‘अनंत’में जानेकी यात्राकी सिद्धता
।। श्रीकृष्णाय नम: ।।
मनुष्यको छोटी-बडी यात्रामें जाना हो, तो वह पहलेसे ही साथ ले जानेकी वस्तुएं, कपडे, पैसे आदिकी सिद्धता करता है; किंतु अंतमें ‘अनंत’में जानेकी यात्राकी सिद्धता कभी भी नहीं करता । अंतमें अर्थात् स्वयंका अंत होनेके समय, मृत्युके समय; और ‘अनंत’में जाना अर्थात् भगवान् विष्णुसे, ईश्वरसे एकरूप होना । महाभारतमें विष्णुसहस्रनामस्तोत्रमें १०८ वें श्लोकमें विष्णुका ‘अनंत’ यह नाम आया है ।
मृत्युके पश्चात् पुनर्जन्म न चाहते हो तो उस अनंतसे, ईश्वरसे एकरूप हो जाना चाहिये । उस यात्राकी सिद्धता है शुद्धचित्त होकर श्रद्धा और विश्वाससे ईश्वरकी भावपूर्ण भक्ति, यह भक्तिमार्गकी साधना करनी चाहिये ।
‘अनंत’में जानेका दूसरा एक उपाय है । ‘सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म’ ऐसा तैत्तिरीयोपनिषदमें (ब्रह्मानन्दवल्ली २ अनुवाक १ मन्त्र १) बताया है । अर्थात् ब्रह्म वास्तवमें है, ज्ञानमय है और अनंत अर्थात् स्थल, काल तथा वस्तुओंकी मर्यादाविहीन, अंतहीन है । ऐसे अनंत ब्रह्ममें विलीन होना हो तो उसके स्वरूपको जानना और उस स्वरूपमें विलीन होनेके उपायाेंको जानकर उसके अनुसार आचरण, यह उस यात्राकी सिद्धता अर्थात् ज्ञानमार्गकी साधना करनी चाहिये ।
ऐसी सिद्धता नहीं की, तो भी यात्राएं तो होंगी ही । पुन: पुन: जन्मना और पुन: पुन: मरना, ऐसी जीवात्माओंकी, संख्याका अंत न रहनेवाली; अनंत यात्राएं होती ही रहेंगी । पुन: पुन: जन्म क्यों नहीं चाहिए ? क्यों कि हम जीवनमें पगपगपर दु:खका अनुभव करते हैं । भगवान् श्रीकृष्णने भी भगवद्गीतामें पुनर्जन्मको ‘दु:खालयमशाश्र्वतम्’ (अ.८ श्लोक १५) अर्थात् ‘दु:खका स्थान और अनित्य’ कहा है । महाराष्ट्रकी एक संत कवयित्री ने कहा है ‘सुख आहे जवापाडे । दु:ख पर्वताएवढे ।।’ अर्थात् जीवनमें सुख तो जौ (यव) धान्य के एक दानेके बराबरका है, तो दु:ख पहाड जितना है । इन दु:खोंकी पुनरावत्तियां टालनेके लिये किसी साधनासे अंतिम यात्राकी सिद्धता की, तो ‘अनंत’में विलीन होकर जन्म-मृत्युकी यात्राओंका अंत होगा ।
– अनंत आठवले. (१३.४.२३)