दाभोलकर-पानसरे हत्या की भटकी हुई जांच की कथा
‘वर्ष २०१३ में अंनिस (अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति) के डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, वर्ष २०१५ में कॉ. गोविंद पानसरे एवं साहित्यकार प्रा. एस.एम. कलबुर्गी तथा वर्ष २०१७ में पत्रकार गौरी लंकेश इन आधुनिकतावादियों की जब से हत्याएं हुई हैं, तब से इन हत्याओं के पीछे किस प्रकार हिन्दुत्वनिष्ठों का, विशेषरूप से सनातन संस्था का हाथ है, यह किसी भी प्रकार से प्रमाणित करने की होड चल रही है । इसमें आतंकवादविरोधी दल (ए.टी.एस.), सी.बी.आई., राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एन.आई.ए.) जैसे राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न जांच एजेंसियों को ठोस प्रमाण न मिलने के कारण उनकी फजीहत हो रही है, ऐसी स्थिति सामने आ रही है ।
विभिन्न जांच एजेंसियों द्वारा आधुनिकतावादियों की हत्याओं के जांच के अंतर्गत की जा रही बहुत बडी प्रक्रिया तथा जटिलता, साथ ही सनातन के साधकों को आरोपों के कटघरे में खडा करने के हठ के चलते इन अन्वेषण विभागों द्वारा इकट्ठा किए गए झूठे प्रमाण, रची गईं कपोलकल्पित कहानियां, उसके लिए रचा गया कुतंत्र तथा खर्च किए गए लाखों रुपए, व्यर्थ समय, समय-समय पर न्यायालय के द्वारा उन्हें दी गई फटकार तथा इन सभी बातों से जांच पर लगे अनेक प्रश्नचिन्हों को संक्षेप में रखनेवाली ‘दाभोलकर-पानसरे हत्या तपासातील रहस्ये ?’ यह मराठी पुस्तक ‘उद्वेली बुक्स’ प्रकाशन ने प्रकाशित की है ।
इस पुस्तक में समाहित ‘जांच का एक अनुत्तरित प्रश्न : पिस्तौल गई कहां ?’, इस एक ही अध्याय से इस जांच में हो रही सामान्य लोगों की भी समझ में आनेवाली त्रुटियां सामने आती हैं । इन जांच संस्थाओं की यह जांच देखकर अक्षरशः ‘हंसे या रोएं ?’, यही समझ में नहीं आता । इस जांच से हिन्दुओं के साथ, तथा सनातन के साधकों के साथ जो धोखाधडी हो रही है तथा उनका जो उत्पीडन हो रहा है, उसका कोई तोड नहीं है । इस जांच से आधुनिकतावादियों की तथा प्रशासकीय व्यवस्था की विकृत एवं हिन्दूद्वेषी मानसिकता उजागर होती है । वामपंथियों की हिन्दुओं के विरुद्ध वर्षों से चली आ रही अनेक स्तरों की लडाई तथा उनके द्वारा की गई सहस्रों हत्याओं को देखते हुए उक्त ४ वामपंथियों की हत्याओं का ठीकरा हिन्दुओं के सर पर फोडने के उनके अथक प्रयास इस बडी जांच में समाहित इस एक प्रकरण से भी समझ में आएंगे । (इस लेख में इस पुस्तक का यह अंश, जैसे के वैसा अनुवादित कर दे रहे हैं ।)
१. जांच का एक अनुत्तरित प्रश्न : पिस्तौल कहां गई ?
