फल-ज्योतिषशास्त्र के मूलभूत घटक : ग्रह, राशि एवं कुंडली के स्थान
फल-ज्योतिषशास्त्र ग्रह, राशि एवं कुंडली के स्थान, इन ३ मूलभूत घटकों पर आधारित है । इन ३ घटकों से भविष्य का निर्धारण करना संभव होता है । इन ३ घटकों को संक्षेप में इस लेख द्वारा समझ लेते हैं ।
१. ग्रह
ग्रह अर्थात ‘ग्रहण करना’ । ग्रह, नक्षत्रों से आनेवाली सूक्ष्म ऊर्जा ग्रहण करते हैं, इसलिए उन्हें ‘ग्रह’ कहते हैं । ‘बुध, शुक्र, मंगल, गुरु एवं शनि’ ये ५ मुख्य ग्रह हैं, जो पंचमहाभूतों के प्रतिनिधि हैं । रवि आत्मा से एवं चंद्र मन से संबंधित ग्रह है । ग्रहों के तत्त्व एवं ग्रह किन बातों से संबंधित हैं, वह आगे की सारणी में दिया है ।
बुध, शुक्र एवं चंद्र, ये ग्रह ‘पृथ्वी’ एवं ‘जल’ तत्त्व से संबंधित होते हैं । वे व्यक्ति के परिवार, कलत्र (अर्थात जोडीदार), स्वभाव, स्थिरता एवं सुख के लिए अनुकूल होते हैं । रवि, मंगल एवं शनि, ये ग्रह ‘अग्नि’ एवं ‘वायु’ तत्त्व से संबंधित होते हैं । वे व्यक्ति के कार्यक्षेत्र, कर्तृत्व, उत्कर्ष एवं प्रतिष्ठा के लिए अनुकूल होते हैं । गुरु ग्रह ‘आकाशतत्त्व’से संबंधित है, यह सभी दृष्टि से अनुकूल होता है, इसके साथ ही आध्यात्मिक उन्नति के लिए पूरक होता है ।
२. राशि
पृथ्वी जिस मार्ग से सूर्य के सर्व ओर भ्रमण करती है, उस मार्ग को ‘क्रांतिवृत्त’ कहते हैं । क्रांतिवृत्त के १२ समान विभाग अर्थात राशि । प्रत्येक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं । राशियां स्थिर हैं; परंतु पृथ्वी अपनी धुरी पर भ्रमण करती है, इस कारण राशिचक्र घूमते दिखाई देता है । जन्मकुंडली में प्रथम स्थान पर रहनेवाली राशि को ‘लग्नराशि’ और चंद्र जिस राशि में होता है, उसे ‘जन्मराशि’ कहते हैं । ये दोनों राशियां व्यक्ति के व्यक्तित्व पर विशेष परिणाम करती हैं । लग्नराशि व्यक्ति का मूल पिंड (प्रकृति) दर्शाती है, जबकि जन्मराशि व्यक्ति के स्वभाव की विशेषताएं दर्शाती है ।
२ अ. जन्मराशि के अनुसार व्यक्ति में सामान्यतः पाई जानेवाली विशेषताएं
जब ग्रह उसके लिए पूरक गुणधर्म वाली राशि में होता है, तब बलवान होता है एवं उत्तम फल देता है, उदा. अग्नितत्त्व का मंगल ग्रह अग्नितत्त्व की मेष राशि में उत्तम फल देता है । इसके विपरीत, ग्रह उसके प्रतिकूल गुणधर्मवाली राशि में हो, तो निर्बल होता है ।
३. कुंडली के स्थान
कुंडली के स्थान अर्थात दिशाओं का समान विभाग । कुंडली में कुल १२ स्थान हैं । जिस प्रकार दिशा अपने स्थान नहीं छोडती, उसी प्रकार कुंडली के १२ स्थान नहीं बदलते; स्थानों में राशि बदलती है । जीवन की प्रत्येक बात का विचार किसी न किसी स्थान से होता है । कुंडली के १२ स्थानों द्वारा अध्ययन की जानेवाली बातों की जानकारी आगे की सारणी में दी है ।
३ अ. चार पुरुषार्थों से संबंधित स्थान एवं स्थानों का स्वरूप : हिन्दू धर्मानुसार धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, ये मानव जीवन के उद्देश्य हैं । कुंडली के १२ स्थानों द्वारा इन ४ पुरुषार्थों का विचार किया जाता है, अर्थात वे पुरुषार्थ साध्य करने हेतु भाग्य की अनुकूलता कितनी है, इसका विचार किया जाता है । पुरुषार्थों से संबंधित कुंडली के स्थान एवं स्थानों का स्वरूप आगे दी गई सारणी में दिया है ।
स्थानों का भौतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप, ये पुरुषार्थ साध्य करने के चरण दर्शाता है, उदा. मोक्ष स्थानों में से ‘चतुर्थ’ स्थान कुलाचारों का पालन करना, त्योहार-उत्सव मनाना इत्यादि प्राथमिक स्वरूप की साधना दर्शाता है; ‘अष्टम’ स्थान जप, तप, अनुष्ठान इत्यादि सकाम स्वरूप की साधना दर्शाता है; जबकि ‘द्वादश’ स्थान तन-मन-धन का त्याग, गुरुसेवा, अध्यात्मप्रसार इत्यादि निष्काम स्वरूप की साधना दर्शाता है ।’
– श्री. राज कर्वे, ज्योतिष विशारद, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (२०.१.२०२३)