‘विटामिन डी’ अल्प हो, तो औषधि लेने के साथ और क्या करें ?

वैद्य समीर मुकुंद परांजपे

‘आजकल अनेक रोगियों के शरीर में ‘विटामिन डी’ अल्प मात्रा में पाया जाता है । आधुनिक शास्त्र के अनुसार उसे बढाने के लिए कृत्रिम रीति से बनाई गोली सप्ताह में एक बार खाने के लिए दी जाती है । ‘विटामिन डी’ की गोलियां लेने पर रक्त में भले ही उससे विटामिन डी की मात्रा बढ जाती हो, तब भी अनेक बार प्रत्यक्ष शारीरिक स्तर पर उसका लाभ होता दिखाई नहीं देता । शारीरिक घटकों में औषधि का रूपांतरण (कनवर्जन) होने के लिए सूर्यप्रकाश की आवश्यकता होती ही है !

इसके लिए सरल प्राकृतिक उपाय है सवेरे की कच्ची धूप में जितना संभव हो, शरीर का उतना भाग खुला रखकर लगभग ३०-४५ मिनट बैठें । अनेक लोगों के लिए सवेरे के समय व्यस्तता होने से इतने समय तक धूप में बैठना संभव नहीं हो पाता; परंतु यह समय निकालना ‘अपने स्वास्थ्य के लिए की गई एक प्रकार की पूंजी निवेश (investment) है, जो काल की आवश्यकता है’ जो निश्चित रूप से फलदायी होती है ।

‘स्वास्थ्य सूर्यदेवता से प्राप्त होता है’, ऐसा सुवचन सर्वश्रुत है । इसलिए प्रतिकारशक्ति, बुद्धि, स्मृति एवं ऊर्जा प्राप्त होने हेतु त्वचा पर सूर्य की किरणें लेना आवश्यक है । सहस्रों वर्ष पूर्व आयुर्वेद में इसका उल्लेख किया गया है । अब आधुनिक शोध की भाषा में हम इसे ‘विटामिन डी’ कहते हैं ।

इसलिए हमारा सुझाव है कि सप्ताह में न्यूनतम एक अथवा दो बार, छुट्टी के दिन, जब भी अवसर मिले, तब यथासंभव उतने समय तक सूर्यप्रकाश में बैठकर प्राकृतिक रूप से वह ‘विटामिन डी’ लें । इससे हड्डियां एवं स्नायुओं को बल एवं ऊर्जा मिलती है । इस प्रकार शरीर को उत्साहित रखने के लिए प्रयत्न करें एवं स्वास्थ्य का ध्यान रखें ।’ (४.१.२०२३)

– वैद्य समीर मुकुंद परांजपे, खेर्डी, दापोली, रत्नागिरी. (ई-मेल : drsameerparanjape@gmail.com)


शौचालय में चप्पलों का उपयोग करना अत्यावश्यक क्यों है ?

‘जंतु अर्थात कृमि होने के अनेक कारण हैं । बाजार में अनेक उत्पाद कृमियों की वृद्धि होने हेतु पूरक होते हैं । इनकी चिकित्सा के लिए भी अनेक औषधियां बारंबार ली जाती हैं । तब भी उनका यह कष्ट अल्प नहीं होता, यह देखने में आता है । इसमें आहार-विहार से संबंधित कारणों को ढूंढकर उन्हें बंद कर सकते हैं; परंतु दैनिक कृत्यों के कारणों में से एक उपेक्षित कारण है शौचालय में चप्पलों का उपयोग न करना ।

गांवों में पर्याप्त स्थान उपलब्ध होने से शौचालय घर के बाहर होते थे । उसकी तुलना में शहर में स्थान की उपलब्धता अल्प होने से घर अथवा सदनिका (फ्लैट) में ही शौचालय होता है । एक तो शहर की यह रचना अनुचित है । उसमें भी अधिक अनुचित है शौचालय में बिना चप्पलें पहने जाना तथा बाहर आकर आने पर पैर स्वच्छ न धोना ।

शौचालय की कितनी भी स्वच्छता करें, उसमें कृमियों के अंडे होते ही हैं । हमारे पैर, तलवे अर्थात पैर की उंगलियों की त्वचा कोमल होती है । उस त्वचा से सूक्ष्म कृमि शरीर के रक्त में प्रवेश कर जाते हैं । रक्त एवं शरीर के अन्य द्रव्यों के प्रवाह सहित ये सभी कृमि पूरे शरीर में संचार करते हैं । हृदय, फेफडे यहां तक कि मस्तिष्क तक पहुंच जाते हैं । अंत में वे अंतडियों में आश्रय लेते हैं; क्योंकि वहां उन्हें उनका खाद्य सहजता से मिलता है । वहां रहकर वे रक्त पीने का कार्य करते हैं । इसलिए वह व्यक्ति कितना भी अन्न खाए, तब भी शरीर में रक्ताल्पता एवं अन्न शरीर को न लगना, थकान आना, पित्त के विकार, अपचन, मितली आना, उलटियां, दस्त, अधोवात होना (गुदाद्वार द्वारा वायु बाहर निकलना), खांसी, दमा, शरीर को खुजली आना, मानस विकार जैसे कृमियों के लक्षणों की बहुत बडी सूची है ।

ये सभी कष्ट टालने के लिए कृमि होने के कारणों में एक दुर्लक्षित कारण टालें, अर्थात शौचालय में चप्पलों का उपयोग अवश्य करें तथा प्रत्येक बार पैरों की स्वच्छता उचित ढंग से करें । इससे शरीर में कृमि के प्रवेश का एक मार्ग हम निश्चित रूप बंद कर निरोगी रह सकेंगे !’

– वैद्य समीर मुकुंद परांजपे, खेर्डी, दापोली, रत्नागिरी. (५.१.२०२३)
(संपर्क के लिए ई-मेल : drsameerparanjape@gmail.com)