‘मीनार (टॉवर) मुद्रा’ द्वारा शरीर पर आया आवरण निकालने की पद्धति

आध्यात्मिक स्तर के उपायों से संबंधित सभी लेख संग्रहित कर रखें !

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी 

‘आपातकाल में जब आधुनिक वैद्य एवं चिकित्सकीय उपचार उपलब्ध नहीं होंगे, उस समय स्वयं के लिए तथा अन्यों के लिए आध्यात्मिक स्तर के उपाय करना संभव हो; इसके लिए उपायों से संबंधित सभी लेख संग्रहित कर रखें तथा आज से ही इन उपायों का अभ्यास करना आरंभ करें !’

– सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी (१७.७.२०२३)

१. ‘मीनार मीनार (टॉवर) मुद्रे’ का अविष्कार सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के द्वारा किया जाना

दोनों हाथों के मध्य की उंगलियां एक-दूसरे के साथ जोडकर तथा कलाईयों को सिर के दोनों बाजुओं से टिकाकर ‘मीनार मुद्रा’ दिखाते हुएं (सद्गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळजी

‘सितंबर २०१८ में एक दिन एक साधक को अनिष्ट शक्तियों का बहुत कष्ट होने से मैं उसके लिए नामजप के द्वारा उपाय कर रहा था । किसी भी शारीरिक कारण से नहीं, अपितु केवल अनिष्ट शक्तियों के कष्ट के कारण उसे असहनीय उदरशूल हो रहा था तथा ३ घंटे उपाय करने पर भी उसका कष्ट थोडा भी अल्प नहीं हुआ । मैंने जब यह बात सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी को बताई, तब उन्होंने एक अभिनव ‘मीनार (टॉवर) मुद्रा’ मणिपुरचक्र के सामने उदरशूल दूर होनेतक पकडने के लिए कहा । तब मैंने उस साधक का कष्ट दूर होने के लिए स्वयं के मणिपुरचक्र के सामने वह मुद्रा कर नामजप किया । वह मुद्रा करते समय मैंने अपने दोनों हाथों की कलाईयां पेट पर टिकाकर रखीं । उस पद्धति से आधे घंटेतक उपाय करने से उस साधक का उदरशूल पूर्णतया रुक गया । इस प्रकार नवीनतापूर्ण ‘मीनार मुद्रा’ का महत्त्व मेरी समझ में आया ।

२. शरीर पर आई आवरण की पट्टिका  दूर करने के लिए गुरुकृपा से ‘मीनार मुद्रा’ का उपयोग करने का प्रथम अविष्कार होना 

दूसरे दिन पुनः उस साधक को असहनीय उदरशूल हो रहा था । उस समय मेरी यह समझ में आया कि उस साधक के आज्ञाचक्र से लेकर मणिपुरचक्र तक आवरण की पट्टिका बनी है । मैं प्रथम बार ही ऐसे आवरण का अनुभव कर रहा था । मैं उस आवरण की पट्टिका को ‘मुट्ठियों से आवरण निकालने’ की पद्धति से निकालने का प्रयास कर रहा था; परंतु वह दूर नहीं हो रहा था । उस समय भगवान ने मुझे नामजप करते हुए सिर से लेकर पेटतक ‘मीनार मुद्रा’ करते हुए घुमाने के लिए सुझाया । इस प्रकार उपाय करने से शरीर पर आया आवरण १० मिनट में दूर हुआ तथा उस साधक का कष्ट भी बडी मात्रा में अल्प हुआ । तभी मैंने प्रथम बार आवरण निकालने के लिए ‘मीनार मुद्रा’ के उपयोग की खोज की; यह गुरुदेवजी की ही कृपा थी ।

