व्रतविधियों के चार मास

इस वर्ष चातुर्मास आरंभ २९ जून को एवं समाप्ति २४ नवंबर को है ।

आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार महीने के काल को ‘चातुर्मास’ कहते हैं ।

 

स्वास्थ्य बनाए रखने, साधना करने तथा वातावरण को सात्त्विक बनाए रखने हेतु धर्मशास्त्र में बताए नियमों का पालन सर्वथा उचित है । मानवजीवन से संबंधित इतना गहन अध्ययन केवल हिन्दू धर्म में ही किया गया है । यही इसकी महानता है ।

चातुर्मास को उपासना एवं साधना हेतु पुण्यकारक एवं फलदायी काल माना जाता है । आषाढ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक अथवा आषाढ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक चार महीने के काल को चातुर्मास कहते हैं । यह एक पर्वकाल है । ऐसी मान्यता है कि चातुर्मास का काल देवताओं के शयन का काल है । इसलिए चातुर्मास के आरंभ में जो एकादशी आती है, उसे शयनी अथवा देवशयनी एकादशी कहते हैं । तथा चातुर्मास के समापन पर जो एकादशी आती है, उसे देवोत्थानी अथवा प्रबोधिनी एकादशी कहते हैं । परमार्थ के लिए पोषक बातों की विधियां और सांसारिक जीवन के लिए हानिकारक विषयों का निषेध, यह चातुर्मास की विशेषता है ।

चातुर्मास के काल में अधिकाधिक व्रतविधि होने का कारण चातुर्मास का काल; व्रतविधियों का काल भी जाना जाता है । चातुर्मास के काल में सूर्य की किरणें तथा खुली हवा अन्य दिनों के समान पृथ्वी पर नहीं पहुंच पाती । विविध जंतु तथा कष्टदायक तरंगों की मात्रा बढकर रोग फैलते हैं । आलस्य का अनुभव होता है । आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें, तो चातुर्मास के काल में पृथ्वी के वातावरण में तमोगुण की प्रबलता बढ जाती है । ऐसे में हमारी सात्त्विकता बढाना आवश्यक होता है । चातुर्मास में किए जानेवाले विविध व्रतों की सहायता से विविध देवताओं की उपासना की जाती है और उनका आवाहन किया जाता है । व्रतविधि के कारण हमारा सत्त्वगुण बढता है और हम सर्व स्तरों पर सक्षम बनते हैं । प्रबल तमोगुणी वातावरण में सात्त्विकता बढाने हेतु दिए गए व्रतविधि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों की देन है ।

चातुर्मास भगवान श्रीविष्णुका शयनकाल है ।

चातुर्मासमें ‘ब्रह्मदेव द्वारा नई सृष्टि की रचना का कार्य जारी रहता है एवं पालनकर्ता श्रीविष्णु निष्क्रिय रहते हैं; इसलिए चातुर्मास को विष्णु शयनकाल भी कहते हैं । ऐसी मान्यता है कि उस समय विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं । इसके संदर्भ में एक पौराणिक कथा है – वामनावतार में श्रीविष्णु ने असुरों के राजा बलि से त्रिपादभूमि दान में मांग ली । श्रीविष्णु ने एक पद में पृथ्वी, दूसरे पद में संपूर्ण ब्रह्मांड माप लिया तथा तीसरी बार श्रीविष्णु ने बलि राजा की प्रार्थना के अनुसार उनके सर पर पद रखकर उन्हें पाताल में भेज दिया । बलि राजा ने भगवान श्रीविष्णु की भक्ति में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया । इसपर प्रसन्न होकर भगवान श्रीविष्णु ने बलि राजा के निकट रहना मान्य किया । तबसे श्रीविष्णु क्षीरसागर में शयन करने लगे । वास्तव में चातुर्मास के इस काल में श्रीविष्णु शेष शैया पर योगनिद्रा का लाभ लेते हैं ।