पुणे पुलिस ने डॉ. दाभोलकर की हत्या में अग्निशस्त्र का अर्थात पिस्तौल का उपयोग होने का दावा किया था । दाभोलकर की हत्या तथा हत्या में उपयोग की गई पिस्तौल तो एक बहुत बडी पहेली बनी हुई है । इस अध्याय की ओर बढने से पूर्व ‘जांच कैसी होनी चाहिए ?’, इस संदर्भ में वैश्विक स्तर के कुछ सिद्धांत समझ लेना प्रासंगिक होगा, जो निम्न प्रकार से हैं –
अ. जांच सत्यनिष्ठ होनी चाहिए ।
आ. जिस प्रकार सूर्य की किरणें एक-एक करते हुए आगे बढती हैं, वैसे ही जांच आगे-आगे बढनी चाहिए । वह पुनः मुडकर पीछे आई तथा वृत्ताकार घूमती रह गई, ऐसा जांच के संदर्भ में नहीं होना चाहिए ।
इ. जांच की मूलतः स्वयं की एक कथा होनी चाहिए । हो रही जांच उस कथा को लेकर उजागर होते हुए आगे बढनी चाहिए ।
‘दाभोलकर हत्याकांड में उपयोग की गई पिस्तौल की यह जांच इन आवश्यकताओं को पूर्णतया एक ओर रखनेवाली जांच है’, ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा ।
२. ‘कौन किसे धोखा दे रहा है ?’, इसे जनता को निम्न घटनाक्रमों में खोजना चाहिए !
अ. २० अगस्त २०१३ को डॉ. दाभोलकर की हत्या हुई तथा १ सितंबर २०१३ को उस पुल पर स्वच्छता का काम करनेवाले एक सफाईकर्मी ने बताया कि दो युवक दाभोलकर के पीछे भागते हुए आए । उनमें से एक ने गोलियां चलाईं तथा उसके पश्चात दूसरे ने गोलियां चलाईं । गोलियां चलाकर भागते हुए वापस जाते समय दूसरे ने अपनी पिस्तौल पहले के हाथ में दी तथा पहले युवक ने उन दोनों पिस्तौलों को अपने कंधे से लटकी बैग में डाला । उस सडक से जा रहे मीनानाथ गायकवाड नाम के साक्षी (गवाह) ने भी उन दोनों के द्वारा गोलियां चलाने की बात कही । इसका अर्थ है, ‘दोनों हत्यारों ने गोलीबारी की तथा इसमें दो पिस्तौलों का उपयोग किया गया ।’
आ. पुणे पुलिस की जोरदार जांच में उन्होंने इस हत्याकांड में विकास खंडेलवाल एवं मनीष नागौरी, इन दोनों को बंदी बनाया । पुलिस का यह कहना था कि २० अगस्त २०१३ को ठाणे जिले के मुंब्रा में पुलिस ने इन दोनों को फिरौती मांगने के एक प्रकरण में बंदी बनाया था । उनके पास से अवैध शस्त्रों एवं कारतूसों का जखीरा मिला । ठाणे पुलिस ने यह जखीरा मुंबई के सरकारी न्यायचिकित्सक संस्था को भेजा । वास्तव में देखा जाए, तो यह एक पूर्णतः भिन्न अपराध था; परंतु पुणे पुलिस को दाभोलकर हत्याकांड में उपयोग हुई पिस्तौल नहीं मिल रही थी ।
इसलिए ‘फोरेंसिक लैब’ के पास क्या अन्य अपराधों में उपयोग किए हुए शस्त्रों का उपयोग दाभोलकर की हत्या में हुआ था ?’, इसकी जांच करने का अनुरोध किया था ।
पुणे पुलिस का यह कहना था कि उस पत्र के अनुसार ‘फोरेंसिक लैब’ ने मुंब्रा में फिरौती मांगने के अपराध में जब्त किए गए हथियारों की पडताल की । उनकी जांच में यह पाया गया कि दाभोलकर के शरीर में मिली गोली, साथ ही घटनास्थल पर मिली खाली कारतूस उन अवैध हथियारों में से ही एक पिस्तौल से चलाई गई थी । पुणे पुलिस ने इन दोनों को पहले दो भिन्न अपराधों में बंदी बनाया तथा अंत में दाभोलकर हत्याकांड में बंदी बनाया । प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) की सहायता से खूनी पिस्तौल की खोज हुई । पिस्तौल चलानेवाले हाथों की खोज करने के लिए खंडेलवाल एवं नागौरी की जांच करना अतिआवश्यक था ।
