‘लोकसत्ता’ नामक(धर्म)संकट !
अलगाववादी एवं राष्ट्रद्रोही विचारधारा वाले स्टेलिन-पुत्र उदयनिधि ने कुछ दिन पूर्व सनातन धर्म पर विषवमन किया था । सनातन धर्मी उसका उचित वैचारिक प्रतिकार ले रहे हैं; किंतु उदयनिधि के प्रशंसक बनकर लोगों द्वारा ‘सनातनी (धर्म) संकट’ शीर्षक से सनातन धर्म का उपहास क्लेशदायी है । वैसे देखा जाए, तो सत्ता में बैठे लोगों के लिए सनातन धर्म, परंपरा, एवं संस्कृति अपथ्यकर ही हैं । वे सदैव अपने मन में प्रज्वलित द्वेष व्यक्त करने का अवसर ढूंढते ही रहते हैं । उदयनिधि के माध्यम से उन्हें वह अवसर मिल गया । उन्होंने सनातन धर्म को ‘कट्टर’, ‘पुराने’, ‘ढोंगी’, एवं ‘दांभिक’ जैसी विविध उपमाएं देकर लोकसत्ता की प्रस्तावना के माध्यम से हिन्दू द्वेष को दबाने एवं शांत करने का अश्लाघ्य प्रयास किया । ‘सनातन धर्म अर्थात कर्मकांड’, ‘महिलाओं को चूल्हे तथा बच्चे तक सीमित रखना’, ‘जाति व्यवस्था को बढावा देना,‘विज्ञान विरोधी’, ऐस चित्र बनाकर पुरो(अधो)गामी भाषा में धर्मशास्त्र करने का सरल प्रयास किया गया है । ऐसा कर वे अपनी ही पीठ थपथपा रहे हों, किंतु इससे सनातन धर्म के प्रति उनकी घोर अज्ञानता ही दिखाई देती है । अंग्रेज अथवा मार्क्सवादियों द्वारा हिन्दू धर्म पर धूर्तता से लिखी ४ पुस्तकें पढकर ‘हिन्दू धर्म मेरी समझ में आ गया’ की ओट में यह गुट भारत में कार्यरत है । लोकसत्ताकार इसी गुट के सदस्य हैं ! कागद पर सनातन धर्म के विषय में ऐसा कुछ भी लिखने से पूर्व; उन्होंने धर्म समझने का कष्ट किया होता, तो निश्चित ही उनसे ऐसा पापकर्म नहीं होता; किंतु तथाकथित पुरोगामित्व (प्रगति)के पथ पर चलने वालों को इसके लिए समय ही कहां है ? अत: सनातन धर्म के अनेक शत्रु हैं । हाथ में एके-४७ लेकर हिन्दुओं को समाप्त करने की भावना से ग्रस्त जिहादी आतंकवादी घातक ही हैं; किंतु उनसे भी अधिक घातक हैं डेमोक्रेट जैसे आतंकवादी जो हिन्दुओं के मन में उनके शाश्वत, समृद्ध एवं चैतन्यदायी वर्तमान धर्म के विषय में संभ्रम तथा हीन भावना उत्पन्न करते हैं । अत: समाज के सामने ‘पारंपरिक धार्मिक संकट’ नहीं, अपितु लोकसत्ता नामक धार्मिक संकट है, इसका वैचारिक समाधान करना प्रत्येक हिन्दू का धार्मिक कर्तव्य है ।
हां, हम सनातनी हैं !
सनातन धर्म अथवा हिन्दू धर्म जिसने समझा, जाना वह विशाल धर्मसागर में डुबकी लगाकर आनन्दित हो गया । यह है इस धर्म का चमत्कार ! जिसे धर्म समझ में आता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है । धर्म समझने की प्रक्रिया साधना करके ही पूर्ण हो सकती है । यह प्रक्रिया सुंदर एवं आनंददायी यात्रा है । जिसने धर्म जाना, उसके लिए धर्म ही देव, माता एवं पिता होते हैं । इसका कारण यह है कि धर्म में बताए अमूल्य तत्त्व अंगीकार करने से उनके जीवन का अंधकार नष्ट होकर वह प्रकाशमान होता है । धर्म एवं धर्मी का यह ऐसा अटूट संबंध है । यदि लोकतंत्रवादियों ने इस महत्त्व को समझने का थोडा भी प्रयास किया होता, तो उनका जीवन निश्चित रूप से समृद्ध होता । पॉल ब्रंटन, कॉनराड एल्स्ट तथा मारिया वर्थ ने भी हिन्दू धर्म के इस मर्म को समझा । इस लिए विदेशी होते हुए भी वे इस धर्म के सामने नतमस्तक हुए । उसे न समझनेवाले ओछी मानसिकता के ही हैं !
