मनुष्य का शरीर विभिन्न यंत्रों सहित कारखाने की भांति आत्मा का वाहन होना
(पंचज्ञानेंद्रिय एवं पंचकर्मेंद्रिय यंत्र, जबकि पाचनतंत्र कारखाने की भांति है)
दिव्य ज्ञानदाता कहने लगे, ‘‘मनुष्य का (नहीं, अपितु प्राणिमात्र का) शरीर विभिन्न यंत्रों सहित एक प्रचंड कारखाने के स्वरूप में आत्मा का वाहन ही होता है । उसमें पंचज्ञानेंद्रिय एवं पंचकर्मेंद्रिय विभिन्न यंत्र हैं तथा पाचनतंत्र किसी अद्वितीय कारखाने के समान है । आत्मा इस यंत्र एवं कारखाने के रूप में बाह्य जगत के साथ समन्वय एवं संवाद साधती रहती है ।
पंचज्ञानेंद्रिय एवं पंचकर्मेंद्रिय यंत्र होना
१. बाह्य संवेदना (५ प्रकार की) : प्राणिमात्र, साथ ही मनुष्य अपनी जन्मजात योनि के अनुसार प्राप्त क्षमता, ज्ञान एवं गुण के अनुसार बाह्य जगत से केवल ५ प्रकार की संवेदनाएं ग्रहण करते हैं । आध्यात्मिक भाषा में हम उन्हें पंचमहाभूतात्मक संवेदनाएं कह सकते हैं । इन बाह्य संवेदनाओं से मनुष्य की आंतरिक वृत्तियां उत्पन्न होती हैं ।
२. आंतरिक संवेदनाएं : भाव एवं भावनाएं मनुष्य सहित प्राणिमात्र की आंतरिक संवेदनाएं हैं तथा मन एवं बुद्धि के द्वारा, अपनी जन्मजात योनि के अनुसार प्राप्त क्षमता, ज्ञान, गुण आदि के द्वारा आत्मा ग्रहण करती रहती है । जन्म-जन्म का कर्म एवं संस्कार अर्थात ही वृत्तियों से ये आंतरिक संवेदनाएं उत्पन्न होती हैं ।
३. ज्ञानेंद्रिय : प्राणिमात्र (आत्मा) अपनी जन्मजात योनि के अनुसार प्राप्त क्षमता, ज्ञान एवं गुण (मनुष्य में समाहित संस्कार) के अनुसार उपलब्ध ज्ञानेंद्रियों के (मनुष्य में समाहित पंचज्ञानेंद्रियों के) माध्यम से बाहर से आनेवाली विभिन्न पंचमहाभूतात्मक स्थूल संवेदनाओं को प्रकाशरूप में परावर्तित कर, बाहर के उस क्षण के स्थल, काल एवं व्यक्ति के विषय की जानकारी को प्रकाशज्ञान स्वरूप में ग्रहण करती है ।
एक प्रकार से आधुनिक विज्ञान की भाषा में ये ‘रिसीवर (इनपुट) एंटेना’ की भांति कार्य करते हैं । एक प्रकार से यह कर्म ‘एक्शन’ सिद्ध होता है ।
४. कर्मेंद्रिय : प्राणिमात्र अपनी जन्मजात योनि के अनुसार प्राप्त क्षमता, ज्ञान, गुण (मनुष्य अपने संस्कारों के अनुसार) आदि के आधार पर ज्ञानेंद्रियों द्वारा जानकारी के रूप में कर्मेंद्रियों के (मनुष्य पंचकर्मेंद्रियों के) माध्यम से उचित प्रतिसाद देते हैं । यहां आत्मा से आए प्रकाशरूपी ज्ञान का रूपांतरण पहले मस्तिष्क में होकर, उसका तंत्रिका के माध्यम से वहन होता है तथा अंततः स्थूल कर्म में वह रूपांतरित होता है । उसके पश्चात प्रतिसाद देने का कर्म होता है ।
एक प्रकार से आधुनिक विज्ञान की भाषा में इसे ‘प्रतिसाद’ (रिस्पौन्स) कहते हैं । एक प्रकार से यह कर्म तो आत्मा को मिली जानकारी के रूप में ‘एक्शन’ के लिए ‘रिएक्शन’ (क्रिया की प्रतिक्रिया) होती है ।