विधि का विधान बहुत विलक्षण होता है । पुणे पुलिस ने जब इन दोनों को न्यायालय में उपस्थित किया, तब उन्होंने न्यायालय में न्यायाधीश के समक्ष बताया कि ‘ए.टी.एस.’ प्रमुख राकेश मारिया हमें २५ लाख रुपए देने का लालच दे रहे हैं । वे कह रहे हैं कि तुम अपराध स्वीकार करो । हम तुम्हारे विरुद्ध ठोस प्रमाण नहीं देंगे, जिससे तुम छूट जाओगे ।’
पत्रकारों ने सर्वत्र इसे प्रकाशित किया । कदाचित न्यायालय ने इसका संज्ञान नहीं लिया; परंतु यह विषय लोगों तक पहुंच गया । आज भी इंटरनेट पर ये समाचार मिलते हैं । इसमें गडबडी यह है कि इससे ‘एक ही पिस्तौल से सभी गोलियां चलाई गईं’, यह बात सामने आ रही थी । फोरेंसिक साइंस की जांच भी इसमें अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, इसका अर्थ टेक्नोलॉजी कह रही है कि १ पिस्तौल थी, जबकि प्रत्यक्षदर्शी ‘इसमें २ पिस्तौलों का उपयोग किया गया है’, ऐसा बोल रहे थे । यह क्या था ? अभी यह प्रकरण ठंडा भी नहीं हुआ था कि उतने में मई २०१४ में इस प्रकरण को पुणे पुलिस से छीनकर केंद्रीय अन्वेषण विभाग को अर्थात ‘सी.बी.आई.’ को सौंप दिया गया । ‘खंडेलवाल एवं नागौरी को जमानत मिली; क्योंकि पुणे पुलिस ने शपथपत्र प्रस्तुत कर न्यायालय को यह बताया कि इतने से प्रमाण के आधार पर इन दोनों के विरुद्ध आरोपपत्र प्रविष्ट नहीं किया जा सकेगा ।’ मई २०१४ से जून २०१६ तक उच्च न्यायालय ‘सी.बी.आई.’ से प्रश्न पूछता रहा । अंधश्रद्धा निर्मूलन समितिवाले आंदोलन करते रहे । यह विषय चर्चा में बना रहा । तो क्या इस विषय को चर्चा में बनाए रखा गया ? रहने दीजिए !
इ. जब यह जांच ‘सी.बी.आई.’ को सौंपी गई, उसके उपरांत जून २०१६ में डॉ. तावडे को बंदी बनाया गया । आरोपपत्र प्रविष्ट हुआ, जिसमें सीबीआई का यह कहना था कि सारंग अकोलकर एवं विनय पवार ने गोलियां चलाईं । इन दोनों को फरार घोषित किया गया । ‘सी.बी.आई.’ ने उनकी जानकारी देनेवालों को पुरस्कार देने की घोषणा की । दाभोलकर के अनुयायियों ने संपूर्ण देश में इन दोनों को खोजने की मांग को लेकर बडा आंदोलन चलाया । विभिन्न शहरों में इन दोनों के छायाचित्र चिपकाए गए । उनके घरों में पूछताछ चलती रही तथा छापामारी की गई; परंतु इस प्रक्रिया में पिस्तौल का रहस्य यथास्थिति में बना रहा ।
