राजदंड का सम्मान !
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिन पूर्व संसद की नई इमारत ‘सेंट्रल विस्टा’ का उद्घाटन किया । इस अवसर पर वेदमंत्रों के उच्चारण एवं होम-हवन कर यह उद्घाटन किया गया । यहां महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कार्यक्रम के आरंभ में ही तमिलनाडु के पुरोहितों ने मंत्रोच्चार करते हुए ‘राजदंड’ (सेंगौल) सौंपा । इस राजदंड को स्वीकार करने से पूर्व मोदी ने राजदंड को साष्टांग नमस्कार किया तथा उसके उपरांत लोकसभा के सभापति ओम बिडला के साथ नए संसद भवन में उसकी स्थापना की गई । नया संसद भवन अल्पावधि में बनकर तैयार हुआ है तथा उसका पूर्व का प्रस्तावित व्यय ३ सहस्र करोड रुपए होते हुए यह संसद भवन विभिन्न कलाकृतियों सहित १ सहस्र २०० करोड रुपए में बना है, ऐसा समाचार है । वर्तमान संसद भवन से यह नया संसद भवन आकार में तिगुना है तथा उसकी रचना भारतीय वास्तुशास्त्र के अनुरूप है ।
राजदंड की यात्रा
७ वीं शताब्दी में एक तमिल संत ने मूल राजदंड की निर्मिति की, ऐसा बताया जाता है । दक्षिण के महापराक्रमी एवं शक्तिशाली चोल साम्राज्य में राजसत्ता का हस्तांतरण इस राजदंड के द्वारा होता था । जैसे-जैसे अंग्रेजों से भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण का समय निकट आ रहा था, भारत के अंतिम वायसराय माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू से एक प्रश्न पूछा, ‘सत्ता का हस्तांतरण कैसे करना है ? इसका अर्थ उसके लिए क्या माध्यम बनाया जाए ?’, उस समय नेहरू ने भारत के तत्कालीन विद्वान तथा गवर्नर सी. राजगोपालाचारी से यह प्रश्न पूछा । राजगोपालाचारी ने जब इसके लिए अनेक ग्रंथों का अध्ययन किया, तब उन्हें भारत के प्राचीन साम्राज्यों में से एक तमिलनाडु के चोल साम्राज्य के सत्ता के हस्तांतरण की जानकारी मिली । उन्होंने ‘सेंगौल’ बनाने का दायित्व तमिलनाडु के धर्माधिकारियों को दिया तथा उसके उपरांत वुमीडी इथिराजुलू एवं वुमीडी सुधाकर ने उसे स्वर्ण (सोने) में तैयार किया । प्राचीन चोल साम्राज्य में राजसत्ता पर विराजमान होनेवाले राजा को धर्माचार्य यह राजदंड देते थे । इस राजदंड के ऊपरी भाग में नंदी की प्रतिकृति है । यह राजदंड धर्माचार्य भगवान शिव का आवाहन कर राजा को दिया जाता था । राजा न्यायपूर्ण एवं निष्पक्ष राजतंत्र चलाए, उसके पीछे यह उद्देश्य था । ‘राजा शिवजी का अनुयायी होता है; इसलिए वह भगवान शिव को सम्मत राजतंत्र चलाएगा, राजा से ऐसी अपेक्षा होती थी । उसे अमृतकाल का प्रतीक माना जाता है । इससे भारतीय संस्कृति में राजा तथा उसके कार्य के प्रति कितना उदार दृष्टिकोण विकसित था, यह समझ में आता है ।
राजदंड का अवमूल्यन करनेवाली कांग्रेस !
