खडा रहा ।
६. ‘हिन्दू राष्ट्र’ की स्थापना, यही चिरंतन ध्येय !
एक बार सर्वाेच्च न्यायालय में अधिवक्ता राजीव धवन ने ‘हिन्दू तालिबानी हैं’, ऐसा वक्तव्य दिया था । उस समय ‘यदि हिन्दू तालिबानी हैं, तो मैं भी तालिबानी हूं । आपको मुझे जो दंड देना है, वह दीजिए’, ऐसा मैंने भरे न्यायालय में दृढतापूर्वक बताया था । ‘यह देश संपूर्णतया ‘हिन्दू राष्ट्र’ बने, यही मेरा एकमात्र सपना है तथा मैं उसके लिए ही काम करता रहूंगा ।’
(श्री. सुशांत सिन्हा की ‘यू ट्यूब’ वाहिनी से आभारपूर्वक)
उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का ‘प्रस्ताव’ किया अस्वीकार !‘समाजवादी दल के मुलायम सिंह यादव की सरकार ने अयोध्या में केवल १६ कारसेवकों के मारे जाने की बात कही थी; परंतु मैंने घटनास्थल जाकर १६ नहीं, अपितु ३६५ कारसेवकों के मारे जाने का दावा किया था । वर्ष १९९३-९४ में मुलायम सिंह के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्य सचिव ए.पी. सिंह को अत्यंत शक्तिशाली माना जाता था । एक रात वे मेरे घर आए तथा उन्होंने मुझे ऐसे विषयों को छोड देने की चेतावनी दी । (वर्ष १९८९ से १९९४ की अवधि में पू. (अधि.) हरि शंकर जैनजी ने मुलायम सिंह सरकार के विरुद्ध अनेक अभियोग प्रविष्ट किए थे ।) उस समय मुलायम सिंह ने मुझे सीधे दो ‘प्रस्ताव’ दिए थे । ‘एक तो मुलायम सिंह के साथ आकर मंत्री बनें तथा अपनी इच्छा के अनुसार लें, अन्यथा आगे क्या हो सकता है, उसे समझ लें ।’ इसका अर्थ मेरे साथ कुछ भी हो सकता था । रात का समय था तथा मेरे बच्चे सोए हुए थे । मैंने श्री. सिंह को २ मिनट रुकने के लिए कहा । मैं पूजाघर गया । भगवान शिवजी से हाथ जोडकर प्रार्थना की, ‘आप मुझे उचित निर्णय लेने की शक्ति दें ।’ भगवान ने निर्णय दिया, ‘तुम लडो !’ मैंने ए.पी. सिंह को बताया, ‘‘यह वस्तु (मैं स्वयं) बिकाऊ नहीं है ।’’ उसके उपरांत वे तिलमिलाते हुए; परंतु गर्दन नीचे झुकाकर वहां से चले गए । वे मेरी आंख से आंख नहीं मिला सके । एक सामान्य मनुष्य सत्ता से टकराव लेगा, इसकी उन्हें अपेक्षा नहीं थी । मुझे यह ज्ञात हुआ कि सरकार की ओर से सभी प्रकार की तैयारी की जा रही है; इसलिए मैंने उच्च न्यायालय में आवेदन दिया । उस पर उच्च न्यायालय ने ‘हरि शंकर जैन की गिरफ्तारी नहीं होगी’, ऐसा आदेश दिया ।’ (श्री. सुशांत सिन्हा की ‘यू ट्यूब’ वाहिनी से आभारपूर्वक) |
सनातन धर्म को पुनर्वैभव प्राप्त कराने हेतु अविरत लडनेवाले अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन (आध्यात्मिक स्तर ६१ प्रतिशत) !
१. सनातन धर्म हेतु लडनेवाले पिता का आदर्श रखनेवाले अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन !
