नए भारत के इस्रायल से संबंध !
१. फिलिस्तीन (पैलेस्टाईन के) आतंकवादी आक्रमणों के कारण इस्रायल की सीमा का विस्तार !
फिलिस्तीन के आतंकवादी संगठन हमास को, ७ अक्टूबर २०२३ को, इसराइल पर आक्रमण करने की बहुत बडा मूल्य चुकाना पड रहा है । इतिहास साक्षी है जब-जब भी हमास या फिलिस्तीन के अन्य आतंकवादी संगठनों ने इसराइल पर आक्रमण किया है, फिलीस्तीन को इसकी बहुत बडा मूल्य चुकाना पडा है और लगभग प्रत्येक आक्रमण के पश्चात इसरायल ने अपनी सीमाओं का विस्तार किया है । इस बात में तनिक भी संदेह नहीं होना चाहिए कि इस बार भी इसरायल फिलिस्तीन की कुछ भूमि अवश्य अपने में सम्मिलित कर लेगा। फिलहाल तो अभी मृत्यु का तांडव शुरू है । इस संघर्ष में अब तक लगभग २८०० लोगों की मृत्यु हुई है ।
२. भारत एवं इसरायल में ऐतिहासिक संबंध !
इसरायल और फिलीस्तीन के बीच किसी भी तरह का संघर्ष भारत के लिए हमेशा से एक दुविधा का विषय रहा है । भारत और इसरायल के संबंधों का सिंहावलोकन करें तो हम पाते हैं कि भारत और इजरायल के संबंध ईसा से कई सौ वर्षों पूर्व से चले आ रहे हैं । भारत के केरल राज्य में हजारों वर्ष पूर्व से ही यहूदी व्यापारी निवास करते कर रहे हैं । ईसाइयत और इस्लाम के उदय के पूर्व से भारत और इसरायल के संबंध रहे हैं । इसके अनेक प्रमाण प्राचीन लवांत राज्य की सीमाओं के भीतर की खुदाई में मिले भारतीय मूल की वस्तुओं में देखा जा सकता है। वैसे भी संसार के प्राचीनतम धर्म हिन्दू और यहूदी धर्म ही हैं, जो अब तक जीवित हैं ।
३. तत्कालीन कांग्रेस सरकार का इसरायल को मान्यता देने हेतु विरोध !
एक तटस्थ सिंहावलोकन बताता है की भारत आंतरिक मजबूरियों के कारण कभी भी इसरायल के साथ नहीं रहा। यह अपेक्षा की गई थी कि १९४७ में देश के धर्म के आधार पर विभाजन के बाद भारत का झुकाव इसरायल की ओर होगा, परंतु देश में बडी संख्या में मुसलमानों के रुक जाने से भारत ऐसा कदम नहीं उठा पाया । इसलिए कि कांग्रेस की मुस्लिम परस्त राजनीति के कारण भारत ने कभी भी इसरायल का समर्थन नहीं किया। अंग्रेजों की कई सौ वर्षों की दास्यता के उपरांत नई-नई स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद और एक संप्रभु राष्ट्र बन जाने पर भी भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के उस प्रस्ताव का समर्थन नहीं किया था जिसमें संयुक्त राष्ट्र संघ ने फिलिस्तीन में इसरायल राज्य की स्थापना की बात की थी । स्मरणीय है कि आधुनिक इसरायल “राज्य” की स्थापना १९४८ में हुई थी; परंतु भारत ने उसे तीन वर्षों तक मान्यता नहीं दी थी। जब की फिलिस्तीन को मान्यता देनेवाला भारत पहला देश था । विश्व के शक्तिशाली देशों द्वारा इजराइल को मान्यता मिलने के लगभग तीन वर्ष पश्चात १९५० में भारत ने इसराइल को एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता प्रदान की ।
४. स्वतंत्रताप्राप्ति के पश्चात ४५ वर्षों उपरांत गांधी परिवार विरहित सरकार द्वारा इसरायल से राजनैतिक संबंधाें का प्रारंभ !
ऐसा होते हुए भी घरेलू राजनीति के कारण और कांग्रेस की मुस्लिम परस्तता के कारण १९९२ तक भारत और इसरायल के बीच कूटनीतिक/राजनीतिक संबंध स्थापित नहीं हो सके । नेहरू-गांधी परिवार के बाहर देश का नेतृत्व आने के पश्चात १९९२ में श्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने पहली बार इसरायल से कूटनीतिक संबंध स्थापित किए और तेल अवीव में भारत का राजदूतावास खोला । कूटनीतिक परंपराओं को ध्यान रखते हुए इसरायल ने भी भारत की राजधानी नई दिल्ली में अपना दूतावास खोला । इसके अतिरिक्त इसरायल ने भारत के मुंबई और बेंगलुरु में अपना महावाणिज्य दूतावास स्थापित किया ।
५. इसरायल का भारत को महत्त्वपूर्ण समय में सहायता !