३. ‘मीनार मुद्रा’ को शरीर के ऊपर से घुमाने की आवश्यकता 

पहले जब अनिष्ट शक्तियां शरीर पर आवरण लाती थीं, उस समय वह आवरण किसी एक चक्र पर अथवा अधिकतम २ चक्रों पर होता था; परंतु आज के समय में सूक्ष्म के युद्ध का स्तर बढ गया है । अब छठे एवं सांतवें पाताल की अनिष्ट शक्तियां आक्रमण कर रही हैं । उसके कारण वे शरीर के दूसरे चक्रों पर ही आवरण न लाकर सिर से लेकर छातीतक अथवा सिर से लेकर कमरतक आवरण डालकर क्रमशः ४ (सहस्रार से अनाहतचक्र तक) अथवा ६ चक्र (सहस्रार से स्वाधिष्ठानचक्र तक) आवरण से भारित करते हैं, साथ ही उनके द्वारा लाया गया आवरण ऊपर से नीचेतक निरंतर होता है । उनके द्वारा यह निर्गुण स्तर का आक्रमण होता है । उसके कारण यह आवरण ‘मुट्ठियों से आवरण निकालने’ की पद्धति से दूर नहीं होता, अपितु उसके लिए ‘मीनार (टॉवर) मुद्रा’ को शरीर के ऊपर से घुमाने’ की पद्धति का ही उपयोग करना पडता है ।

४. शरीर पर ‘मीनार मुद्रा’ को घुमाने की पद्धति 

दोनों हाथों के मध्य की उंगलियां एक-दूसरे के साथ जोडकर तथा कलाईयों को सिर के दोनों बाजुओं से टिकाकर ‘मीनार मुद्रा’ करें तथा उस मुद्रा को कुंडलिनीचक्र के ऊपर से (सहस्रार से स्वाधिष्ठानचक्र पर से ) ‘ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर’ इस पद्धति से ७-८ बार घुमाएं ।

५. ‘मीनार मुद्रा’ को शरीर पर घुमाते समय नामजप करना आवश्यक 

‘मीनार मुद्रा’ को शरीर पर घुमाने से पूर्व ‘प्राणशक्ति वहन उपाय पद्धति’ से (‘शरीर एवं शरीर के चक्रों पर हाथ की उंगलियां घुमाकर उंगलियों से प्रक्षेपित होनेवाली प्राणशक्ति के द्वारा आध्यात्मिक पीडा अथवा बीमारी के लिए कारण शरीर में स्थित बाधा का स्थान ढूंढना ! उसके उपरांत उस स्थान पर बाधा की तीव्रता के अनुसार हाथ की उंगलियों की मुद्रा एवं नामजप ढूंढकर उनके द्वारा उपाय करना’) ‘कौन सा नामजप करना है ?’, यह ढूंढें । ‘मीनार मुद्रा’ को शरीर पर घुमाते समय खोजकर निकाला हुआ नामजप करें । वह नामजप करने से मुद्रा करते समय दोनों हाथों की एक-दूसरे के साथ जुडी मध्य की उंगलियों के सिरों से (मीनार किए हुए उंगलियों की रचना से) नामजप के स्पंदन दोनों हाथ की हथेलियों के मध्य भाग में आकर शरीर पर फैल जाते हैं, साथ ही चक्रों के माध्यम से शरीर में भी प्रवेश करते हैं । नामजप के स्पंदनों के कारण शरीर में स्थित आवरण नष्ट होने में सहायता मिलती है । उसके कारण शरीर में तथा शरीर पर आया हुआ आवरण भंग हो जाता है । मीनार बनाकर की  हुई मुद्रा को शरीर पर ७-८ बार घुमाने के कारण अधिकांश आवरण नष्ट हो जाते हैं । आगे जाकर हम ‘मुट्ठियों से आवरण निकालने’ (‘शरीर पर आया हुआ कष्टदायक शक्तियों के आवरण को दोनों हाथों की मुट्ठियों में लेकर एकत्रित करना तथा उसे शरीर से दूर फेंक देना’) को इस पद्धति से दूर कर सकते हैं ।’

– (सद्गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळजी, पीएच.डी., महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा (२९.६.२०२३)

सहस्रारचक्र पर पकडी हुई ‘मीनार’ मुद्रा (‘टॉवर’ की मुद्रा), साथ ही ‘पर्वतमुद्रा’ के कारण अनिष्ट शक्तियों का कष्ट शीघ्र दूर होने में सहायता मिलना

