‘वैश्विक हिन्दू राष्ट्र महोत्सव’ के लिए आए हिन्दुत्वनिष्ठों को साधना का महत्त्व समझाने का अवसर मिलना !
‘१६ से २२ जून २०२३ की अवधि में फोंडा, गोवा के रामनाथी देवस्थान के सभागार में ‘वैश्विक हिन्दू राष्ट्र महोत्सव’ का आयोजन किया गया था । उसके लिए पूरे देश से आए ३५० से अधिक हिन्दुत्वनिष्ठों को अध्यात्म से संबंधित कुछ प्रयोग दिखाने की सेवा मुझे दी गई थी । ये प्रयोग देखने के लिए प्रतिदिन ५० हिन्दुत्वनिष्ठ आते थे । इन प्रयोगों में विषय था कि ‘आध्यात्मिक उन्नति होने पर देह से पंचमहाभूत कैसे प्रक्षेपित होते हैं तथा उनके कारण कौन-कौनसी अनुभूतियां आती हैं ?’ मैंने प्रयोगों के द्वारा मेरे देह से प्रक्षेपित होनेवाले तेजतत्त्व एवं वायुतत्त्व हिन्दुत्वनिष्ठों को दिखाए । उसके उपरांत मैंने उन्हें उन प्रयोगों का शास्त्र समझाया । इसके द्वारा मुझे उन्हें साधना का महत्त्व समझाने का अवसर मिला । उस समय मैंने उन्हें इस प्रकार बताया –
१. हिन्दुवनिष्ठों को ‘साधना क्यों और कैसे करें ?’, यह बताना
आज के समय में बहुत ही अल्प लोग साधना करते हैं । अधिकतर लोगों को ‘साधना करनी होती है’, यही ज्ञात नहीं है । हिन्दुत्वनिष्ठ हिन्दुत्व का कार्य मन से करते हैं; परंतु उनकी साधना न होने से वह कार्य बहुत कुछ प्रभावी सिद्ध नहीं होता । उसके कारण उनकी शक्ति का व्यय तो होता है; किंतु उससे कुछ लाभ नहीं होता । हिन्दुत्वनिष्ठों की यह स्थिति समझ में आने से मैंने प्रयोगों के उपरांत ‘साधना क्यों और कैसे करनी चाहिए ?’, यह उन्हें बताना सुनिश्चित किया तथा निम्न प्रकार से बताया –
२. साधना का महत्त्व बताना
मनुष्य को साधना कर ईश्वरप्राप्ति करने के लिए मनुष्यजन्म मिला है; इसलिए ईश्वरप्राप्ति उसका ध्येय होना चाहिए; इसलिए साधना नहीं की, तो उसका जीवन व्यर्थ हो जाएगा तथा उसके उपरांत उसे कब मनुष्यजीवन मिलेगा, यह बताया नहीं जा सकता, साथ ही हमने पूर्वजन्म में कुछ तो अच्छा किया है; इसीलिए यह मनुष्यजन्म मिला है । यदि हमने इस जीवन में साधना नहीं की, तो ईश्वर ने हमें आध्यात्मिक उन्नति का यह जो अवसर दिया है, वह व्यर्थ हो जाएगा । इसके साथ ही यदि हम इस जीवन में साधना कर विशिष्ट आध्यात्मिक उन्नति के स्तर तक पहुंच गए, तो अगले जन्म में उसी स्तर से हमारी आध्यात्मिक उन्नति का आरंभ होता है । अध्यात्म में पुनः पहले से साधना का आरंभ नहीं करना पडता तथा उससे इस जीवन में की गई साधना व्यर्थ नहीं होती ।
३. ईश्वर का स्मरण करते हुए कर्तव्य का निर्वहन करने से, साथ ही धर्म एवं आचारधर्म का पालन करने से हमारी साधना होती है !
अपने परिजनों से हमारा लेन-देन हिसाब होने से उनके प्रति हमारे कर्तव्य होते हैं, साथ ही समाज के प्रति भी हमारे कर्तव्य होते हैं । इसीलिए हम हिन्दुत्व का कार्य करते हैं । किसी भी कर्तव्य का निर्वहन करते समय हमने उसे ईश्वर के स्मरण के साथ किया, नामस्मरण के साथ किया तथा निरपेक्षता से किया; तो उससे हमारी साधना होती है । कर्तव्य का निर्वहन करते समय हमने ‘धर्म क्या बताता है’, यह जानकर कर्तव्य का निर्वहन किया, तो वह उचित कर्तव्य हो जाता है । धर्मपालन करना महत्त्वपूर्ण है । उसे करने से हमारी साधना होती है । हिन्दू धर्म ने ‘हम सवेरे जागने से लेकर रात को सोने तक जो-जो कृत्य करते हैं, वो कैसे करने चाहिए ?’, यह बतानेवाले ‘आचारधर्म’ का वर्णन किया है, उसका भी हमें पालन करना
पडेगा । उससे भी हमारी साधना होती है ।
४. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा बताई नवीनतापूर्ण ‘अष्टांग साधना’ करने के लिए कहना
नामस्मरण करने, साथ ही धर्म एवं आचारधर्म का पालन करने से कुछ स्तर तक हमारी आध्यात्मिक उन्नति होती है; परंतु मोक्षप्राप्ति तक अर्थात ईश्वर के साथ एकरूप होने तक आगे बढना हो, तो इतना करना पर्याप्त नहीं होता । चित्तशुद्धि होना आवश्यक है । इसके लिए जिस प्रकार से साधना होना आवश्यक है, वह होने के लिए सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने नवीनतापूर्ण ‘अष्टांग साधना’ बताई है । उसमें ८ अंग अर्थात ८ चरण हैं – ‘स्वभावदोष-निर्मूलन (साथ ही गुणसंवर्धन), अहं-निर्मूलन, नामजप, भावजागृति, सत्संग, सत्सेवा, त्याग एवं प्रीति ।’ यह अष्टांग साधना एक परिपूर्ण शास्त्र है । इस प्रकार से साधना करने से निश्चित रूप से आध्यात्मिक उन्नति होती है । पूरे दिन में प्रत्येक कृत्य करते समय इन ८ अंगों में से हम कौन-कौनसे अंग से साधना कर सकते हैं, इसका चिंतन करें तथा उसका क्रियान्वयन करें । प्रतिदिन दैनंदिनी लिखनी चाहिए । उसमें लिखें कि हमने पूरे दिन में कौन-कौनसे कृत्य किए, उनमें हमने क्या साधना की, कौनसी चूकें कीं इत्यादि । इससे यह सुनिश्चित करना संभव होता है कि ‘कल हमें स्वयं में क्या सुधार लाना है ?’
हिन्दुत्वनिष्ठों को यह सब बताते हुए प्रतिदिन मुझे बहुत आनंद मिल रहा था । हिन्दुत्वनिष्ठों ने साधना के विषय में अपनी शंकाओं का समाधान करवा लिया । एक संत ने पूछा, ‘उनके शिष्य तथा वे स्वयं भी क्या यह साधना सीखने के लिए आश्रम आ सकते हैं ?’ इस प्रकार मुझे इस सेवा की फलोत्पत्ति मिली; इसलिए मैं श्रीगुरुचरणों में कृतज्ञता व्यक्त करता हूं ।’
– (सद्गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळ, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (२३.६.२०२३)
‘साधना में कोई बात जान लेनी हो, तो उसे मन अथवा बुद्धि से नहीं जान लेना है; जबकि उस बात की अनुभूति करनी है । उससे उसका वास्तविक उत्तर मिलता है; क्योंकि साधना में अनुभूति लेने का बडा महत्त्व है । अनुभूति करना सूक्ष्म से संबंधित है, जबकि मन एवं बुद्धि से जान लेना स्थूल से संबंधित है ।’
– (सद्गुरु) डॉ. मुकुल गाडगीळ, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१४.६.२०२३)