साधको, ‘अनल संवत्सर’ अर्थात तीनों गुरुओं के प्रति ‘समर्पण’ एवं ‘शरणागति’ का वर्ष होने से इस अवधि में समर्पण भाव एवं शरणागत भाव बढाने के प्रयास करें !
‘अब आरंभ हुए अनल संवत्सर में गुरुभक्ति बढाने के लिए क्या प्रयास कर सकते हैं ?’, यह हम देखेंगे ।
१. गत ‘राक्षस’ संवत्सर में अनेक साधकों को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक एवं आध्यात्मिक समस्याओं का सामना करना पडा !
प.पू. भक्तराज महाराजजी का एक भजन है, ‘कालगति के आगे बुद्धि क्या कर सकती है ?’ इसका प्रत्यक्ष अनुभव ‘राक्षस’ संवत्सर में अनेक साधकों को हुआ । ‘गुरुदेव साक्षात श्रीमन्नारायण हैं’, यह ज्ञात होते हुए भी राक्षस संवत्सर में अनेक साधक माया की ओर आकर्षित हो गए । ‘राक्षस संवत्सर साधकों के लिए परीक्षा का ‘काल’ था’, ऐसा ही कहना पडेगा । कुछ साधकों की परिवारिक समस्याएं बढ जाने से उन्हें पूर्णकालीन सेवा छोडकर नौकरी करनी पडी, तो कुछ साधकों की घरेलु समस्याएं बढने से पूर्णकालीन सेवा छोडकर घर जाना पडा । किसी को आर्थिक अडचनें हुईं, तो किसी के शारीरिक कष्ट बढ गए । इन सब के साथ साधकों को मानसिक कष्ट, दुविधापर्ण मनःस्थिति एवं परिजनों के उपहास का सामना करना पडा । विवाह करने का विचार न होते हुए भी कुछ साधकों के मन में विवाह के विचार आने लगे । उनके मन में माया से संबंधित विचारों की संख्या बढ जाने से ‘माया’ प्रबल हो गई ।
२. कालगति के अनुसार युधिष्ठिर को द्युत खेलने की दुर्बुद्धि होना एवं तदनंतर आगे महाभारत का युद्ध होना
नारायण उपनिषद में कहा गया है, ‘कालश्च नारायणः ।’, अर्थात ‘काल ही श्रीमन्नारायण हैें ।’ श्रीकृष्ण अवतार होने के पूर्व ही श्रीमन्नारायण द्वापरयुग एवं कलियुग को बुलाते हैं एवं कहते हैं, ‘‘अब द्वापरयुग समाप्त होकर कलियुग आरंभ होने का समय आ गया है । इसलिए हे द्वापर, तुम मेरे श्रीकृष्ण अवतार के समय शकुनि के रूप में आना तथा हे कलि, तुम दुर्याेधन के रूप में आना ।’’ ‘श्रीकृष्ण भगवान हैं’, यह ज्ञात होते हुए भी पांडव द्युत खेलते समय सब कुछ भूल जाते हैं । वे शकुनि की ‘शाकुनी’ विद्या की बलि चढकर सबकुछ गंवा बैठते हैं । धर्म का अवतार होते हुए भी युधिष्ठिर को द्युत खेलने की एवं सबकुछ समर्पित कर देने की दुर्बुद्धि होती है । इस कारण अंत में उसे १२ वर्ष वनवास सहना पडता है । कलिपुरुष दुर्याेधन वनवास के उपरांत भी पांडवों को भूमि देने के लिए तैयार नहीं होता, इसलिए अंत में कौरव एवं पांडवों के मध्य महाभारत युद्ध होता है । महाभारत युद्ध होने के उपरांत श्रीकृष्ण अवतार समाप्त होता है तथा कलियुग आरंभ होता है ।
३. ‘कालातीत गुरुदेवजी के श्रीचरणों में रहना’, यही कालगति पर उपाय है