‘शरीर पर आया कष्टदायक शक्तियों का आवरण दूर करने के लिए ‘मीनार’ मुद्रा (‘टॉवर’ की मुद्रा) कैसे लाभकारी है, साधक इसे अनुभव कर ही रहे हैं । प्रयोग से प्राप्त नामजप करते हुए अपने सहस्रारचक्र से स्वाधिष्ठानचक्र के ऊपर से ‘मीनार’ मुद्रा को ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर, इस प्रकार से ५-६ बार धीमी गति से घुमाया, तो उससे शरीर पर आया आवरण दूर होता है । आध्यात्मिक उपाय करते समय मुझे ‘मीनार’ मुद्रा का एक अन्य लाभ समझ में आया ।

हमारे शरीर पर आया आवरण दूर होने के उपरांत ‘मीनार’ मुद्रा कर छायाचित्र में दिखाए अनुसार उसे अपने सहस्रारचक्र पर अर्थात सिर के ऊपर ४-५ मिनट तक पकडकर रखने तथा नामजप करने से ‘हमें होनेवाला अनिष्ट शक्तियों का कष्ट तीव्र गति से दूर होता है’, यह मेरी समझ में आया । इसका कारण यह है कि सहस्रारचक्र पर पकडी हुई ‘मीनार’ मुद्रा, साथ ही नामजप के कारण ईश्वर से प्रक्षेपित चैतन्य हमारे ब्रह्मरंध्र से अंदर प्रवेश कर वह हमारे सभी चक्रों में फैल जाता है । उसके कारण हमें हो रहा अनिष्ट शक्तियों का कष्ट तीव्र गति से दूर होने में सहायता मिलती है ।

‘मीनार’ मुद्रा के इस परिणाम को अनुभव करते समय मुझे इसका स्मरण हुआ कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनि तपस्या करते समय सिर के ऊपर दोनों हाथ सीधे रखकर नमस्कार की मुद्रा करते थे, जिसे ‘पर्वतमुद्रा’ कहा जाता है । मैंने जब वह मुद्रा करके देखी, तो ‘उस मुद्रा के कारण भी हमारे शरीर पर बडी मात्रा में चैतन्य का प्रवाह प्रवाहित होता है’, ऐसा ध्यान में आया । इस मुद्रा के कारण भी हमें होनेवाले अनिष्ट शक्तियों के कष्ट शीघ्र दूर होने में सहायता मिलती है ।

– (सद्गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळ, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा (१४.६.२०२३)

  • बुरी शक्ति : वातावरण में अच्छी तथा बुरी (अनिष्ट) शक्तियां कार्यरत रहती हैं । अच्छे कार्य में अच्छी शक्तियां मानव की सहायता करती हैं, जबकि अनिष्ट शक्तियां मानव को कष्ट देती हैं । प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के यज्ञों में राक्षसों ने विघ्न डाले, ऐसी अनेक कथाएं वेद-पुराणों में हैं । ‘अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच को प्रतिबंधित करने हेतु मंत्र दिए हैं ।’ अनिष्ट शक्तियों से हो रही पीडा के निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपचार वेदादि धर्मग्रंथों में वर्णित हैं ।
  • आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । मंद आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ३० प्रतिशत से अल्प होना । मध्यम आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना; और तीव्र आध्यात्मिक कष्ट का अर्थ है नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में होना । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट को संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं ।
  • सूक्ष्म : व्यक्ति के स्थूल अर्थात प्रत्यक्ष दिखनेवाले अवयव नाक, कान, नेत्र, जीभ एवं त्वचा, ये पंचज्ञानेंद्रिय हैैं । जो स्थूल पंचज्ञानेंद्रिय, मन एवं बुद्धि के परे है, वह ‘सूक्ष्म’ है । इसके अस्तित्व का ज्ञान साधना करनेवाले को होता है । इस ‘सूक्ष्म’ ज्ञान के विषय में विविध धर्मग्रंथों में उल्लेख है ।