आध्यात्मिक लाभ एवं चैतन्य देनेवाली मंगलमय दीपावली !
वसुबारस (गोवत्स द्वादशी)
कार्तिक कृष्ण ११ (९ नवंबर) : गोवत्स द्वादशी के दिन श्रीविष्णु की आपतत्त्वात्मक तरंगें कार्यरत होकर ब्रह्मांड में आती हैं । इस दिन कृतज्ञतापूर्वक इस कामधेनु का स्मरण कर आंगन में तुलसीवृंदावन के पास धेनु अर्थात गाय खडी कर प्रतीकात्मक रूप में उसका पूजन किया जाता है ।
धनतेरस
कार्तिक कृष्ण १२ (१० नवंबर) : इस दिन व्यापारी अपनी तिजोरी का पूजन करते हैं । व्यापारी नए वर्ष के लेखा-जोखा की बहियां इसी दिन लाते हैं । जमा एवं खर्च का ब्योरा रखकर लक्ष्मीजी की पूजा करते हैं । वास्तविक लक्ष्मीपूजन के समय हमें पूरे वर्ष का लेखा-जोखा करना होता है । धनत्रयोदशी तक प्रभुकार्य के लिए शेष संपत्ति का व्यय करने पर, ‘सत्कार्य में धन व्यय होने के कारण वह धनलक्ष्मी अंत तक लक्ष्मीरूप में रहती है ।
यमदीपदान
कार्तिक कृष्ण १२ (१० नवंबर)
प्रार्थना
कालमृत्यु से कोई नहीं बचता और न ही वह टल सकती है; परंतु ‘किसी की भी अकाल मृत्यु न हो’, इस हेतु धनतेरस पर यमधर्म के उद्देश्य से गेहूं के आटे से बने तेल युक्त तेरह दीप संध्याकाल के समय घर के बाहर दक्षिणाभिमुख लगाएं । सामान्यतः दीपों को कभी भी दक्षिणाभिमुख नहीं रखते, केवल इसी दिन इस प्रकार रखते हैं । आगे दिए गए मंत्र से प्रार्थना करें ।
मृत्युना पाशदंडाभ्यां कालेन श्यामयासह ।
त्रयोदश्यांदिपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम ।।
अर्थ : धनतेरस पर यमप्रीत्यर्थ किए गए दीपदान से वे प्रसन्न होकर मृत्यु के पाश से मुझे मुक्त करें एवं मेरा कल्याण करें ।
लक्ष्मीपूजन
कार्तिक कृष्ण १४ (१२ नवंबर) : इस दिन प्रातःकाल मंगलस्नान कर देवतापूजन, दोपहर में पार्वणश्राद्ध एवं ब्राह्मण-भोजन और संध्याकाल में (प्रदोषकाल में) फूल-पत्तों से सुशोभित मंडप में लक्ष्मी, श्रीविष्णु एवं कुबेर की पूजा की जाती है ।
• लक्ष्मीपूजन करते समय एक चौकी पर अक्षत से अष्टदल कमल अथवा स्वस्तिक बनाकर उस पर लक्ष्मी की मूर्ति की स्थापना करते हैं । कहीं-कहीं कलश पर ताम्रपात्र रखकर उसपर लक्ष्मी की मूर्ति की स्थापना करते हैं । लक्ष्मी के समीप ही कलश पर कुबेर की प्रतिमा रखते हैं । उसके पश्चात लक्ष्मी इत्यादि देवताओं को लौंग, इलायची एवं शक्कर डालकर बनाए गए गाय के दूध से बने खोये का भोग चढाते हैं । धनिया, गुड, धान की खीलें, बताशा इत्यादि पदार्थ लक्ष्मी को चढाते हैं, तत्पश्चात इष्ट-मित्रों में बांटते हैं ।
• अमावस्या : शरद ऋतु के आश्विन मास की पूर्णिमा तथा यह अमावस्या भी कल्याणकारी है ।
बलि प्रतिपदा (दीपावली पडवा)
कार्तिक शुक्ल १ (१४ नवंबर)
१. महत्त्व
यह साढे तीन मुहूर्तों में से अर्ध मुहूर्त है । इसे ‘विक्रम संवत’ कालगणना के वर्षारम्भदिन के रूप में मनाया जाता है ।
२. त्योहार मनाने की पद्धति
अ. बलि प्रतिपदा के दिन जमीन पर पंचरंगी रंगोली द्वारा बलि एवं उनकी पत्नी विंध्यावली के चित्र बनाकर उनकी पूजा करते हैं । इसके पश्चात बलिप्रीत्यर्थ दीप एवं वस्त्र का दान करते हैं । इस दिन प्रातःकाल अभ्यंगस्नान करने के उपरान्त स्त्रियां अपने पति की आरती उतारती हैं । दोपहर में ब्राह्मणभोजन एवं मिष्टान्नयुक्त भोजन बनाती हैं ।