स्मरणीय है कि भारत की उदासीनता के उपरांत भी इसरायल ने हमेशा भारत का साथ दिया । १९७१ के युद्ध में इसरायल ने भारत को बहुत ही महत्वपूर्ण गुप्त जानकारियां प्रदान की। १९९९ के कारगिल युद्ध के समय इसरायल ने महत्वपूर्ण गुप्त जानकारियां प्रदान की । ऐसे कठिन समय में इसरायल ने भारत को बहुत ही महत्वपूर्ण पीएनजी (Precision Guided Munitions) दी । उस समय दुनिया के दो ही देश थे जिन्होंने भारत को प्रिसीशन गाइडेड म्युनिशन्स दिए थे, वे थे साउथ अफ्रीका और दूसरा इसराइल । ये वही म्युनिशंस है जिसकी सहायता से पाकिस्तान के बहुत ही मजबूत बंकरों को हवाई आक्रमण से तोडा जा सका था ।
६. वर्ष २०१४ के उपरांत भारत-इसरायल मित्रता के नए पर्व का प्रारंभ !
१९९२ में राजनीतिक/कूटनीतिक संबंध स्थापित होने के पश्चात भी भारत और इजरायल के संबंध बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते थे । संबंध अच्छे ना हो पाने का कारण स्वयं भारत था । कारण २००४ से लेकर २०१४ तक देश में कांग्रेस की ही सरकार रही थी और वोटबैंक की राजनीति के कारण कांग्रेस सरकार इसरायल को अधिक महत्व नहीं देना चाहती थी ।
भारत और इसरायल के संबंध २०१४ से श्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद बहुत तेजी से सुधरे । आश्चर्य की बात यह है कि भारत के संबंध जब इसराइल से अच्छे होते, तो कुछ अरब देश इसका विरोध करते थे; परंतु नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ऐसा नहीं हुआ । वस्तुत: भारत और इसरायल के संबंध जितने प्रगाढ हुए उतने ही भारत और अरब देशों के संबंध भी प्रगाढ हुए ।
अनेक मुसलमान देशों ने भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को अपने देश का सर्वोच्च सम्मान दिया, जिसमें संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब भी सम्मिलित हैं । इसप्रकार यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके पक्ष की कूटनीतिक सफलता ही कही जा सकती है कि उन्होंने न केवल इसरायल से बहुत अच्छे संबंध स्थापित किए; अपितु अरब देशों से भी ऐसे संबंध स्थापित किए जो इसके पूर्व कभी नहीं थे । भारत इसरायल के संबंध की पराकाष्ठा २०१७ में पहुंची जब भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इसरायल की यात्रा की । दोनों देशों के अस्तित्व में आने या स्वतंत्र होने के उपरांत यह पहला अवसर था, जब भारत के प्रधानमंत्री ने इसरायल की यात्रा की थी । इस यात्रा को इसरायल ने बहुत महत्व दिया और प्रधानमंत्री का बहुत ही भव्य स्वागत किया गया । इस दौरान सात महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर हुए । इसके पहले जब भी कोई भारत का राजनीतिज्ञ इसरायल जाता था (प्रधानमंत्री तो कभी गया नहीं था), तो उसके लिए एकप्रकार से यह आवश्यक होता था कि वह फिलिस्तीन भी जाए; परंतु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वह परंपरा भी तोडी । वे इसरायल तो गए; परंतु फिलिस्तीन नहीं गए । फिर भी इसके कारण न तो भारत के किसी मुसलमान देश से संबंध खराब हुए और ना ही किसी ने इसका कोई विरोध किया । आज भारत और इसरायल के संबंध बहुत ही अच्छे हैं । रूस के बाद इसरायल भारत का दूसरा सबसे बडा रक्षा आयुध और हथियार का निर्यातक है । इजराइल के लगभग 43% रक्षा- उपकरण और उपस्कर भारत को ही प्राप्त होते हैं; अर्थात भारत इसरायल का सबसे बडा रक्षा उपकरणों का ग्राहक है । भारत इसरायल का व्यापार लगभग ९ बिलियन डॉलर (७४ सहस्र ७०० करोड रुपयों से भी अधिक) है ।
७. इसरायल-हमास युद्ध के कारण भारत-इसरायल के संबंधाें पर सकारात्मक परिणाम !
वर्तमान संघर्ष में भारत ने बहुत स्पष्ट संकेत दिए हैं । प्रधानमंत्री ने अपने ट्वीट में “आतंकवादी आक्रमणों से पीडितों” के साथ संवेदना व्यक्त की और इसरायल का साथ देने का समर्थन किया । भारत स्वंय आतंकी हिंसा का दीर्घ काल से शिकार रहा है । वह इस्लामिक चरमपंथी हिंसा से स्वयं जूझ रहा है । भारत यह अच्छी तरह समझने लगा है और कहने का साहस भी रखता है । अमेरिका सहित यूरोप के अधिकांश देश इसरायल के साथ हैं । हमास द्वारा प्रारंभ किए गए इस संघर्ष में एक बार फिर इसरायल ही जीतेगा और फिलिस्तीन की सीमाएं और सिमट जाएंगी । हां, भारत की स्थिति न केवल और अधिक स्पष्ट हुई, अपितु इसरायल के साथ प्रगाढ भी हुई है । इसके सकारात्मक दूरगामी परिणाम होंगे ।
– मेजर सरस त्रिपाठी (निवृत्त), लेखक एवं प्रकाशक, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश. (१२.१०.२०२३)