प्रतिशोध की भूमिका से ‘ईडी’ की कार्रवाई नहीं होनी चाहिए !
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय (ई.डी.) को लगाई फटकार !
नई देहली – एक प्रकरण की सुनवाई के समय सर्वोच्च न्यायालय ने प्रवर्तन निदेशालय को फटकार लगाई । न्यायालय ने कहा, ‘‘प्रवर्तन निदेशालय (‘ई.डी.’) को पारदर्शिता, निष्पक्षता और सत्यता के मौलिक मानकों का पालन करना चाहिए । ई.डी. की कार्रवाई प्रतिशोध की भावना से नहीं होनी चाहिए । इसके अतिरिक्त केवल अभिरक्षा का आदेश देना, बंदी बनाने का कारण बताने के लिए पर्याप्त नहीं है । प्रवर्तन निदेशालय चूंकि देश में वित्तीय अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए एक प्रमुख जांच तंत्र है, इसलिए उसकी प्रत्येक कार्रवाई पारदर्शी, वैधानिक एवं निष्पक्ष मानकों के अनुरूप होना अपेक्षित है ।
(सौजन्य : NDTV India)
आरोपों का उत्तर न दिए जाने का अर्थ यह नहीं है कि आरोपी को बंदी बनाने का अधिकार मिल जाता है !
न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि ई.डी. द्वारा जारी समन में उनके विरुद्ध लगाए गए आरोपों का उत्तर देने में आरोपियों की विफलता का अर्थ यह नहीं कि ई.डी. के पास धारा १९ के अंतर्गत उन्हें बंदी बनाने की शक्ति मिल गई है । इसका कारण यह कि धारा १९ के अंतर्गत किसी व्यक्ति को तभी बंदी बनाया जा सकता है जब अधिकारियों के पास ऐसे तथ्य हों जिनके आधार पर उन्हें विश्वास हो कि संबंधित व्यक्ति वित्तीय हेराफेरी निवारण अधिनियम के अंतर्गत दोषी है ।
समन देने के उपरांत आरोपी से सीधे अपराध स्वीकार करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती !
इस प्रकरण में ई.डी. ने न्यायालय में कथन किया कि आरोपियों द्वारा दिए गए उत्तर दिशाभूल करने वाले थे । न्यायालय ने तब कहा कि किसी भी प्रकरण में, ई.डी. अधिकारी यह अपेक्षा नहीं कर सकते कि बुलाया गया आरोपी अपराध स्वीकार कर लेगा और उसके अतिरिक्त कोई भी उत्तर भ्रामक होगा ।
यह प्रकरण क्या है ?
कुछ दिन पूर्व प्रवर्तन निदेशालय (‘ई.डी.’) ने वित्तीय हेराफेरी के प्रकरण में ‘एम.३.एम.’ ग्रुप के निदेशक पंकज बंसल और बसंत बंसल को बंदी बना लिया । उस समय अधिकारियों ने उन्हों बंदी बनाने का कारण पढकर सुनाया था । इस संबंध में न्यायालय ने ई.डी. को फटकारते हुए कहा, ”बंदी बनाते समय आरोपी को बंदी बनाने के कारणों की लिखित प्रति दी जानी चाहिए ।” न्यायालय ने निदेशकों की बंदी को अवैध करार देते हुए उनकी तत्काल मुक्ति का आदेश दिया ।