अगस्त १९४७ में मंत्रों के उच्चारण के साथ जवाहरलाल नेहरू को यह राजदंड सौंपा गया । उसके उपरांत वह कहां अदृश्य हो गया ?, यह समझ में नहीं आया । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ नियतकालिकों से इस राजदंड की जानकारी लेकर उसका महत्त्व जान पाए । उसके उपरांत इस राजदंड को ढूंढना आरंभ किया गया । यह राजदंड प्रयागराज के संग्रहालय में रखा गया था तथा उसकी जानकारी के रूप में वहां लिखा गया था, ‘पंडित नेहरू को मिली हुई सोने की छडी’ (?) इसका अर्थ तत्कालीन शासन-प्रशासन की दृष्टि में इस राजदंड का महत्त्व मात्र ‘सोने की छडी’ तक ही सीमित था ! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कारण यह ‘सोने की छडी’ ऐतिहासिक राजदंड की ओर पुनः अग्रसर हुई । इस राजदंड को संसद में सभापति के आसन की बाजू में पुनः स्थापित किया गया तथा इससे देश को पुन: अमृतकाल का अनुभव हुआ । नई संसद के उद्घाटन का कार्यक्रम देखकर देशवासियों को ‘कहीं हम किसी धार्मिक कार्यक्रम का उद्घाटन तो नहीं देख रहे हैं ?’, ऐसा अनुभव हुआ होगा; परंतु जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते, उसे प्रधानमंत्री मोदी ने वास्तविकता में उतारा तथा सनातन धर्मियों को इस पर गर्व भी प्रतीत हुआ । विपक्षी दलों के अनेक नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी के हस्तों संपन्न इस उद्घाटन की कडी आलोचना की, कुछ लोगों ने यह भी कहा कि यह ‘प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत को पुनः अतीत में ले जाने का प्रयास’ था ।
राजा का महत्त्व
भारतीय परंपराओं एवं संस्कृति के प्रति द्वेष तथा हीनता की वृत्ति रखनेवाले तथा हिन्दू धर्म के प्रति द्वेष की भावना रखनेवाले व्यक्ति ही ऐसा बोल सकते हैं । यह केवल नए संसद भवन के उद्घाटन का कार्यक्रम नहीं, अपितु कालप्रवाह के साथ-साथ भारतीय परंपराओं को गौरवान्वित करने का भी क्षण है । हमारे यहां ‘राजा का अर्थ अधिकार चलाने का, सत्ता एवं शक्ति का प्रदर्शन करने का पद नहीं है, अपितु वह एक दायित्व है तथा धर्म एवं देवताओं को साक्षी मानकर उन्हें अपेक्षित तथा प्रजा का हित करने के लिए है’, इस बात को रेखांकित करनेवाला है । स्वाभाविक है, ‘राजा’ के पद पर विराजमान व्यक्ति कोई सामान्य व्यक्ति नहीं होता, अपितु वह अनेक दैवी गुणों से संपन्न होता है । आवश्यकता पडने पर प्रजाहित के लिए कोई भी त्याग, जिसमें प्राणों का त्याग करने की मानसिक तैयारी, साथ ही आयु के आधार पर सुयोग्य व्यक्ति का चुनाव कर धर्माचार्याें के आदेश पर उसके हाथ में राजतंत्र सौंपकर स्वयं वानप्रस्थ जाने की भी उस व्यक्ति की तैयारी होती थी । इसके परिणामस्वरूप राजा को प्रजा के किसी अनुचित आचरण के लिए उसे दंडित करने तथा प्रजा की रक्षा करने का अधिकार भी उसे प्राप्त होता था । यह राजदंड उसी का प्रतीक है । राजदंड धारण करनेवाला व्यक्ति का नीतिपरायण होना आवश्यक होता है । राजा एवं प्रजा धर्मपरायण वृद्धि के लिए बना एक संबंध है । भारत में अनेक गौरवशाली राजसंस्कृति का उदय हुआ । उन्हीं के कारण धर्म टिक पाया, समस्त प्राणियों सहित पृथ्वी का भी कल्याण एवं रक्षा हुई । प्रधानमंत्री मोदी इस राजदंड को यही सम्मान देकर यथार्थ रूप से भारतीयों का कल्याण करें, यही अपेक्षा है !
धर्मपरायण, निष्पक्ष, कर्तव्यदक्ष राजा तथा नीतिमान एवं राष्ट्राभिमानी प्रजा ही राजदंड का महत्त्व बढाएंगे ! |