धर्म को ग्लानि आती है, भगवान श्रीकृष्ण ने भी साक्षात ऐसा कहा है । उस समय कुछ लोगों ने समाज-विरोधी कृतियां कीं, वे निंदनीय ही थीं । सनातन धर्मी इनका समर्थन नहीं करते । उस काल में ‘सनातनियों ने कितने लोगों पर कीचड उछाला?
‘कितने लोगों को पत्थर मारे ?’, ‘कितने लोगों को दुत्कारा तथा झिडका ?’ इसकी सूची पढकर सत्ता में बैठे लोग यदि हिन्दुओं को निद्रिस्त करने का प्रयास कर रहे होें, तो उसका प्रतिवाद तो होगा ही । लोकतंत्रवादियों के मतानुसार सनातन धर्म स्त्री-विरोधी है !
गांधीवादी विचारधारा के धर्मपाल के लिखे ‘द ब्युटीफुल ट्री’ पुस्तक में पेशवाओं के समय में स्त्रियाेंं को शिक्षा दिए जाने का उल्लेख है । यदि उस समय तक लडकियों को शिक्षा दी जा रही थी, तो मध्य के कुछ शतकों में ऐसा क्या हुआ जिससे स्त्री की ओर देखने का सामाजिक दृष्टिकोण ही परिवर्तित हो गया ? क्या नारीवादी डेमोक्रेट इस विषयमें सोचेंगे ? कालांतर में धर्म के नाम पर कुछ अनुचित प्रकरण हुए; किंतु यह जानते हुए भी कि यही है ‘सनातन धर्म’, धर्म के महत्त्व को अनदेखा करनेका क्या अर्थ है ?
ऐसे लोगों की वैचारिक पराजय आवश्यक है !
इन महाशय ने मदर टेरेसा के वास्तविक स्वरूपको प्रकट करते हुए ‘असंतों के संत’ की प्रस्तावना लिखी । तदनंतर विरोधियों के सामने माथा टेककर यह लेख वापस ले लिया गया । ऐसी पत्रकारिता के विषय में हम क्या कहें? प्रेम तथा शांति के दर्शन करनेवालों ने जिस कट्टरता तथा असहिष्णुता का परिचय दिया, उसे देखकर लोकतांत्रिक शासकों को उन पर मौखिक प्रहार करने का साहस क्यों नहीं हुआ? क्या उन्होंने केवल हिन्दुओं को उपदेश के घूंट पिलाने की सुपारी ली है ? हिन्दुओं की सहिष्णुता से अनुचित लाभ उठाकर उन्हें नीचा दिखाना सुगम होता है तथा पुरोगामियों की टोली में अपना स्थान भी सुदृढ कर सकते हैं । ऐसी एकांगी एवं हिन्दू-द्वेषी पत्रकारिता समाज के लिए घातक है ।
‘लोकमान्य तथा लोकशक्ति’ की ‘नामपट्टी’ लगाकर, ‘हमीं समाज को दिशा देनेवाले हैं’, इस भ्रम में रहनेवालों को वैचारिक रूप से परास्त करने के लिए हिन्दू क्या करेंगे ?’, यह मुख्य प्रश्न है । किसी समय सहिष्णुता हिन्दुओं की शक्ति थी, वह आज विकृति बन गई है । यदि समय रहते वैचारिक स्तर पर हुए प्रहार को पलटा नहीं गया, तो विपक्ष को अधिक शक्ति मिलेगी तथा वे धर्म की जड काटने का प्रयास करेंगे, यह इतिहास है । आद्य शंकराचार्यजी ने धर्म पर वैचारिक प्रहार करने वालों को परास्त कर पुन: धर्म की ध्वजा फहराई थी । अब समय आ गया है कि हिन्दू उनके उदाहरण का अनुसरण करें । सनातन धर्म को डेंग्यू तथा मलेरिया कहने वालों को वैधानिक रूप से फटकार लगाकर हिन्दू शक्ति की झलक दिखाई जाए !