श्राद्ध का उद्देश्य एवं श्राद्ध के विविध प्रकार
श्राद्ध का उद्देश्य
सर्व जीवों की लिंगदेह साधना नहीं करती । अतः श्राद्धादि विधि कर, उन्हें बाह्य ऊर्जा के बल पर आगे बढाना पडता है; इसलिए श्राद्ध करना महत्त्वपूर्ण है । श्राद्ध कर जीवों की लिंगदेहों के सर्व ओर के वासनात्मक कोषों के आवरण को न्यून (कम) कर, उनमें हलकापन निर्माण कर, मंत्रशक्ति की ऊर्जा के बल पर उन्हें गति देना श्राद्ध का प्रमुख उद्देश्य है ।
अ. पितृलोक को प्राप्त पूर्वजों को आगे के लोकों में जाने के लिए गति प्राप्त हो, इस हेतु श्राद्धविधियों के द्वारा उन्हें सहायता प्रदान करना ।
आ. अपने कुल में जिन मृत व्यक्तियों को उनकी अतृप्त वासनाओं के कारण सद्गति प्राप्त न हुई हो, अर्थात वे उच्च लोक में न जाकर निम्न लोक में अटकी हों, तो उनकी इच्छा-आकांक्षाओं को श्राद्धविधियों द्वारा पूर्ण कर, उन्हें आगे की गति प्राप्त करवाना ।
इ. कुछ पितरों को उनके कुकर्मों के कारण पितृलोक की प्राप्ति न होकर, भूतयोनि की प्राप्ति होती है । ऐसे पितरों को श्राद्ध द्वारा उस योनि से मुक्त करना ।
अब हम श्राद्धविधि के विविध प्रकार समझ लेते हैं ।
१. नांदीश्राद्ध
मंगलकार्य के आरंभ में, गर्भाधान इत्यादि सोलह संस्कारों के आरंभ में, पुण्याहवाचन के समय कार्य सुसंपन्न करने हेतु जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नांदीश्राद्ध कहते हैं । इसमें सत्यवसु (अथवा क्रतुदक्ष) संज्ञक विश्वेदेव होते हैं तथा पितृत्रय, मातृत्रय एवं मातामहत्रय का ही उच्चारण किया जाता है । कर्मांगश्राद्ध एवं वृद्धिश्राद्ध, दोनों नांदीश्राद्ध हैं ।
१ अ. कर्मांगश्राद्ध : गर्भाधान संस्कार के समय किया जानेवाला श्राद्ध ।
१ आ. वृद्धिश्राद्ध : नवजात शिशु के जन्म के पश्चात किया जानेवाला श्राद्ध ।
१ इ. विवाहादि मांगलिक कार्यों के समय नांदीश्राद्ध क्यों करते हैं ? : ‘पुत्रजन्म, उपनयन एवं विवाह, इन पितरों के पारिवारिक प्रेम से संबंधित अवसरों पर प्रथम नांदीश्राद्ध कर उनका हविर्भाग उन्हें अर्पित कर सन्तुष्ट किया जाता है । इससे इन प्रसंगों के समय पूर्वजों के लिंगदेहों के वासनायुक्त अवरोध घट जाते हैं एवं कार्यक्रम निर्विघ्न रूप से संपन्न होने में सहायता मिलती है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी एक विद्वान के नाम से भी लेखन करती हैं ।)
२. पार्वण श्राद्ध
‘श्रौत परम्परा में पिण्डपितृयज्ञ साग्निक द्वारा (अग्निहोत्र धारण करनेवाले द्वारा) किया जानेवाला एक यज्ञ है । उसी का पर्याय गृहसूत्र का पार्वण श्राद्ध है । पितरों का पार्वण की सूची में समावेश होने पर, उनके लिए यह श्राद्ध किया जाता है । एकपार्वण श्राद्ध, द्विपार्वण श्राद्ध एवं त्रिपार्वण श्राद्ध, ऐसे इस श्राद्ध के प्रकार हैं । तीर्थश्राद्ध, महालयश्राद्ध ये पार्वण श्राद्ध हैं ।
२ अ. महालयश्राद्ध : आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से अमावस्या तक जो श्राद्ध किए जाते हैं, उन्हें पार्वण श्राद्ध कहते हैं ।
२ आ. मातामहश्राद्ध (दौहित्र) : जिसके पिता जीवित हैं; परन्तु नाना जीवित नहीं हैं, ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जानेवाला श्राद्ध । नाना के वर्षश्राद्ध से पूर्व यह श्राद्ध करना सम्भव नहीं । मातामहश्राद्ध केवल आश्विन शुक्ल प्रतिपदा को ही किया जा सकता है । यह श्राद्ध करने के लिए श्राद्धकर्ता तीन वर्ष से बडा होना चाहिए । उसका यज्ञोपवीत न हुआ हो, तो भी वह यह श्राद्ध कर सकता है ।
२ इ. तीर्थश्राद्ध : प्रयागादि तीर्थक्षेत्रों में अथवा पवित्र नदी के तट पर किया जानेवाला श्राद्ध । तीर्थश्राद्ध के समय महालय के सर्व पार्वण लिए जाते हैं ।
३. इतर प्रकार
उपरोक्त मुख्य प्रकारों के अतिरिक्त १२ अमावस्या, ४ युग, १४ मन्वन्तर, १२ संक्रांति, १२ वैधृति, १२ व्यतिपात, १५ महालय, ५ पहली, ५ अष्टक, ५ अन्वाष्टक, ऐसे श्राद्ध के ९६ प्रकार बताए गए हैं ।
श्राद्ध के अन्य प्रकारों में से कुछ की संक्षिप्त जानकारी आगे दी है ।
३ अ. ‘गोष्ठीश्राद्ध : ब्राह्मण समुदाय एवं विद्वानों द्वारा मिलकर तीर्थक्षेत्र में ‘पितरों की तृप्ति तथा संपत्ति और सुख प्राप्ति’ के उद्देश्य से जो श्राद्ध करते हैं अथवा श्राद्ध विषयक चर्चा करते हुए अचानक प्रेरित होकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे ‘गोष्ठीश्राद्ध’ कहते हैं ।
३ आ. शुद्धिश्राद्ध : अपनी शुद्धि के लिए ब्राह्मणों को जो भोजन करवाया जाता है, उसे ‘शुद्धिश्राद्ध’ कहते हैं । यह प्रायश्चित्तांग श्राद्ध है ।
३ इ. पुष्टिश्राद्ध : शरीर वृद्धि के लिए एवं द्रव्य इत्यादि संपत्ति की वृद्धि के लिए किए जानेवाले श्राद्ध को पुष्टिश्राद्ध कहते हैं ।’
३ ई. घृतश्राद्ध (यात्राश्राद्ध) : तीर्थयात्रा पर जाने से पूर्व, यात्रा निर्विघ्न होने के लिए पितरों की स्मृति में जो घृत से श्राद्ध किया जाता है, उसे घृतश्राद्ध कहते हैं ।
३ उ. दधिश्राद्ध : तीर्थयात्रा से लौटने पर किया जानेवाला श्राद्ध ।
३ ऊ. अष्टकाश्राद्ध (कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर किया जानेवाला श्राद्ध) : अष्टका अर्थात किसी भी माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी की तिथि । वेदकाल में अष्टकाश्राद्ध विशेषतः पौष, माघ, फाल्गुन एवं चैत्र के चार माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी पर किया जाता था । इस श्राद्ध में तरकारी, मांस, बडे, तिल, शहद, चावल की खीर, फल, कन्दमूल इत्यादि पदार्थ पितरों को अर्पित किए जाते थे । विश्वेदेव, अग्नि, सूर्य, प्रजापति, रात्रि, नक्षत्र, ऋतु इत्यादि श्राद्ध के देवता माने जाते थे ।
३ ए. दैविकश्राद्ध : देवता की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से किए जानेवाले श्राद्ध को दैविकश्राद्ध कहते हैं ।
३ ऐ. हिरण्यश्राद्ध : बिना भोजन कराए केवल दक्षिणा देकर किया जानेवाला श्राद्ध । अन्न के अभाव में अनाज के मूल्य के चौगुने मूल्य का स्वर्ण ब्राह्मण को देकर श्राद्ध करें ।
३ ओ. हस्तश्राद्ध : श्राद्धीय ब्राह्मणों को भोजन देकर किया जानेवाला श्राद्ध । भोजन न हो, तो हिरण्य से (पैसे से), आमान्न से (सूखा सीधा – दान दिए जाने उचित कच्चे अन्न से) यह श्राद्ध करते हैं ।’
३ औ. आत्मश्राद्ध : जिनकी संतति नहीं है अथवा नास्तिक है, वे अपने जीवनकाल में ही स्वयं अपना श्राद्ध करें । इसकी विधि शास्त्र में बताई गई है ।
३ अं. चटश्राद्ध : श्राद्ध के लिए देवता तथा पितरों के स्थान पर बैठने के लिए जब ब्राह्मण उपलब्ध नहीं होते, तब उस स्थान पर कुश (दर्भ) रखा जाता है । इसे चट (अथवा दर्भबटु) कहते हैं । इस विधि से श्राद्धकर्म चटपट अर्थात अतिशीघ्र सम्पन्न होने के कारण इसे ‘चटश्राद्ध’ कहते हैं ।
यद्यपि ऊपर श्राद्ध के विविध प्रकार दिए गए हैं, फिर भी काल के अनुसार मृत व्यक्ति के लिए, देहान्त के उपरान्त प्रथम दिन से ग्यारहवें दिन तक आवश्यक श्राद्ध, मासिक श्राद्ध, सपिण्डीकरण श्राद्ध, अब्दपूर्तिश्राद्ध, द्वितीयाब्दिक श्राद्ध अर्थात प्रतिसांवत्सरिक श्राद्ध एवं महालय, सामान्यतः यही श्राद्ध प्रचलित हैं ।
(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्धका महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन’)
श्राद्ध के विषय में शंका-समाधानप्रश्न : मैं अपने बच्चों के साथ मेरे मायके में रहती हूं । मेरे पति विदेश में है । मेरे ससुरजी की मृत्यु हुई है, तो क्या मैं अपने ससुरजी का महालय मेरे मायके में कर सकती हूं ? या और कोई अन्य उपाय है ? उत्तर : पति की ओर से आमान्न श्राद्ध कर सकते हैं । इसमें आलू, घी, तिल, गुड एवं चावल, बीडा – नारियल के साथ पुरोहित या मंदिर में अर्पण करें । |