साधकों को कला संबंधी ज्ञान सहित अध्यात्म के विविध पहलू सिखानेवाले एवं कला के माध्यम से साधकों की साधना करवा लेनेवाले एकमेवाद्वितीय सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी !
‘गुरु-शिष्य’ के पदक (लॉकेट) संबंधी सेवा करते समय मैंने ३ रेखाचित्र बनाकर सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी को दिखाए । तब उनके मार्गदर्शनानुसार कलाकृतियों में परिवर्तन करते समय मुझे सीखने के लिए मिले सूत्र यहां दिए हैं ।
१. रेखाचित्र
१ अ. आकृति १ : इस कलाकृति में गुरु को दाढी नहीं दिखाई । (इसका कारण था पदक का आकार छोटा होने से गुरु का चेहरा ठीक से समझ में आए, इस दृष्टि से दाढी नहीं दिखाई थी ।)
१ आ. आकृति २ : इस कलाकृति में गुरु को दाढी दिखाई है ।
१ इ. आकृति ३ : यह अंतिम कलाकृति है ।
२. यद्यपि ‘दाढी रखना’, असात्त्विक है, तब भी यह नियम सामान्य व्यक्तियों के लिए होना; परंतु गुरु अथवा संतों को यह नियम लागू न होना; क्योंकि उनके लिए ‘दाढी रखना’ चैतन्य प्रक्षेपण का माध्यम है’, ऐसा सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी का कहना : प.पू. डॉक्टरजी ने मुझसे पूछा, ‘आकृति १’ एवं ‘आकृति २’ में से किस आकृति की ओर देखकर अच्छा लगता है ?’ मुझे ‘आकृति १’ की तुलना में ‘आकृति २’ की ओर देखकर अच्छा लगा । तब मुझे लगा, ‘दाढी रखना यद्यपि असात्त्विक है, तब भी आकृति २ की ओर देखकर अच्छा क्यों लगता है ?’ उस समय प.पू. डॉक्टरजी ने उसके पीछे का शास्त्र बताया । उन्होंने कहा, ‘‘दाढी रखना’ यद्यपि असात्त्विक है, तब भी यह नियम सामान्य व्यक्तियों के लिए है । गुरु अथवा संतों के लिए नहीं; क्योंकि उनके लिए वह चैतन्य प्रक्षेपित होने का माध्यम है ।’’
३. ‘आकृति २’ में सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा बताए परिवर्तन : प.पू. डॉक्टरजी ने शिष्य का आकार छोटा करने बताया । उन्होंने कहा, ‘‘गुरु से शिष्य बडा नहीं दिखना चाहिए ।’’
४. साधिका द्वारा कलाकृति अच्छी होने के लिए बुद्धि के स्तर पर कलाकृति में अनेक परिवर्तन करने के पश्चात भी उससे संतोष न होना एवं सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के बताए अनुसार कलाकृति में परिवर्तन करने पर साधिका को अच्छा लगना एवं शरणागतभाव प्रतीत होना : इससे पहले मैंने कलाकृति अच्छी होने के लिए बुद्धि के स्तर पर कलाकृति में अनेक परिवर्तन किए, तब भी मुझे संतोष नहीं हो रहा था । मुझे लग रहा था कि उसमें कुछ तो रह गया है ।’ प.पू. डॉक्टरजी के बताए अनुसार शिष्य का आकार छोटा करने पर कलाकृति की ओर देखकर मुझे अच्छा लगने लगा । प.पू. डॉक्टरजी के वाक्य का मुझे स्मरण हुआ, ‘गुरु से शिष्य बडा नहीं दिखना चाहिए !’ ‘हमारे जीवन में गुरु से बडा कुछ भी नहीं’, इसका मुझे भान होकर मेरी भावजागृति हुई । मुझे ऐसा लगा कि ‘अब यह कलाकृति खरे अर्थ में परिपूर्ण हुई है ।’ इसके साथ ही उस ओर देखकर मुझे संतोष मिल रहा था । कलाकृति की ओर देखकर मुझे शरणागतभाव प्रतीत हो रहा था ।
५. कलाकृति में परिवर्तन कर उसे सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी को दिखाने पर उन्होंने कहा, ‘‘अब अच्छी बनी है !’’ तब मुझे सीखने के लिए मिला, ‘कलाकृति के माध्यम से गुरु हमारी न्यूनता दूर कर हमें तैयार करते हैं ।’
हमारा अज्ञान दूर करनेवाले एवं कला के माध्यम से साधना सिखानेवाले, वे एकमेवाद्वितीय गुरु हैं । इस अनमोल मार्गदर्शन के लिए हम उनके श्रीचरणों में कोटि-कोटि कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।’
– कु. सिद्धि महेंद्र क्षत्रीय (वर्ष २०२२ में आध्यात्मिक स्तर ६१ प्रतिशत), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१४.४.२०२३)