‘एक युवक जब अधिवक्ता बन जाता है, तब उसे लगता है कि वह भी एक सफल व्यावसायी अधिवक्ता बनकर बहुत पैसा कमाए । उसे सभी सुख-सुविधाएं मिलें, महाधिवक्ता बने, उच्च अथवा सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश बने, साथ ही राजनीति में आए; परंतु मेरे संदर्भ में बात भिन्न है । मैंने मेरे पिताजी का जीवन देखा है । उन्होंने उनका संपूर्ण जीवन सनातन धर्म हेतु दांव पर लगाया है । केवल श्रीराम मंदिर ही नहीं, जब भी कोई लडकी ‘लव जिहाद’ के जाल में फंस गई हो, तो उसके लिए निःशुल्क अभियोग लडना; कहीं पीपल का पेड काटा गया हो, कहीं हनुमानजी की छोटी मूर्ति तोडी गई हो; ऐसे प्रकरणों में भी मैंने उन्हें बचपन से लक्ष्मणपुरी के न्यायालय में निरंतर लडते हुए देखा है । मुझे उन्होंने कभी भी इस व्यवसाय में उतरने के लिए नहीं कहा । ‘तुम्हें अधिवक्ता बनना है तथा मैं जो कर रहा हूं, तुम्हें भी वही करना है’, ऐसा उन्होंने मुझे कभी नहीं कहा । उन्होंने हिन्दू धर्म तथा समाज के लिए जो किया है, उसके लिए वे मेरे आदर्श हैं ।
२. अपमान से लेकर सम्मान तक की कठिन यात्रा आज हमें न्यायालयीन अभियोगों के विषय में हमारा मत पूछा जाता है । इससे पूर्व तो हमने अपमान एवं तिरस्कार ही सहन किया है ।
मेरे पिताजी को लोग कहते थे, ‘आप जीवन में प्रगति नहीं कर पाए’, ‘वे जिस शाखा पर बैठते हैं, उस शाखा को ही तोड देते हैं’, ‘ये सांप्रदायिक हैं’, ‘पागल हैं, आप कहां इस मार्ग पर चल पडे हैं ?’ बडे पद पर आसीन लोग कहते थे, ‘बेटा, तुम अपनी पिता जैसे मन बनो !’ उस समय मैं यही विचार कर रहा था कि धर्म की लडाई लडते समय यदि इस प्रकार के अनुभव मिल रहे हों, तो ठीक है । हमारी एक पीढी ने अपमान सहन किया, तो मैं भी राष्ट्र एवं धर्म के लिए अपमान सहन करने के लिए तैयार हूं । हिन्दू धर्म, संस्कृति, सभ्यता एवं हमारे पूर्वजों के साथ अन्याय हुआ है तथा उस संपूर्ण सभ्यता को न्याय दिलाने का काम हमें करना है । पिताजी ने हिन्दू समाज हेतु जो कार्य निष्काम भाव से किया है, उस विषय में लोगों तक उचित जानकारी नहीं पहुंची है । उन्होंने सनातन धर्म हेतु तपस्या की है । उन्होंने मथुरा अथवा काशी के लिए जो नींव तैयार की है, वह अनमोल है । हमारे सभी अभियोग अध्ययनपूर्ण होते हैं । अयोध्या, मथुरा, काशी, ताजमहल, भोजशाला, कुतुब मिनार, इन सभी प्रकरणों में उन्होंने गहरा शोधकार्य किया है । ऐसा हो सकता है कि पिताजी के अथवा मेरे जीवन में हमें इसमें सफलता नहीं मिली, तो ये सभी प्रकरण अगली पीढी को हस्तांतरित होंगे ।
३. धर्म के लिए लडते समय परिजनों का दृष्टिकोण
यह सब कार्य देखकर मेरी मां मुझसे कहती थीं, ‘ऐसा संकट से भरा कार्य कर क्या मिलनेवाला है ?’ प्रत्येक मां को यही लगता
है । वास्तव में देखा जाए, तो यह एक सभ्यता की लडाई है । इसमें ऐसा भी हो सकता है कि इस लडाई में आगे हम नहीं भी होंगे । इसलिए एक मां का मत यही होता है कि ऐसे काम नहीं करने चाहिए तथा एक सामान्य जीवन जीना चाहिए । मैंने मेरी अंतरात्मा की आवाज सुनकर यह किया ।
– अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन, अधिवक्ता, सर्वाेच्च न्यायालय
अखंड ‘हिन्दू राष्ट्र’ बने तथा समस्त विश्व को हिन्दुत्व का परिचय हो !‘जब मैं सर्वोच्च न्यायालय की ‘लॉबी’ में होता हूं, तब लोग मुझसे पूछते हैं, ‘आप जून-जुलाई के महिने में घूमने के लिए किस देश जानेवाले हैं ?’ मैं घूमने के लिए विदेश नहीं जाता, अपितु वाराणसी, काशी के स्थानीय अभियोग देखता हूं । हम इस व्यवसाय से जो धन अर्जित करते हैं, उसे धर्मकार्य में लगा देते हैं । हमारा कोई भी न्यास अथवा संगठन नहीं है कि जिसके माध्यम से हम अलग से कोई आर्थिक सहायता ले सकें । हमारी ओर से अल्पाधिक कार्य हो, यह ईश्वर की इच्छा है । समाज का एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं कह सकता कि विष्णु शंकर जैन ने कोई काम करने के लिए पैसे मांगे । हम सभी यथाशक्ति प्रयास करते हैं । मुझे भी लगता है कि यह देश ‘अखंड हिन्दू राष्ट्र’ बने । रामराज्य एवं ‘हिन्दू राष्ट्र’ की संकल्पना एक ही है । हमने जो भूभाग खोया है, वह हमें पुनः मिले तथा समस्त विश्व को हिन्दुत्व का परिचय हो । प्रभु श्रीराम, श्रीकृष्ण एवं भगवान शिव के समस्त जगत को दर्शन हों !’ – अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन |