सावरकर के लिए वामपंथियों की श्रद्धा और दुराव : एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
वीर सावरकरजी इस देश के वीरतम सुपूतों में से एक थे । महाराष्ट्र में उन्हें कृतज्ञतापूर्वक ‘क्रांतिकारियों के मुकुटमणि’ के नाम से जाना जाता है । आज कथित सेक्युलरवादी कांग्रेस तथा वामपंथी दल सावरकरजी काे देश का शत्रू कहते हैं । उनके व्यक्तित्व पर कींचड उछालते हैं । वास्तविक रूप से देखें, तो सावरकर रूपी तेजस्वी सूर्य पर एक बालटी पानी डाल उस सूरज को बुझाने जैसा यह हास्यास्पद प्रयास है ।
वीर सावरकरजी के समकालीन साम्यवादियों के दृष्टीकोण से सावरकरजी का महत्त्व क्या था तथा उनके वंशजों ने सावरकर जी को किस प्रकार अपमानित किया, इस विषय पर यह विशेष विचारणीय लेख हमारे पाठकों के लिए प्रसारित कर रहे हैं । उत्तर प्रदेश स्थित प्रयागराज के दैनिक ‘प्रयागराज टाइम्स’ के संपादक श्री. अनुपम मिश्रा लिखित यह लेख आज वीर सावरकरजी की १४० वी जयंती के शुभ अवसर पर हम प्रकाशित कर रहे हैं । (हम मिश्राजी के आभारी हैं की, उन्होंने बहुत कम समय में इस विषय पर संशोधन कर यह विशेष लेख लिखा ।)
वीर सावरकर का आज सबसे अधिक विरोध तथाकथित धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक दलों के अलावा वामपंथी खेमे से आता है । परंतु क्या वामपंथियों के लिए सावरकर हमेशा ऐसे ही खलनायक थे जैसा कि आज प्रतीत हो रहा है ! हकीकत ये है के हिंदुत्व की अवधारणा के लिए सावरकर को दोषी बताने वाला वामपंथी खेमा किसी जमाने में हिंदू महासभा के साथ एक अघोषित गठबंधन के तहत बंगाल में चुनाव लडा करता था । हिंदू महासभा के अध्यक्ष निर्मल चैटर्जी जब १९५७ में लोक सभा चुनाव हार गए तो १९६३ में उस समय की अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थन से ही संसद में पहुँचे थे । इतना ही नहीं, १९६७ में कम्युनिस्ट पार्टी में विभाजन के बाद भी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने समर्थन देकर निर्मल चैटर्जी को फिर से संसद में पहुंचाया । हिंदू महासभा के घटते समर्थन को देखते हुए राजनीति से सन्यास ले रहे निर्मल चटर्जी ने अपने जिन पुत्र को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से टिकट दिला कर लोकसभा में भेजा, उन्हें आज हम वामपंथी पुरोधा सोमनाथ चटर्जी के नाम से जानते हैं ।
कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक एम एन रॉय सावरकर के अंडमान से रिहा होने पर उनसे मिलने के लिए जाते हैं तो कोट-पैंट की जगह धोती-कुर्ता धारण कर लेते हैं और सावरकर के सामने पडते ही भावुक होकर उनके चरणों को स्पर्श करके प्रणाम करते हैं । कम्युनिस्ट पार्टी के ही एक और संस्थापक सदस्य हीरेंद्र नाथ मुखर्जी सावरकर की मृत्यु पर लोक सभा में उनको याद करते हैं और किसी भी सदन का सदस्य न होते हुए भी संसद में उन्हें श्रद्धांजलि दिलाते हैं । कम्युनिस्ट पार्टी के तीसरे संस्थापक सदस्य श्रीपाद अमृत डांगे का मानना था कि वीर सावरकर देश के सबसे बडे क्रांतिकारी हुए हैं ।
देश की आजादी के लिए सोशलिस्ट रिपब्लिकन पार्टी चलाने वाले भगत सिंह ने पार्टी में सदस्यता लेने के लिए सावरकर की पुस्तक अनिवार्य रूप से पढने की शर्त रखी थी । सिर्फ़ वामपंथी दल ही क्यों, इंदिरा गांधी ने स्वयं सावरकर को श्रद्धांजलि देते हुए भारत का उत्कृष्ट सपूत बताया और उनके जीवन से प्रेरणा लेने की बात कही ।
यहाँ तक कि ख़ुद महात्मा गांधी ने सावरकर को “साहस और राष्ट्रभक्ति का पर्याय” बताया था । परंतु २००३ में हम उन्हीं गांधीजी के नाम पर राजनीति करने वाली पार्टी और परिवार को सोनिया गांधी के नेतृत्व में उस समारोह का बहिष्कार करते हुए देखते हैं जिसमें राष्ट्रपति कलाम द्वारा सावरकर के चित्र का संसद में अनावरण किया जा रहा था ।
आश्चर्य की बात यह थी कि बहिष्कार में कॉंग्रेस का साथ वामपंथी पार्टियों ने दिया था । तो प्रश्न ये उठता है कि सावरकर को इतना ज़्यादा सम्मान देने वाला वामपंथी खेमा आज उन्हें खलनायक के तौर पर स्थापित करने के लिए क्यों कटिबद्ध नजर आ रहा है ! दरअसल पचास के दशक में श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर ८० के दशक तक दीन दयाल उपाध्याय के नेतृत्व में जनसंघ मूलतः गांधीवादी समाजवाद को लेकर आगे बढ़ रहा था । “अंत्योदय” की समाजवादी अवधारणा ही पार्टी का मूल विचार और ध्येय था जिसके तहत समाज के अंतिम पायदान पर खडे व्यक्ति का उद्धार होना बताया जाता था ।
सन् १९८० में भारतीय जनता पार्टी के गठन के बाद भी शुरुआती चार-पाँच साल पार्टी ने इसी लाइन पर काम किया, परंतु १९८४ के चुनावों में मात्र दो सीटों पर सिमट जाने के बाद भाजपा ने एक बड़ी वैचारिक करवट लेते हुए हिंदुत्व की विचारधारा को अपना राजनीतिक संबल बनाया । कालखंड के इस हिस्से तक भारत की राजनीति समाजवादी और वामपंथी ख़ेमों में बंट चुकी थी और दोनों ही धड़े देश में अपने-अपने दुर्गों में मज़बूती से जमे हुए थे । यदि कॉंग्रेस देश के अधिकांश हिस्सों में छाई हुई थी तो वामपंथ पश्चिम बंगाल में अजेय होने के साथ त्रिपुरा और केरल में भी मुख्य भूमिका में था ।
आर्यावर्त धर्म के आधार पर पहले ही विभाजित हो चुका था पर अब धर्म के अलावा जाति, भाषा, क्षेत्र और नस्ल के नाम पर पूरा देश एकता में अनेकता का मॉडल बना हुआ था । ये विभाजन-कारी रेखाएँ तत्कालीन सत्ता के संतुलन को पूरी तरह रास आ रही थीं । ऐसे में गांधीवादी समाजवाद को छोड कर जब भाजपा हिंदुत्व के नाम पर देश भर के बहुसंख्यकों को एक प्लैटफ़ॉर्म पर लाने का प्रयास करती है, तो कॉंग्रेस और वामपंथी दलों के अलावा तमाम उन क्षेत्रीय पार्टियों को भी अपने अस्तित्व पर संकट नज़र आने लगा जो बहुसंख्यक हिंदुओं के विभिन्न मापदंडों पर विभाजन का लाभ उठाते हुए जातीय, नस्ली और सांप्रदायिक प्लैटफ़ॉर्म बना कर अत्यंत सफल राजनीतिक दुकानें चला रहे थे । ऐसे में बहुसंख्यकों की नाराजगी के खतरे को भाँपते हुए इन तमाम दलों ने सीधे-सीधे मोर्चा न लेते हुए सावरकर को ब्रिटिश सरकार का एजेंट बताते हुए निशाना बनाया और इसके माध्यम से उनके द्वारा गढ़ी गयी “हिंदुत्व की अवधारणा” पर प्रहार किया ।
दिलचस्प बात है कि भाजपा को सत्ता में लाने वाले सावरकर ही आज बाक़ी राजनीतिक दलों के खेवनहार बने हैं और उन्हें खलनायक बना कर वो अपने अस्तित्व की लड़ाई लड रहे हैं । प्रयास है कि बहुसंख्यक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को सीधी चुनौती दिये बग़ैर सावरकर को ऐतिहासिक संदर्भ में गलत ठहरा कर हिंदुत्व के नाम पर राजनीति को अगर पूरी तरह न रोक सका जाये तो कम से कम विवादित ही कर दिया जाये । राजनीतिक प्रासंगिकता बचाये रखने की मजबूरी ने आज तमाम दलों को वैचारिक रूप से अपने ही संस्थापकों के विरूद्ध खडा कर दिया है । वीर सावरकर की विरासत तो सिर्फ़ एक माध्यम, एक बहाना बन गयी इस सियासी शतरंज के बोर्ड पर ।
– श्री. अनुपम मिश्रा, संपादक, प्रयागराज टाइम्स, प्रयागराज, उत्तरप्रदेश