ई. पुनः ऐसा हुआ कि दाभोलकर के शरीर में मिली गोली तथा शव के पास से मिले खाली कारतूस, यह सब सामग्री; साथ ही पानसरे हत्याकांड में पानसरे के शरीर से मिली एक गोली तथा घटनास्थल पर मिले ५ खाली कारतूस; इन सभी वस्तुओं को ‘सी.बी.आई.’ ने, साथ ही कोल्हापुर के विशेष जांच दल ने कलबुर्गी हत्या की जांच करनेवाले कर्नाटक के आपराधिक जांच विभाग (सी.आई.डी.) को सौंप दिया । कर्नाटक के आपराधिक जांच विभाग ने इन सभी वस्तुओं को एवं कलबुर्गी हत्याकांड में मिली गोलियों तथा खाली कारतूसों को बेंगळूरु की ‘फोरेंसिक लैब’ में भेज दिया । इस ‘फोरेंसिक लैबोरेटरी’ ने तो इस प्रकरण में एक और रोचक ब्योरा दिया । उसमें दिए गए महत्त्वपूर्ण बिंदु निम्न प्रकार से हैं –
ई १. दाभोलकर हत्याकांड में एक ही पिस्तौल से सभी गोलियां चलाई गई थीं तथा खाली कारतूस भी उसी पिस्तौल के थे ।
ई २. पानसरे हत्याकांड में मिले कुछ खाली कारतूसों को दाभोलकर हत्याकांड में उपयोग की गई पिस्तौल से चलाया गया था, जबकि अन्य खाली कारतूस एक अन्य पिस्तौल से चलाए गए थे तथा इसी अन्य पिस्तौल का उपयोग उसके उपरांत की गई कलबुर्गी की हत्या में किया गया था ।
उ. संक्षेप में कहा जाए, तो पानसरे हत्याकांड में दो पिस्तौलों का उपयोग किया गया । उनमें से एक पिस्तौल का उपयोग उससे पूर्व दाभोलकर की हत्या के लिए किया गया था, जबकि दूसरी पिस्तौल का उपयोग कलबुर्गी हत्याकांड में किया गया । पुलिस ने ऐसा प्रमाणित करने का प्रयास किया कि ये तीनों हत्याएं एक ही समूह ने की थीं ।
इस प्रकार से बेंगळूरु की ‘फोरेंसिक लैबोरेटरी’ ने अपने ब्योरे में लिखा कि पानसरे प्रकरण की २ पिस्तौलें, जिनमें से एक पिस्तौल का पहले दाभोलकर की हत्या में उपयोग किया गया, जबकि दूसरी पिस्तौल का उपयोग कलबुर्गी की हत्या में किया गया ।
(महाराष्ट्र में चर्चा का विषय बने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर एवं कॉ. गोविंद पानसरे की हत्याओं के संबंध में समाचार-पत्रों में प्रकाशित जानकारी, आरोपपत्र तथा न्यायालय के आदेशों पर आधारित यह पुस्तक एक विस्तृत शोध है । इस प्रकरण में दो पक्ष हैं । एक हत्या हो चुके नास्तिकतावादियों का तथा दूसरा है जिन संगठनों के सदस्यों पर हत्या का आरोप लगा है, उनका ! प्रस्तुत लेखक ने किसी के भी पक्ष में लेखन न कर संपूर्ण जांच का तटस्थतापूर्वक सत्यशोधन किया है । यह पुस्तक प्रस्तुत प्रकरणों की जांच कर रही जांच एजेंसियों की संपूर्ण असफलता तथा पुलिस की जांच पर स्थित राजनीतिक प्रभाव का विवेचन करती है । वास्तविक आरोपी जब पकडे नहीं जाते, ऐसी स्थिति में ‘सी.बी.आई.’ जैसी सर्वोच्च जांच संस्था ही किस प्रकार अन्यायकारी कृत्य करती है, यह इस पुस्तक में दिए गए उदाहरणों से समझ में आता है । यह पुस्तक लेखक ने भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में दोषियों को दंडित करने के लिए तथा निर्दोष लोगों को संरक्षण देने के लिए लंबे समय से लंबित पुलिस दल तथा न्यायिक प्रक्रिया में शीघ्रातिशीघ्र सुधार आए, इस उद्देश्य से लिखी है ।)
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लेखक : डॉ. अमित थढानी, प्रसिद्ध शल्यचिकित्सक, मुंबई.
(साभार : ‘दाभोलकर-पानसरे हत्या : तपासातील रहस्ये ?’, इस मराठी पुस्तक से)
(क्रमशः)