प्राचीन भारत की आदर्श शिक्षाप्रणाली !
प्राचीन भारतीय शिक्षा की विशेषताएंभारत की प्राचीन शिक्षाप्रणाली की विशेषता यह थी कि बालक का ६ – ७ वर्ष की अवस्था में उपनयन संस्कार कर दिया जाता था । यज्ञोपवीत हो जाने पर बालक २५ वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य धर्म का पालन करते हुए उच्च शिक्षा ग्रहण करता था । ज्ञानार्जन के माध्यम से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त कर वह गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर कर्तव्यों का पालन करते हुए मोक्षप्राप्ति करता था । विद्यार्थी गुरु के आश्रम में रहकर शिक्षा-दीक्षा पूरी होने पर स्नातक बनता था, फिर समावर्तन संस्कार होने के बाद अपने गृहस्थ धर्म का पालन करता था । विद्यार्थी काल में सभी विद्यार्थी भिक्षाटन करते थे । किसी भी वर्ग का विद्यार्थी हो, वह गुरु की सेवा करता था । समीधा के लिए लकडियां लाना, गुरु की गायों को चराना, इन सब नियमों के पालन का उद्देश्य विद्यार्थियों में समानता की भावना के साथ-साथ शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, चारित्रिक विकास करना था । प्राचीन काल में गुरु एवं शिष्य का संबंध भावात्मक होता था । उनका संबंध पिता एवं पुत्रवत था । शिष्य को गुरु के पहले सोकर उठना होता था । फिर गुरु के सो जाने के बाद उसे सोना होता था । गुरु के आश्रम में अनुशासन एवं कर्तव्य का पूर्ण पालन करना होता था । विद्यार्थी धनी हो या निर्धन, उनके आहार-विहार तथा रहन-सहन में समानता का ध्यान रखा जाता था । गुरुकुल आश्रम प्रणाली की शिक्षा व्यवस्था श्रेष्ठ थी । शिक्षा के विषयों में व्याकरण, गणित, ज्योतिष, भाषा, इतिहास, धर्म, दर्शन, अर्थशास्त्र, कृषि, न्याय, तर्क, चित्र, युद्धकला जैसे विषयों के अध्ययन के साथ-साथ वैदिक मंत्रों का उच्चार करना, पिंगल के छंदशास्त्र के नियमों को कंठस्थ करना सिखाया जाता था । अध्यापन शैली की विशेषता यह थी कि शिष्य गुरु द्वारा पढाए गए विषयों पर चिंतन, मनन, तर्क किया करते थे । रहस्यात्मक एवं गूढ विषयों को शिक्षक की सहायता से समझ लेते थे । मौखिक परीक्षा प्रणाली प्रचलित थी । वाद-विवाद, प्रश्नोत्तर द्वारा विद्यार्थियों की योग्यता एवं क्षमताओं का मूल्यांकन होता था । आज के आधुनिक शिक्षा-व्यवस्था की तुलना में प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था किस प्रकार आदर्श थी, यह समझने पर हिन्दुओं के मन में धर्म के प्रति अभिमान बढाने में यह लेखन निश्चित ही साहाय्यभूत होगा । |
प्राचीन भारत में शिक्षा का मूल उद्देश्य क्या था ?
प्राचीन भारत की गौरवशाली सांस्कृतिक विरासत एवं प्रगति का मूल आधार शिक्षा ही थी । प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास था । व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में उसके चारित्रिक विकास तथा आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य ही सर्वप्रमुख था । अंग्रेजी शिक्षा मूल उद्देश्य व्यापार था, चीन के दार्शनिक मानव को नीतिशास्त्र पढाकर उसे राज्य का विश्वासपात्र सेवक बनाना ही शिक्षा का उद्देश्य मानते थे; परंतु प्राचीन भारत में सांसारिक अभ्युदय और परा विद्या से नि:श्रेयस की प्राप्ति ही विद्या के उद्देश्य थे । अपरा विद्या से अध्यात्म तथा परात्पर तत्त्व का ज्ञान होता था । परा विद्या मानव की विमुक्ति का साधन मान जाती थी । इस कारण गुरुकुलों और आचार्यकुलों में अंतेवासियों के लिए ब्रह्मचर्य, तप, सत्य व्रत आदि आवश्यक था । विद्यार्थी गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के बाद भी कर्तव्य एवं जनकल्याण के उद्देश्य को पूर्ण करे, तथा अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष की प्राप्ति करे, यह भी शिक्षा का उद्देश्य था ।
१. प्राचीन भारत का शिक्षा-दर्शन भी धर्म से ही प्रभावित था । शिक्षा का उद्देश्य धर्माचरण की वृत्ति जाग्रत करना था। शिक्षा, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए थी । इनका क्रमिक विकास ही शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य था । शिक्षा का लक्ष्य यह भी था कि आध्यात्मिक मूल्यों का विकास हो । धर्म का सर्वप्रथम स्थान था । धर्म से विपरीत होकर अर्थ लाभ करना मोक्षप्राप्ति का मार्ग अवरुद्ध करना था । मोक्ष जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य था और यही शिक्षा का भी अन्तिम लक्ष्य था।
२. उस समय भौतिक सुविधाओं के विकास की ओर ध्यान देना आवश्यक नहीं था क्योंकि भूमि धन-धान्य से पूर्ण थी, भूमि पर जनसंख्या का भार नहीं था; किंतु इसका यह भी अर्थ नहीं था कि लोकोपयोगी शिक्षा का अभाव था । लोकोपयोगी शिक्षा वंश की परंपरा द्वारा पिता से पुत्र को हस्तांतरित होती रहती थीं । व्यवसायों के क्षेत्र में प्रतियोगिता नहीं के बराबर थीं । सभी के लिए काम उपलब्ध था। सभी की आवश्यकताएं पूर्ण हो जाती थीं।
३. प्राचीन काल में भारतीय जीवन-दर्शन पूर्णत: आध्यात्मिक रहा और शिक्षा को भी यही दिशा मिली । गुरु परंपरा अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण रही । वेदों का प्रादुर्भाव भी गुरुपरंपरा से ही हुआ । तत्पश्चात भी शिक्षा गुरुपरंपरा के माध्यम से ही दी जाती रही।
प्राचीन भारत में शिक्षा का महत्त्व
१. विद्या को सभी धनों में प्रधान बताया गया है कि इसे न चोर चुरा सकता है, न भाई बंटा सकता, न राजा छीन सकता है और न ही यह मनुष्य के लिए भारतुल्य होती है । यह ऐसा धन है जो खर्च करने पर भी बराबर बढता है ।’ विद्या के विविध उपयोग बताए गए हैं ।
२. यह ‘माता के समान रक्षा करती है, पिता के समान हितकारी कार्यों में नियोजित करती है, पत्नी के समान दुखों को दूर कर आनंद देती है, सफलता तथा वैभव का विस्तार करती है । यह कल्पलता के समान गुणकारी है ।’
३. विद्या से विहीन व्यक्ति वस्तुतः पशुतुल्य है । यहां तक कि ब्राह्मण भी यदि विद्यारहित है, तो वह शूद्र के समान ही है । प्राचीन भारतीयों की दृष्टि में शिक्षा मनुष्य के सर्वांगीण विकास का साधन थी ।
४. सुभाषित ‘रत्न संदोह’ में कहा गया है कि ‘ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है, जो उसे समस्त तत्त्वों के मूल को जानने में सहायता करता है तथा सही कार्यों को करने की विधि बताता है ।’
५. विष्णुपुराण में शिक्षा को मोक्ष का साधन माना गया है ।
६. शास्त्रण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा: यस्तु क्रियावान्पुरुष: सएव ।
अर्थात कहा गया है कि केवल शास्त्र पढे परंतु उसके अनुसार आचरण नहीं किया, तो शास्त्रों का पंडित भी मूर्ख है । इससे ध्यान में आता है कि शिक्षा का उद्देश्य मात्र पुस्तकीय ज्ञान प्राप्त करना नहीं था; अपितु मनुष्य के स्वास्थ्य, गुणों का भी विकास करना था ।
शिक्षा के द्वारा मनुष्य आजीविका का उत्तम साधन प्राप्त करता है । मात्र शिक्षा को आजीविका का साधन मानना भारतीयों की दृष्टि में हीन था । ऐसी मान्यतावालों की निन्दा की गई है । प्राचीन विचारकों की दृष्टि में शिक्षा मनुष्य के साथ आजीवन चलनेवाली वस्तु है । सच्चा अध्यापक वह है जो अपने जीवन के अंत तक विद्यार्थी बना रहता है ।
– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति