विभिन्न क्षेत्रों के मान्यवरों से आध्यात्मिक धागे से जुडे सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी !
‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की जीवनी विविधांगी कार्याें से भारित है । सनातन के साधकों में उनके प्रति अपार श्रद्धा तो है ही; अपितु उसके साथ ही अनेक क्षेत्रों के अनेक जिज्ञासु एवं मान्यवर उनके साथ अपनेपन से जुडे हुए हैं । इस अंक में विभिन्न क्षेत्रों के मान्यवरों द्वारा गुरुदेवजी के प्रति व्यक्त गौरवोद्गार प्रकाशित किए गए हैं । अनेक मान्यवरों ने सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी के प्रति व्यक्त किए उद्गार, उनकी गाई हुई महिमा, मान्यवरों को प्राप्त अनुभव आदि सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी की अलौकिकता दर्शाते हैं । इनमें से कुछ मान्यवर उनके क्षेत्र में उच्च शिखर पर हैं; परंतु ऐसा होते हुए भी ‘हमने प्रत्यक्ष भगवान को देखा तथा उससे जीवन का कल्याण हुआ’, मान्यवरों ने इस प्रकार सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी के प्रति अपने मनोगत व्यक्त किए हैं । ‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी के (गुरुदेवजी के) अध्यात्मप्रसार के कार्य में सहभागी साधकों में उनके प्रति जो भाव अथवा श्रद्धा है, लगभग उतनी ही अथवा उससे थोडी अधिक ही गुरुदेवजी द्वारा आरंभ किए विभिन्न कार्याें में सम्मिलित होने के कारण उनसे मिले मान्यवरों की है’, ऐसा दिखाई देता है । अनेक मान्यवर प्रथम भेंट में ही सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की आध्यात्मिक श्रेष्ठता समझ लेते हैं, इसे गुरुदेवजी से मिलनेवाले मान्यवरों की विशेषता ही कहनी पडेगी ! सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी में ऐसा कुछ है कि एक बार उनके पास गया व्यक्ति उन्हीं का हो जाता है ! उसे पुनः-पुनः गुरुदेवजी से मिलने की इच्छा होती है । यह है सभी के प्रति गुरुदेवजी की निरपेक्ष प्रीति ! इसी निरपेक्ष प्रीति के कारण जिज्ञासु अथवा मान्यवर पहली भेंट में ही उनके साथ किस प्रकार जुड जाते हैं, इस उपलक्ष्य में यह देखेंगे !
१. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की सादगी
किसी को भी प्रथम भेंट में भाती है उनकी सादगी एवं सहजता ! सामान्य रूप से देखा जाए, तो अनेक लोगों के मन में ‘गुरु’ अथवा ‘संतों’ के विषय में जो प्रतिमा होती है, उसमें सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी के दर्शन से परिवर्तन आता है । इस संदर्भ में हिन्दुत्वनिष्ठ मुरली मनोहर शर्मा ने कहा था, ‘गुरुदेवजी से मिलने की बात आते ही मेरी आंखों के सामने यह चित्र आया कि एक बडा सभागार होगा, उसके मध्य भाग में ऊंचा सिंहासन होगा, भगवा वस्त्र, गले में माला धारण करनेवाले व्यक्ति उस पर विराजमान होकर हमारा मार्गदर्शन करेंगे तथा उनके आस-पास सेवक होंगे; परंतु वास्तव में परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी से मिलते ही मैं आश्चर्यचकित रह गया । एक श्वेत वस्त्रधारी तेजस्वी व्यक्ति सामने आकर हमारे साथ बडी सहजता से संवाद कर रहे थे । यह एक दुर्लभ दृश्य था ।’
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी सभी से अत्यंत सहजता से संवाद करते हैं, उसके कारण उनकी आध्यात्मिक श्रेष्ठता का किसी पर दबाव नहीं आता । कभी-कभी उनके साथ बातें करनेवाला व्यक्ति ‘उन्हें अनेक वर्षाें से जानता है’, इस पद्धति से खुले मन से सभी प्रकार की बातें करने लगता है, उस समय ‘यह उनकी एक-दूसरे से पहली ही भेंट है’, ऐसा बताने पर भी सत्य नहीं लगता !