५. कान से सुनने की आंतरिक प्रक्रिया एवं चल-दूरभाष से दूरस्थ मनुष्य से संवाद करानेवाले विज्ञान की बाह्य जगत की प्रक्रिया : वर्तमान में आधुनिक विज्ञान द्वारा निर्मित चल-दूरभाष अथवा दूरभाष के द्वारा मनुष्य की बातों की सुनाई देनेवाली ध्वनिऊर्जा का रूपांतरण मनुष्य को सुनाई न देनेवाली विद्युत-चुंबकीय ऊर्जा में होकर, वह पहले उपग्रह की ओर प्रक्षेपित होती है । उसके उपरांत उपग्रह उन विद्युत-चुंबकीय तरंगों को परावर्तित कर, जिससे संपर्क किया गया है, उसके चल-दूरभाष पर भेजता है । सुन रहे मनुष्य का चल-दूरभाष अथवा दूरभाष उन विद्युत चुंबकीय तरंगों को ग्रहण कर उनका मनुष्य को सुनाई देनेवाली ध्वनि ऊर्जा में रूपांतरित करता है, तब जाकर मनुष्य उसे सुन सकता है । कान का कार्य भी एक प्रकार से इसी प्रकार का है, यह हमने लेख के पहले सूत्र में ‘कान की ज्ञानेंद्रिय – ध्वनि का प्रकाश में रूपांतरित करनेवाला यंत्र’ में देखा ।
आधुनिक विज्ञान की यह प्रौद्योगिकी जैसे दूरस्थ व्यक्तियों को एक क्षण में एक-दूसरे से संवाद करना संभव बनाती है, वैसे ही आधुनिक विज्ञान की प्रौद्योगिकी को भगवान ने अनंत काल से मनुष्य के शरीर में ‘कान’ नामक यंत्र को चलाया है । ईश्वर की इस दिव्यता को हमें ध्यान में रखना चाहिए ।
६. पाचनतंत्र – एक अद्वितीय परमात्मा निर्मित देहरूपी कारखाना ! : उस विभूति ने अगला ज्ञान देते हुए कहा, ‘‘एक ही प्रकार से कच्चा माल डालकर विभिन्न प्रकार के उत्पाद एक ही कारखाने में बनाए जाते हैं । क्या तुमने ऐसा कोई कारखाना देखा है ?’’ मैंने कहा, ‘‘नहीं । एक ही प्रकार के कच्चे माल का उपयोग कर, एक ही प्रकार का उत्पाद बनानेवाला कारखाना मैंने देखा है ।’’ उस पर उन्होंने कहा, ‘‘मनुष्य की देह अनेक यंत्रों तथा कारखाने के समान है । मनुष्य का पाचनतंत्र परमात्मा का इतना दिव्य कारखाना है कि इसमें एक ही प्रकार के कच्चे माल का उपयोग कर, शरीर को उसे अपेक्षित उत्पाद बनाने दिया जाता है । कोई शाकाहारी, मांसाहारी अथवा फलाहारी हो सकता है; शरीर में अन्न जाने के उपरांत सभी को जीने के लिए जो ऊर्जा मिलती है, आवश्यक अन्नरस बनते हैं, आवश्यक ‘हार्माेंस बनते हैं, आवश्यक रक्त तैयार होता है, आवश्यक मांस, हड्डियां एवं जीवनावश्यक शरीर क्रिया के लिए आवश्यक पंचमहाभूतात्मक वस्तुएं शरीर उत्पन्न करता है । विज्ञान ने औद्योगिकीकरण तो किया; परंतु अभी तक विज्ञान के पास कच्चे माल से जब चाहे इच्छित उत्पाद बनाने की क्षमता नहीं आई है तथा भगवानरूपी प्रकृति द्वारा प्रदान शरीर उसे वह करके दिखा रही है ।
कुल मिलाकर ८४ लाख योनियों में आत्मा का कालानुरूप एवं योनिरूप प्राप्त शरीररूपी वाहन बाह्यजगत से उसका समन्वय एवं संवाद करने का यंत्र है । यह बाह्य यंत्र भले ही कितना भी भेदयुक्त क्यों न हो, तब भी सर्वत्र वही आत्मा व्याप्त है तथा यही अद्वैत, यही एकत्व है ! बाह्य यंत्र बिगडेंगे, उनमें खराबी आएगी, वो जीर्ण हो जाएंगे, उन्हें त्यागना पडेगा; क्योंकि वो अशाश्वत पंचमहाभूतात्मक हैं; परंतु अंदर बैठा हुआ जीव, जीवात्मा, आत्मा, परमात्मा अर्थात चेतना है, शाश्वत है, अविनाशी है, सर्वव्यापी है, सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है । यही अंतिम सत्य, यही हमारा स्वस्वरूप तथा यही है अनादि अनंत !
– (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति (२५.१०.२०२३)