भगवान का अवतार कालातीत होता है; क्योंकि काल उनके अधीन होता है । कालगति का विरोध करना संभव नहीं है । कालगति का विरोध करने की अपेक्षा ‘कालातीत गुरुदेवजी के श्रीचरणों में शरण जाना’, यही कालगति का उपाय है । काल जड होता है । काल का परदा काले बादलों की भांति होता है । भगवान बादलों के ऊपर व्याप्त आकाश की भांति होते हैं । जिस प्रकार विमान में जाते समय बादल हट जाने के उपरांत आकाश से सृष्टि स्पष्ट रूप से देख सकते हैं, उसी प्रकार श्री गुरुदेवजी ‘काल’ को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । उन्हें परदा नहीं रहता । श्री गुरुदेव सर्वज्ञ हैं इसलिए उन्हें भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों कालों का ज्ञान है । हम सभी साधकों की साधना की नाव कालप्रवाह में फंस गई है । उस नाव को दिशा देनेवाले दीपस्तंभ श्री गुरुदेवजी हैं ! इस विश्व में करोडों जीवों को ‘गुरुदेव’ कौन हैं ? उनकी महिमा क्या है ? वे क्या करते हैं ?’, यह भी ज्ञात नहीं होता । ऐसा होते हुए भी हम साधक भाग्यशाली हैं कि हमें सनातन के तीन गुरु (सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी, श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळजी एवं श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी) मिले हैं । पांडव द्युत में पराजित हो गए; परंतु श्रीकृष्ण पर उनकी अनंत निष्ठा थी । अंत तक उन्होंने श्रीकृष्ण के श्रीचरणों का त्याग नहीं किया; इसलिए वे कठिन काल पर भी विजय प्राप्त कर पाए । हमारा तो अहोभाग्य है कि साक्षात श्रीमन्नारायण गुरुदेवजी के रूप में पधारे हैं; इसीलिए कालगति का एकमात्र उपाय है, कालातीत गुरुदेवजी के श्रीचरण दृढता से पकडकर रखना ।
४. आगामी ‘अनल संवत्सर’ ‘समर्पण’ एवं ‘शरणागति’ का वर्ष है !
गत वर्ष में ‘श्रद्धा’ एवं ‘धैर्य’, ये साधना के थे । यह मंत्र हम सभी को आगामी संवत्सर में भी लागू होगा; परंतु ‘अनल संवत्सर’ सभी साधकों के लिए ‘समर्पण’ एवं ‘शरणागति’ का वर्ष है । जिस कार्य के लिए भगवान हमें पृथ्वी पर लेकर आए तथा सनातन के तीन गुरुओं का सान्निध्य हमें मिला, वह कार्य अर्थात ‘हिन्दू राष्ट्र की स्थापना !’ सनातन के तीन गुरुओं के ‘धर्मसंस्थापना’ कार्य के लिए सभी साधकों ने अपना जीवन समर्पित किया है । ‘वह समर्पण बनाए रखना एवं सनातन के तीनों गुरुओं की शरण जाना’, इतना ही हमें करना है । प.पू. भक्तराज महाराजजी सदैव कहते थे, ‘‘मेरे पास जो आता है, उसने पिछले जीवन में क्या किया है ?, यह मैं नहीं देखता । ‘उसके द्वारा आगे क्या करवाना है ?’, केवल यही देखता हूं ।’ अर्थात श्री गुरुदेवजी साधक के भूतकाल की ओर नहीं, अपितु केवल उसके भविष्य का ही विचार करते हैं एवं उससे साधना करवाते हैं ।
५. सनातन के तीनों गुरुओं के श्रीचरणों में प्रार्थना !
सनातन के तीनों गुरु, अर्थात सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी, श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा सिंगबाळजी एवं श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी के श्रीचरणों में प्रार्थना है, ‘हम सभी साधकों को कठिन कालप्रवाह में साधना का मार्ग दिखाएं । गुरुकृपा अखंड रहने के लिए हमारे द्वारा अखंड सेवा करवाएं । ‘तीन गुरुओं की सेवा’ ही हमारे श्वास हों । ‘तीन गुरुओं के प्रति समर्पण’ ही हमारा नित्य-जीवन हो । हम सभी साधक सनातन के तीनों गुरुओं के श्रीचरणों में शरण आए हैं । ‘हमें आपके श्रीचरणों में स्थान दें’, ऐसी आपसे प्रार्थना है ।’
– श्री. विनायक शानभाग (आध्यात्मिक स्तर ६७ प्रतिशत), देहली (१२.३.२०२३)