२. पहली ही भेंट में सभी से अपनेपन से बातचीत करना
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी की आध्यात्मिक स्थिति अत्यंत उच्च होते हुए भी वे सभी के साथ इतने अपनेपन से बातचीत करते हैं कि पहली ही भेंट में वह व्यक्ति उनसे जुड जाता है । गुरुदेवजी मान्यवरों के साथ आए उनके परिजनों एवं सहयोगियों से भी संवाद करते हैं । उनके छोटे बच्चे हों, तो उनसे भी बातें करते हैं तथा उनके साथ छायाचित्र खिंचवाते हैं । ‘वास्तव में देखा जाए, तो भगवान के सामने कोई छोटा-बडा होता ही नहीं ! वे प्रत्येक व्यक्ति के अंतर में समाहित भाव का संज्ञान लेते हैं’, यह बात सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के सान्निध्य में स्पष्टता से प्रतीत होती है !
३. सामनेवाले व्यक्ति को बोलने के लिए प्रवृत्त करना, उसका संकोच दूर करना, साथ ही उसकी सभी बातें सुनना
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी अध्यात्म के उच्चतम पद पर विराजमान एक अधिकारी व्यक्ति होते हुए भी वे पहले सामनेवाले व्यक्ति को स्वयं कुछ न बताकर उसे बोलने के लिए प्रवृत्त करते हैं । तथा उसके मन की बात जानकर ऐसा अचूक प्रश्न पूछते हैं कि उस व्यक्ति को उसी विषय में बोलना होता है अथवा उसके मन में उस विषय से ही संबंधित प्रश्न होते हैं । उसके कारण सामनेवाला गुरुदेवजी के सामने अपना मन खोल पाता है । गुरुदेवजी से उसके प्रश्नों के उत्तर सहजता से मिलते हैं तथा उससे सामनेवाला व्यक्ति और अधिक बोलने के लिए उत्सुक हो जाता है । उस व्यक्ति को गुरुदेवजी की सर्वज्ञता समझ में आती है । कोई व्यक्ति बहुत बोलता है; परंतु गुरुदेवजी उसे न रोककर उसका सब सुनते हैं तथा समय-समय पर उसका उचित प्रत्युत्तर भी करते हैं ।
४. अन्यों के अच्छे कार्य की प्रशंसा कर प्रोत्साहन देना
मान्यवरों द्वारा किया गया कार्य गुरुदेवजी को बहुत प्रशंसनीय लगता है । लगन के साथ कार्य करनेवालों को वे स्वयं मिठाई अथवा अन्य कुछ भेंटवस्तु देकर प्रोत्साहित करते हैं । कभी-कभी स्वास्थ्य के कारणों से ऐसा करना उन्हें संभव नहीं हुआ, तो वे अन्य संतों के करकमलों से दिलवाते हैं; परंतु मान्यवर व्यक्ति समष्टि के कल्याण हेतु निःस्वार्थ भाव से कार्य कर रहे हैं तथा गुरुदेवजी ने उनके त्याग एवं समर्पण का संज्ञान नहीं लिया हो, ऐसा कभी नहीं होता । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे सभी क्षेत्रों में कार्यरत मान्यवरों के साथ उनकी रुचि के विषय पर संवाद कर सकते हैं । प्रत्येक मान्यवर को भी उनके साथ बातें करते समय उतनी ही सहजता प्रतीत होती है, यह गुरुदेवजी की बडी विशेषता है ।
५. प्रत्येक व्यक्ति को उसकी क्षमता के अनुसार ‘यथास्थिति’ में साधना करने की प्रेरणा देना
कोई मान्यवर आध्यात्मिक साधना करते हों, तो वे उनकी साधना के प्रयासों की प्रशंसा भी करते हैं, साधना में आगे बढने के लिए उनका मार्गदर्शन करते हैं । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी का अन्यों को भानेवाला गुण यह है कि वे सामनेवाले व्यक्ति की बातें पूर्णतया सुनते हैं । वास्तव में देखा जाए, तो परब्रह्म डॉक्टरजी की प्रेरणा से इतना बडा कार्य चल रहा है तथा अनेक साधक अध्यात्म में उन्नति कर रहे हैं; परंतु सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी अन्यों के सामने इस विषय में कुछ भी नहीं बताते, अपितु वे सामनेवाले व्यक्ति की बातें पूर्णतया सुनकर वह व्यक्ति वर्तमान स्थिति में, अपनी रुचि तथा कौशल के अनुसार किस प्रकार साधना के प्रयास कर सकता है, इसका मार्गदर्शन करते हैं ।
६. सामनेवाले व्यक्ति को राष्ट्र एवं धर्म के कार्य में सम्मिलित कर उससे समष्टि साधना करवाना
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी स्वयं भी निरंतर सीखने की स्थिति में रहते हैं तथा उन्होंने साधकों को भी वही सीख दी है । विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत मान्यवरों से संवाद करते हुए यदि उन्हें कोई भिन्न सूत्र समझ में आया, तो वे अत्यंत विनम्रता के साथ ‘मुझे यह आपसे सीखने के लिए मिला’, ऐसा जब बोलते हैं, उस समय सामनेवाले व्यक्ति के हाथ अपनेआप ही जुड जाते हैं ! मान्यवरों की कार्यक्षमता एवं उनके कौशल का राष्ट्र एवं धर्म के कार्य के लिए उपयोग हो तथा उस माध्यम से उन व्यक्तियों की समष्टि साधना हो; इसके लिए सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत लोगों से मिलते हैं; उस समय वे उनसे विनम्रतापूर्वक निवेदन करते हुए कहते हैं, ‘आप हमारे साधकों का भी इस संदर्भ में मार्गदर्शन करें ।’
इसके पीछे ‘अपने कार्य में अन्यों की सहायता मिले’, यह संकीर्ण विचार बिल्कुल नहीं होता, अपितु ‘उस व्यक्ति के द्वारा कुछ साधना होकर उसका कल्याण हो’, यह व्यापक उद्देश्य होता है । गुरुदेवजी के इस कृपावात्सल्य के कारण ही वह जीव बिना किसी बाह्य कारण के अंदर से ही उनके साथ जुड जाता है ।
७. स्वयं को अत्यंत शारीरिक कष्ट होते हुए भी अन्यों का आध्यात्मिक कल्याण करने के लिए प्रधानता देना
सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी में विद्यमान अपनापन, प्रीति, निरपेक्षता एवं उनके दिव्य तेज के कारण उनसे एक बार मिला व्यक्ति स्थायी रूप से उनका ही होकर रह जाता है । उनका सान्निध्य तो दिव्य आनंद का पर्व होता है । उनसे संवाद करने के उपरांत सामनेवाले व्यक्ति के मुख पर मुखरित हास्य, संतुष्टि तथा तृप्त भाव यही दर्शाते हैं कि ‘उन कुछ ही मिनटों के संवाद से उस जीव को कितनी प्रचुर मात्रा में आध्यात्मिक लाभ हुआ है !’ सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी को कभी-कभी कुछ मिनट के लिए भी बैठना असंभव हो जाता है । तीव्र शारीरिक कष्ट होते हुए भी वे केवल सामनेवाले व्यक्ति को आनंद मिले; इसके लिए स्वयं की स्थिति का विचार किए बिना उसके साथ संवाद करते हैं । गुरुदेवजी अपनी स्थिति के विचार की अपेक्षा उस जीव का आध्यात्मिक कल्याण करने के लिए सदैव प्रधानता देते हैं ।
सामनेवाले व्यक्ति के मुख पर मुखरित हो रहा हास्य एवं उसकी साधना को मिलनेवाली गति ही गुरुदेवजी के द्वारा अत्यंत कठिन शारीरिक स्थिति में भी किए गए संवाद की फलोत्पत्ति होती है !
सूर्यमुखी के फूल सूर्य की दिशा में अनुगमन करते हैं । उसी प्रकार सभी सात्त्विक जीव सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी की ओर स्वयं ही आकर्षित होते हैं, उनकी दिव्यता को जानते हैं तथा उनके बताए अनुसार साधनापथ पर अग्रसर होते हैं । विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत तथा विभिन्न समाजघटकों के मान्यवरों को सच्चिदानंद परब्रह्म गुरुदेवजी के प्रति अनुभव होनेवाला भाव एवं आदर उनमें विद्यमान चैतन्यशक्ति का प्रतीक है !
स्वयं में विद्यमान दिव्यत्व के द्वारा सभी को ईश्वरप्राप्ति की दिशा में अग्रसर करनेवाले गुरुदेवजी सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी के दिव्य एवं पावन चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम !’
– कु. सायली दिलीप डिंगरे, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (५.५.२०२३)