‘साधना की (ईश्वर के लिए कुछ किया) तथा उससे हानि हुई’, क्या विश्व में ऐसा एक भी उदाहरण है ?
१. ईश्वरप्राप्ति के लिए साधना करनेवालों को उनके संबंधियों से विरोध होना; परंतु गुरु एवं ईश्वर द्वारा उन्हें सर्वाेच्च आनंद देना
‘हमारे जीवन का उद्देश्य ही ‘प्रारब्ध भोग को समाप्त कर आनंद की प्राप्ति (ईश्वर की प्राप्ति) करना’ है, आज मनुष्य को इसका पूर्णतया विस्मरण हो चुका है । इसलिए आज के समय में ईश्वरप्राप्ति के लिए पूर्णकालीन साधना करनेवालों का अथवा साधना के लिए अधिकाधिक समय देनेवालों का उनके सगे-संबंधी विरोध करते हैं । उन्हें लगता है कि ‘साधना करना जीवन को व्यर्थ गंवाना है ।’ इस विषय में पूर्णकालीन साधक के अनुभव जानकर, ‘गुरु एवं ईश्वर किस प्रकार ऐसे साधकों का ध्यान रखते हैं ? तथा कैसे उन्हें सर्वोच्च सुख अर्थात आनंद प्राप्त करवाते हैं ?’, यह सीखा जा सकता है ।
२. धर्माचरण एवं साधना करनेवाले अन्य पंथियों की उनके पंथ के लोगों द्वारा प्रशंसा करना, जबकि हिन्दुओं का धर्माचरणी साधक को विरोध करना !
अन्य पंथ के लोग उनके पंथ के अनुसार आचरण करनेवालों की प्रशंसा करते हैं, जबकि हिन्दू धर्मी ऐसे लोगों की आलोचना करते हैं । मुस्लिम परिवार से कोई मुल्ला अथवा मौलवी बने, ईसाई परिवार से कोई फादर अथवा नन बने अथवा जैन पंथ का कोई व्यक्ति संन्यास अथवा दीक्षा ले, तो उनके परिजन उस विषय में गर्व से अन्य लोगों को बताते हैं तथा उनकी प्रशंसा करते हैं; परंतु ‘हिन्दू धर्मियों में से कोई साधना करने लगे अथवा धर्मकार्य के लिए पूर्णकालीन बने, तो उस समय उनके परिजनों तथा सगे-संबंधियों को ऐसा लगता है, ‘अब यह काम से गया !’
३. पूर्णकालीन साधना करने का निर्णय लेने पर हुआ विरोध
किसी साधक अथवा साधिका द्वारा पूर्णकालीन साधना करने का विचार करने पर सर्व स्तरों से उनका बहुत विरोध होता है । इसी प्रकार से मेरा भी विरोध हुआ था । मेरे मित्रों ने मेरी गणना मूर्खों में की । ‘इतनी अच्छी नौकरी होते हुए भी तुम्हें साधना करने की दुर्बुद्धि कैसे हुई ?, तुम्हारी पत्नी एवं बच्चों का क्या होगा ?, क्या इसका तुमने विचार किया है ? तुमने एक लडकी का (पत्नी का) जीवन व्यर्थ कर दिया । तुम्हारी बेटी कितनी छोटी है तथा तुम्हारे घर में कमानेवाला कोई नहीं है, तुम्हारा अपना घर भी नहीं है तथा पर्याप्त पूंजी भी नहीं है, तो आगे कैसे होगा ? आगे जब कठिन समय आएगा, तब हाथ से समय निकल चुका होगा’, ऐसा बोलकर उन्होंने मुझे पूर्णकालीन साधना करने के निर्णय से विचलित करने का प्रयास किया ।
४. गुरुकृपा से साधना से परावृत्त करनेवाले लोगों की बातों का मेरे मन पर कोई परिणाम न होना
सबसे आश्चर्य की बात यह थी कि मुझे साधना करने से परावृत्त करनेवाले किसी भी व्यक्ति को ‘साधना क्या होती है ?’, यह वास्तव में ज्ञात नहीं था; परंतु तब भी वे ‘साधना करने से जीवन में मेरी बडी हानि होगी !’, ऐसा बोल रहे थे; परंतु गुरुकृपा से पूर्णकालीन साधना करने का मेरा निश्चय दृढ था । ‘अन्य लोग मुझे जो बोल रहे थे, उनकी किसी बात का मुझ पर कोई परिणाम नहीं हुआ’, यह गुरुदेवजी की कृपा थी ।
५. पूर्णकालीन साधना आरंभ करने पर माया से संबंधित बातों में संलिप्त न होकर साधना को प्रधानता देना
