साधना में प्रगति होने हेतु ‘शरणागतभाव’ का अनन्यसाधारण महत्त्व होने से ‘शरणागति’ निर्माण होने के सर्वाेच्च श्रद्धास्रोत अर्थात सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी !
साधना की दृष्टि से शरणागत भाव अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । देखा जाए तो अत्यंत कठिन तथा आचरण में लाएं तो अत्यंत सरल ! गुरुकृपा से इस विषय में मैंने जो कुछ भी पढा, सुना तथा अनुभव किया, वह सर्व सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के चरणों में अर्पण कर रहा हूं । इससे पूर्व ‘मेरे लिए क्या असंभव है ?’ इस प्रकार की मानसिकता में अटका रहता था । व्यवहार के कुछ अनुभव से कर्तापन, स्वयं को श्रेष्ठ समझना, मुझे सब आता है, इ. अहं के कारण शरणागति के स्थान पर बहुत अहंकार निर्माण हो गया था । वर्ष १९८९ में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के संपर्क में आने पर मुझे इसका भान होने लगा । उन्हीं की कृपा से अध्यात्म में आने पर ‘शरणागति क्या होती है ?’ यह मेरी समझ में आने लगा । इस जगत में मुझसे श्रेष्ठ असंख्य लोग हैं । सबसे महत्त्वपूर्ण गत ३४ वर्षाें की साधना-यात्रा में मुझे जो सीखने के लिए मिला, वह है ‘ईश्वर एवं श्री गुरु ही सर्वश्रेष्ठ हैं तथा उनकी शरण गए बिना परमार्थ नहीं साध सकते ।’
१. अध्यात्म में आने पर ध्यान में आया ‘शरणागति’ का महत्त्व
१ अ. साधना में प्रगति होने हेतु ‘शरणागति’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण साधन है ! : विद्यार्थी जीवन में मुझे ‘शरण आना’ अथवा ‘शरणागति’, ये शब्द प्रथम सुनने के लिए मिले । तत्पश्चात अध्यात्म में आने पर मैंने सीखा कि अपना जन्म प्रारब्ध भोग समाप्त करने तथा साधना कर मोक्षप्राप्ति के लिए है । साधना में प्रगति होने हेतु ‘शरणागति’ अत्यंत महत्त्वपूर्ण साधन है । ईश्वर को, अपने गुरु को अथवा समय आने पर साधना होने हेतु किसी की शरण जाना होता है । शरणागत भाव से युक्त साधक स्वयं में विद्यमान अहंकार पर विजय प्राप्त कर गुरुकृपा से आध्यात्मिक प्रगति कर सकता है ।
१ आ. संतों द्वारा शरणागति का महत्त्व बताकर साधकों को उन्नति का मार्ग दिखाना : संत ज्ञानेश्वर, संत एकनाथ महाराज, संत तुकाराम महाराज, समर्थ रामदासस्वामी, गुरु नानक, प.पू. भक्तराज महाराज इत्यादि महान संतों ने स्वानुभव से ‘शरणागति का अनन्य साधारण महत्त्व एवं उसे कैसे साध्य करना है ?’, इस विषय में कहा है ।
१ इ. भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘शरण’ आने का उपदेश दिया : भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता द्वारा अर्जुन को ज्ञान, भक्ति, वैराग्यादि सिखाया । इतना परिश्रम करने के स्थान पर अंतिम रामबाण उपाय के रूप में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ‘शरण’ आने के लिए कहा ।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ।।
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १८, श्लोक ६६
अर्थ : सभी धर्म, अर्थात सभी कर्तव्यकर्म मुझे अर्पण कर, तुम केवल सर्वशक्तिमान, सर्वाधार मुझ परमेश्वर की शरण आ जाओ । मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा । तुम शोक न करो ।
२. ‘शरण’ शब्द की उत्पत्ति
‘शरण’ शब्द ‘शॄ’ धातु से उत्पन्न हुआ है ।
‘शृणाति दुःखमनेनेति ।’ शब्द कल्पद्रुम, शरण अर्थात जिससे दुःख का नाश हो !’
३. शरणागति की व्याख्या
‘मैं’ की भावना प्रत्येक बात का कर्तापन स्वयं पर लेने के लिए प्रवृत्त करती है । ‘मैंने यह किया, यह मेरे कारण हुआ’, ये उसके ही उदाहरण हैं । यही कर्तापन भगवान के चरणों में समर्पित करने की प्रक्रिया को ‘शरणागति’ कहते हैं ।
४. शरणागत होने के कारण
४ अ. व्यावहारिक जीवन-यापन करते समय ‘आनेवाले संकट दूर हों’, इस उद्देश्य से संत अथवा गुरु की शरण जाने का विचार आना : सौभाग्यवश मुझ पर थोडे-बहुत अच्छे संस्कार होने से सज्जन, श्रेष्ठ व्यक्ति एवं सत्पुरुषों की शरण जाने की घुट्टी मुझे बचपन से ही मिली थी । व्यावहारिक जीवन जीते समय असफलता, निंदा, आर्थिक अडचन, पारिवारिक समस्याएं आदि के कारण होनेवाले कष्टों से मैं थक गया था । तब मेरा मन सहानुभूति ढूंढ रहा था । ‘मेरे संकट दूर हों’, इस प्रामाणिक अपेक्षा से मैं मित्र, समाज के व्यक्ति, ज्योतिषी, संत अथवा गुरु, इस प्रकार किसी की शरण जाने का विचार कर रहा था । मुझे भान होने लगा कि मुझ पर संकट आने की मात्रा अधिक होने से अब मुझे शरणागति ही स्वीकारनी होगी ।
४ आ. गुरु अथवा ईश्वर की शरण न जाने से साधना में अनेक लोगों की अधोगति होती देख सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी की शरण जाना : साधना-यात्रा कठिन है । ऐसे में स्वयं को उन्नत समझनेवाले अच्छे-अच्छे साधक एवं संतों को अपने गुरु अथवा ईश्वर की शरण न जाने से साधना में उनकी अधोगति होते हुए हम देखते हैं । व्यवहार एवं साधना में ठोकरें खाने पर मैंने भली-भांति सोच-समझकर सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की संपूर्ण शरण जाने का मार्ग चुना ।
५. शरणागत स्थिति कैसे निर्माण होगी ?
५ अ. गुरु पर अटूट श्रद्धा चाहिए ! : शरणागति केवल क्रिया नहीं, अपितु वह उच्च कोटि की साधना है । वह स्थिति निर्माण होने की लगन होनी चाहिए । ‘मैंने अपने गुरु की शरण जाकर उनके चरणों में तन, मन एवं धन, सब कुछ अर्पित किया है । इसलिए वे मुझे किसी भी संकट से बाहर निकाल लेंगे । मुझे किसी भी प्रकार की चिंता नहीं करनी है । ‘मैं शरण गया हूं’, मुझे इसका भी अहं नहीं रखना है ।’
५ आ. अहं-निर्मूलन प्रक्रिया मनःपूर्वक करने से शरणागत स्थिति उत्पन्न होना संभव ! : परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने साधकों को ‘गुरुकृपायोगा’नुसार साधना बताई है । उसके अंतर्गत शरणागत स्थिति उत्पन्न होने के लिए अहं-निर्मूलन प्रक्रिया अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । अष्टांग साधना करने से शरणागत स्थिति आने में गति मिलती है । ‘गुरुचरणों में समर्पित होना’, यह भावना संजोने पर शरणागति आरंभ होती है ।
६. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा निर्माण किए गए शरणागत भाव के कारण ही जीवन में सकारात्मकता, सहजता एवं आनंद निर्माण होने की अनुभूति होना
परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने शरणागति के विषय में केवल तात्त्विक जानकारी नहीं बताई, अपितु वे ही मुझमें शरणागत-भाव निर्माण कर रहे हैं । जब मेरा मन निराशा से घिर जाता है तथा लगने लगता है कि ‘मैं हार गया क्या ?’, अथवा ‘मैं अकेला पड गया हूं’, इसका भान मुझे व्याकुल कर देता है, तब परात्पर गुरुदेवजी द्वारा पूरे जीवन जाने-अनजाने में मुझे दिए असंख्य आशीर्वाद, उनकी सीख एवं स्वर्णिम क्षणों का मुझे स्मरण होता है । ‘उन्होंने मेरी झोली में चैतन्य सहित सब कुछ अपार मात्रा में डाल दिया है कि वह समाप्त ही नहीं हो रहा’, इस कृतज्ञतावश उनके श्रीचरणों में शरण जाता हूं । उन्होंने जो शरणागतभाव मुझमें निर्माण किया है, इसी कारण मेरे जीवन में सकारात्मकता, सहजता एवं आनंद निर्माण होने लगा है ।
अनेक प्रसंगों से मुझे जो सीखने के लिए मिला, उपरोक्त विवेचन उसका छोटा सा सार है । अंत में मैं इतना ही कहना चाहता हूं कि ‘सांप्रत काल में साधकों के लिए ‘शरणागति’ उत्पन्न होने के सर्वाेच्च श्रद्धस्रोत ‘परात्पर गुरु डॉ. जयंत आठवलेजी’ ही हैं ।’ मैं उनके चरणों में शरणागतभाव से कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करता हूं ।’
– (पू.) शिवाजी वटकर (आयु ७६ वर्ष), सनातन आश्रम, देवद, पनवेल, महाराष्ट्र. (७.२.२०२३)
‘शरणागतभाव’ आने हेतु प्रक्रिया करते समय सीखने मिले सूत्र१. साधक को शरण जाने के लिए आयु अथवा परिस्थिति का बंधन नहीं होता । २. ज्ञान, धर्म, कर्म अथवा साधन, ये सभी अल्प हों, तो भी कोई बात नहीं । यदि श्रद्धा हुई तो भगवान शरणागति का द्वार खोल देते हैं । ३. जो साधक ‘मैं तथा मेरा’, यह भावना त्याग देता है, उसे शरणागति की पहली सीढी प्राप्त होती है । ४. साधक जितना अंतर्मुख, उतना शीघ्र वह शरणागति का पात्र हो जाता है । ५. साधक का ‘अहंकार’ जितनी बार पराजित होता है, उतनी बार वह श्रीगुरुचरणों के अधिकाधिक निकट जाता है । ईश्वर को अहंकार दान कर, शरणागति स्वीकारने से ईश्वर की विराटता अनुभव होती है । ६. शरणागत साधक के स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन का दायित्व भगवान (गुरु) स्वीकारते हैं । ‘शरणागति’ चित्त को शुद्ध एवं विशाल बनानेवाली कृति है । ७. शरणागत साधक को न तो कभी जीवन नीरस लगता है, न ही कभी उसे मृत्यु का भय लगता है । ८. शरणागति अर्थात अपने प्राण भगवान अथवा श्रीगुरुचरणों में विलीन करना । – (पू.) शिवाजी वटकर (आयु ७६ वर्ष), सनातन आश्रम, देवद, पनवेल, महाराष्ट्र. (७.२.२०२३) |