सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार
यज्ञ का विरोध करनेवालो, यह समझ लो !
‘बुद्धिप्रमाणवादी यज्ञ की आहुति से संबंधित वस्तुओं के विषय में कहते हैं, ‘वस्तु यज्ञ में क्यों जलाते हो ?’, ऐसा कहना इंजेक्शन देकर किसी को वेदना क्यों देते हो ?’, ऐसा कहने के समान है । जिस प्रकार इंजेक्शन से लाभ होता है, उसी प्रकार यज्ञ में आहुति देने से होता है, यह भी उन्हें अध्ययन के अभाव में समझ में नहीं आता ।’
युवावस्था में ही साधना करने का महत्त्व !
‘वृद्ध होने पर यह अनुभव होता है कि ‘वृद्धावस्था क्या होती है ?’ वह अनुभव करनेपर लगता है कि ‘वृद्धावस्था देनेवाला पुनर्जन्म नहीं चाहिए ।’ परंतु उस समय साधना कर पुनर्जन्म से बचने का समय बीत चुका होता है । ऐसा न हो, इसके लिए युवावस्था में साधना करें ।’
वेद-उपनिषद आदि अध्यात्म संबंधी ग्रंथों का महत्त्व
‘युद्ध एक तात्कालिक समाचार होता है । आगामी ५० – ६० वर्षों में ही युद्ध का इतिहास भुला दिया जाता है, उदा. प्रथम एवं द्वितीय विश्वयुद्ध एवं उससे पूर्व के सभी युद्ध । इसके विपरीत अध्यात्म संबंधी वेद-उपनिषद इत्यादि ग्रंथ चिरकाल से बने हुए हैं ।’
स्वेच्छा नहीं, ईश्वरेच्छा श्रेष्ठ है !
‘ऐसा प्रतीत होना कि पुनः जन्म ही न हो अथवा यह कि भक्ति करने के लिए बार-बार जन्म हो, ये दोनों ही स्वेच्छा है । इससे आगे का चरण है, ऐसा लगना कि सब कुछ ईश्वर की इच्छा के अनुसार हो !’
– सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले