राष्ट्रसेवा योगी बनकर करनी चाहिए, भोगी होकर नहीं ! – प.पू. प्रेमानंद महाराज
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वृंदावन (उत्तर प्रदेश) – हमारा ध्वज और हमारा राष्ट्र हमारे लिए ईश्वर है । आप तप के माध्यम से भजन द्वारा (नामजप द्वारा) लाखो लोगों की बुद्धि शुद्ध कर सकते हैं । एक भजन लाखो लोगों का उद्धार कर सकता है । आप भजन कीजिए, इंद्रियों पर विजय प्राप्त कीजिए और राष्ट्रसेवा भी कीजिए । राष्ट्र की सेवा के लिए प्राण समर्पित करें । राष्ट्र की सेवा जितेंद्रिय बनकर अर्थात योगी बनकर करने का महत्त्व है, भोगी बनकर नहीं, ऐसा अनमोल मार्गदर्शन प.पू. प्रेमानंद महाराज ने यहां किया । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प.पू. सरसंघचालक डॉ. मोहनजी भागवत और संघ के अन्य पदाधिकारी प.पू. महाराज का दर्शन करने के लिए आश्रम में आए थे । इस समय प.पू. महाराज ने अध्यात्म और साधना का महत्त्व बताया । प.पू. महाराज के मार्गदर्शन का वीडियो एक ही दिन में लाखो लोगों ने देखा ।
(सौजन्य : Bhajan Marg)
दृढ श्रद्धा होगी, तो सबकुछ परम मंगलमय ही होगा !
इस समय प.पू. सरसंघचालक ने कहा कि आप प्रवचन से जो बताते हैं, वही हम सामज के सामने प्रस्तुत करते हैं । हम कभी निराश नहीं होंगे; परंतु चिंता इस बात की है कि भविष्य में कैसे होगा ? हम सभी के मन में (हिन्दू समाज का कैसे होगा ?) यह भय है ।
इसपर प.पू. प्रेमानंद महाराज ने कहा कि इसका उत्तर अत्यंत सरल है । हम भगवान श्रीकृष्ण पर श्रद्धा नहीं रखते । मुख्य रुप से हमें यह समझना होगा कि कुछ भी हो, भगवान श्रीकृष्ण पर अपनी श्रद्धा खोनी नहीं है । हमारी श्रद्धा दृढ होगी, तो सबकुछ परम मंगलमय ही होगा । हमें हमारे अध्यात्म का सामर्थ्य समझना चाहिए । हम हमारे स्वस्वरुप को जानते हैं, इसलिए भय किस बात का ? भगवान तीन प्रकार की लीलाएं कर रहे हैं, उत्पत्ति, स्थिति और लय । जब जो आदेश होगा, वैसा हमें करना है; क्योंकि हम उनके दास हैं । वही होगा, जो मंगल होगा । वह श्रीकृष्ण ने ही रचा होगा । कभी आशंका में न पडे । जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने आप लागों को तैयार किया, वैसे ही वे और एक को तैयार करेंगे । वे सबकुछ अच्छे से संभालेंगे । आपको कोई चिंता नहीं करनी है । हमारे साथ भगवान श्रीकृष्ण हैं । निराशा और उदासीनता का हमारे जीवन पर कोई अधिकार ही नहीं है । किसी भी प्रकार का भय नहीं, दुःख नहीं । हम अविनाशी हैं । जो सेवा मिली है, वही करते जाना है । जब तक सांस है, तब तक सबकुछ करना है । शरीर त्यागने पर उन्हीं में ही (भगवान में ही) मग्न होना है ।
‘देशवासियों के विचार शुद्ध करना’, हमारा उद्देश्य होना चाहिए ! – प.पू. प्रेमानंदजी महाराज
प.पू. महाराज ने आगे कहा कि हमें प्रभु श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण प्रिय हैं । साथही हमें देश भी प्रिय है; परंतु हमारे धर्म का स्वरुप हम भूल गए हैं । क्या हम हमारे जीवन का लक्ष्य जानते हैं ? हमें देश का प्रत्येक व्यक्ति प्रिय है; परंतु आज जो भावनाएं उत्पन्न हो रही हैं, वे हमारे देश और धर्म के लिए उचित नहीं हैं । हिंसा का बढता स्वरुप संकटजनक है । इसलिए सुख-सुविधाएं देने पर भी हम जनता को सुखी नहीं कर पाएंगे । इसका कारण यह है कि सुख का स्वरुप विचारों से है । हमारे विचार ही अनुचित होंगे, तो क्या लाभ होगा ? हमारा उद्देश्य ‘देशवासियों के विचार शुद्ध करना’, यही होना चाहिए ।
१. हमें हमारे आचरण से, हमारी संकल्पनाओं से तथा वाणी द्वारा समाज और राष्ट्र की सेवा करनी है । मैं सदैव इच्छा करूंगा कि आप जैसे सन्मार्ग से प्रेरित करनेवालों का स्वास्थ्य अच्छा रहे, ईश्वर आप की सदैव रक्षा करे और आप आगे जाते रहे ।
२. भगवान ने आपको जो जन्म दिया है, वह केवल व्यावहारिक और आध्यात्मिक सेवा करने के लिए ही दिया है । हम देशवासियों को सुखी करना चाहते हैं, तो वह केवल सुविधाएं और वस्तुएं देकर नहीं कर सकते । इसके लिए उनके बौद्धिक स्तर में सुधार आवश्यक है । हमारे समाज के बौद्धिक स्तर का पतन हो रहा है । यह चिंता की बात है । हम सुविधाएं देकर उन्हें भोगविलास के साधन उपलब्ध करवा सकते है; परंतु उनके हृदय की मलीनता का क्या होगा ? उनमें विद्यमान हिंसात्मक प्रवृत्ति, अपवित्रता से कुछ लाभ नहीं होगा ।
३. हमारा देश धर्मप्रधान है । हमारी शिक्षापद्धति केवल आधुनिक हो चुकी है । नई पीढी की हिंसात्मक प्रवृत्ति देखकर अत्यंत दुःख होता है । इसलिए मैं सदैव यह देखता हूं कि जितने भी लोग मेरे सामने आएंगे, उनकी बुद्धि शुद्ध होनी चाहिए ।
वृंदावन के प.पू. प्रेमानंद महाराज का परिचय !प.पू. प्रेमानंद महाराज उत्तर प्रदेश के वृंदावन के महान संत हैं । वे भक्तियोग के माध्यम से हिन्दुओं को ईश्वरप्राप्ति का मार्ग दिखाते हैं । वे भक्तों को श्रीकृष्ण की राधा की उपासना करने को बताते हैं । पीछले १७ वर्षाें से उनके दोनों गुर्दे काम नहीं कर रहे हैं । उन्हें एक दिन छोडकर एक दिन ‘डायालिसिस’ करना पडता है; परंतु ईश्वर के साथ आंतरिक सान्निध्य होने से उन्हें उनकी पीडा का कुछ नहीं लगता । ‘डॉक्टर ने मुझे कहा था कि मैं केवल ६ महीने जीऊंगा; परंतु गुरुकृपा से मैं १७ वर्षाें के उपरांत भी जीवित हूं । साधना का महत्त्व अलौकिक है’, इस प्रकार वे अपना उदाहरण देकर समाज को सदैव साधना करने का उपदेश करते हैं । |