ग्वालियर के श्रीराम मंदिर में सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी का ‘रामधुन’ कार्यक्रम में मार्गदर्शन
ग्वालियर (मध्य प्रदेश) – यहां के दाल बाजार स्थित आबा महाराज श्रीराम मंदिर में गत १८ वर्षों से पाक्षिक ‘रामधुन ’कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है । इस माध्यम से लोगों में भक्ति का प्रसार करने का कार्य किया जाता है । इस कार्यक्रम में सदगुरु डॉ. पिंगळेजी का मार्गदर्शन हो, इस हेतु श्री. हेमंत खेडकर ने प्रयास किए । इस कार्यक्रम का प्रसारण मंदिर के अधिकृत फेसबुक पेज से किया गया । कार्यक्रम का आरंभ अत्यंत भक्तिमय रामनाम से हुआ ।
इस समय उपस्थित भक्तों का मार्गदर्शन करते हुए सदगुरु डॉ. पिंगळेजी ने कहा यह पाक्षिक रामधुन का कार्यक्रम है, परंतु हमारे अंदर राम नाम की धूनी निरंतर प्रज्वलित होना आवश्यक है । सभी के आराध्य प्रभु श्रीरामजी का जीवन चरित्र केवल पढने के लिए अथवा वर्ष में एक बार स्मरण करने के लिए नहीं है । श्रीरामजी जैसे गुण स्वयं में निर्माण कर हमारा नित्य आचरण भी श्रीरामजी को अपेक्षित ऐसा हो, इसके लिए प्रतिदिन प्रयास करना आवश्यक है और इसे साधना कहते हैं । दास्य भक्ति के आदर्श हनुमानजी ने सुंदरकांड क्यों किया, इसका चिंतन करने की आवश्यकता है । वर्तमान में हमारे देवी-देवताओं का अनादर, सनातन धर्म का अनादर खुले आम हो रहा है, उसका संवैधानिक मार्ग से निषेध करना भी भक्ति ही है । आज हम सभी को रामराज्य स्थापित होने के लिए भक्ति बढाने की, प्रतिदिन धर्मसेवा हेतु एक घंटा देने की आवश्यकता है, ऐसा प्रतिपादन सदगुरु डॉ. पिंगळेजी ने किया ।
इस कार्यक्रम का २०० से अधिक भक्तों ने लाभ लिया । इस अवसर पर अध्यात्म, राष्ट्र धर्म संबंधी ग्रंथों की तथा सात्त्विक उत्पादों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी ।
मंदिर का ऐतिहासिक महत्त्वग्वालियर दाल बाजार स्थित आबा महाराज श्रीराम मंदिर समर्थ गुरु रामदासस्वामीजी के पट्टशिष्य कल्याण स्वामीजी के भाई दत्तात्रय स्वामीजी की वंश परंपरा का प्रदेश का इकलौता मंदिर है । इसका मूल मठ महाराष्ट्र के सातारा स्थित शिरगांव में है । सन् १८३४ में ग्वालियर के तत्कालीन महाराजा जनकोजी राव ने आबा महाराजजी से ग्वालियर आने की प्रार्थना की थी । उन्होंने दाल बाजार में १८३५ में श्रीराम मंदिर का निर्माण कराया । दत्तात्रय स्वामी द्वारा ४०० वर्ष पहले लिखी गई दासबोध की दुर्लभ पांडुलिपी अब भी मंदिर में उपलब्ध है । दत्तात्रय स्वामीजी के वंश परंपरा के श्री. उपेन्द्र शिरगांवकर तथा श्री. राघवेंद्र शिरगांवकर ने मंदिर की परंपरा जारी रखी है । |