आ. धर्मशास्त्र कहता है कि ‘बलिराज्य में शास्त्रद्वारा बताए निषिद्ध कर्म छोडकर, लोगों को अपने मनानुसार आचरण करना चाहिए ।’ अभक्ष्यभक्षण, अपेयपान (निषिद्ध पेय का सेवन) एवं अगम्यागमन (उस स्त्री से शरीरसंबंध रखना जिसके साथ शरीरसंबंध निषिद्ध है ।); ये निषिद्ध कर्म हैं । इसीलिए इन दिनों लोग मदिरा नहीं पीते; परंतु पटाखे का बारूद उडाते हैं (आतिशबाजी करते हैं) ! शास्त्रों से स्वीकृति प्राप्त होने के कारण परम्परा नुसार लोग मौजमस्ती करते हैं ।
इ. इस दिन गोवर्धनपूजा करने की प्रथा है । गोबर का पर्वत बनाकर उसपर दूर्वा एवं पुष्प डालते हैं । इनके समीप कृष्ण, इन्द्र, गाएं, बछडों के चित्र सजाकर उनकी भी पूजा करते हैं एवं शोभायात्रा निकालते हैं ।
इस दिन प्रातःकाल अभ्यंगस्नान करने पर स्त्रियां पति की आरती उतारती हैं । पुरुष शिव का एवं स्त्री दुर्गादेवी का प्रतीक है । आरती उतारने से पत्नी में दुर्गातत्त्व कार्यान्वित होता है एवं पति की आरती उतारने के उपरांत उसकी कुंडलिनीशक्ति जागृत होकर उसकी सुप्तावस्था में स्थित शिवतत्त्व प्रकट होता है ।
भैयादूज (यमद्वितीया)
कार्तिक शुक्ल २ (१५ नवंबर)
१. इतिहास
इस दिन यम अपनी बहन यमुना के घर भोजन करने गए थे, इसलिए इस दिन को यमद्वितीया कहते हैं ।
२. महत्त्व
अ. अकाल मृत्यु को टालने हेतु धनत्रयोदशी, नरकचतुर्दशी एवं यमद्वितीया के दिन मृत्यु के देवता, ‘यमधर्म’ का पूजन करते हैं ।
आ. ‘इस दिन यमराज अपनी बहन यमुना के घर भोजन करने जाते हैं एवं उस दिन नरक में सड रहे जीवों को वह उस दिन के लिए मुक्त करते हैं ।’
इ. बहन द्वारा भाई की आरती उतारी जाना : इस दिन भाई बहन के पास जाए और बहन उसकी आरती उतारे । ‘इस दिन किसी भी पुरुष को अपने घर पर अथवा अपनी पत्नी के हाथ का अन्न नहीं खाना चाहिए । इस दिन उसे अपनी बहन के घर वस्त्र, आभूषण आदि लेकर जाना चाहिए और उसके घर भोजन करना चाहिए । सगी बहन न हो, तो किसी भी बहन के पास या अन्य किसी भी स्त्री को बहन मानकर उसके यहां भोजन करना चाहिए ।’
(संदर्भ – सनातन का ग्रंथ ‘त्योहार मनानेकी उचित पद्धतियां एवं अध्यात्मशास्त्र’)
भाईदूज के दिन बहन द्वारा भाई की आरती उतारने पर होनेवाले सूक्ष्म स्तरीय परिणाम
१. भाईदूज के दिन अपने भाई की आरती उतारते समय उस में वात्सल्यभाव कार्यरत रहता है ।
२. भाईदूज के दिन जब बहन भाई की आरती उतारती है, तब भाई के श्वासोच्छवास से उसकी देह में तेजतत्त्व के कण प्रवाहित होते हैं, जिससे उसकी आयु बढती है और शरीर के सर्व ओर सुरक्षा-कवच निर्मित होता है ।
३. जब बहन भाई की आरती उतारती है, तब उसमें विद्यमान अप्रकट अवस्था के शक्तिस्पंदन, प्रकट स्वरूप में कार्यरत होते हैं । तत्पश्चात उसका प्रक्षेपण भाई की दिशा में होता है, जिससे भाई को कार्यशक्ति प्राप्त होती है ।
४. भाईदूज के दिन भाई को बहन के घर बहन के हाथ से बना भोजन करना चाहिए । इससे भाई-बहन के बीच सांसारिक (माया के नाते से निर्मित) लेन-देन घटता है ।’
– श्रीमती प्रियांका गाडगीळ