नवंबर २००३ में पूर्णकालीन साधना आरंभ करने पर मैं घर के किसी भी विषय में संलिप्त नहीं हुआ । घर पर पत्नी, छोटी बेटी तथा मां, इन तीनों के होते हुए भी मैं घर से २ किलोमीटर दूर स्थित सनातन के ठाणे सेवाकेंद्र में रहने के लिए चला गया । मैं सप्ताह में एक रात के लिए घर जाकर सवेरे अल्पाहार कर पुनः आश्रम वापस आ जाता था । मैं पारिवारिक कार्यक्रमों में जाना टाल देता था; क्योंकि ऐसे कार्यक्रमों में जाने से साधना का अमूल्य समय व्यर्थ होता है । इस विषय में पत्नी सदैव मुझसे कहती थी, ‘आप कम से कम संबंधियों के कार्यक्रमों में तो आईए; क्योंकि लोग जब मुझे आपके विषय में प्रश्न पूछते हैं, उन प्रश्नों का मैं उत्तर नहीं दे पाती हूं ।’ इसे मैं केवल सुनता था तथा साधना को ही प्रधानता देता था । मैं अपनी बेटी वैदेही की दसवीं एवं बारहवीं कक्षा की परीक्षाओं से पूर्व तथा परीक्षाओं की अवधि में घर नहीं गया था, साथ ही अपनी सगी बहनों की दोनों लडकियों के विवाह में भी नहीं गया ।
६. सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी द्वारा परिजनों का संपूर्ण ध्यान रखा जाना तथा सभी को साधक बनाकर उनके कृपाछत्र में आश्रम ले आना
इस अवधि में सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी ने (सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने) मेरे परिजनों का पूर्ण ध्यान रखा, यह मैंने अनेक प्रसंगों में अनुभव किया । अब मुझे पूर्णकालीन साधना आरंभ किए २० वर्ष हो चुके हैं । आज स्थिति यह है कि जब मेरी बेटी चिकित्सा शिक्षा ले रही थी, उस अवधि में उसमें साधना के प्रति रुचि उत्पन्न हुई तथा वर्ष २०१४ में वह पूर्णकालीन साधिका बन गई । पत्नी के सामने ‘अकेले घर में कैसे समय बिताऊं ?’, यह प्रश्न था, तो ऐसे में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी ने उसे घर पर ही सेवा करने की सद्बुद्धि प्रदान की तथा उसने सेवा करना आरंभ किया । आगे जाकर गुरुकृपा से वह भी वर्ष २०१६ से पूर्णकालीन साधिका बन गई । अब प्रश्न था मां का ! अब घर पर कोई न होने से भगवान ने मां (श्रीमती प्रभावती गजानन शिंदे [आयु ८७ वर्ष]) के सामने आश्रम आने के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं रखा । गुरुदेवजी उसे भी आश्रम ले आए । आज मां का आध्यात्मिक स्तर ६६ प्रतिशत है ।
७. सभी परिजनों के साधना करने के कारण उनकी किसी प्रकार की हानि न होकर उन्हें आनंद प्राप्त होना
आज मेरे सभी परिजन सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी की छत्रछाया में मनुष्य जीवन के सर्वोच्च ध्येय ‘मोक्ष’ को प्राप्त करने हेतु साधना कर रहे हैं । क्या किसी के जीवन में इससे बडा सौभाग्य हो सकता है ? आज हम सभी परिजन आनंदित हैं । व्यावहारिक जीवन जीनेवाले व्यक्तियों को जो नित्य विभिन्न समस्याएं आती हैं, उन चिंताओं से हम दूर हैं । इससे यह सिद्ध होता है, ‘साधना की (भगवान का कुछ किया) तथा उससे हानि हुई’, विश्व में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है ।
८. यदि प्रत्येक व्यक्ति को धर्मशिक्षा दी गई, तो ‘जीवन की सार्थकता का क्या अर्थ है ?’, यह ज्ञात होने पर व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र का उत्थान हो सकता है !
साधना कर जीवन को सार्थक बनानेवालों का समाज से विरोध होता ही है । यह कितनी बडी अज्ञानता है ! इसके लिए सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के बताए अनुसार यदि बचपन से ही प्रत्येक व्यक्ति को धर्मशिक्षा दी जाए, तभी उसे जीवन में साधना का महत्त्व ज्ञात होगा तथा वह साधना करेगा । इससे भविष्य में व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र का उत्थान हो सकेगा ।
सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी द्वारा सुझाए गए शब्दसुमन कृतज्ञभाव से उन्हीं के चरणों में समर्पित !
इदं न मम ।’
– (सद्गुरु) राजेंद्र शिंदे, सनातन आश्रम, पनवेल. (२०.८.२०२३)