भोजन-पूर्व आचारों का अध्यात्मशास्त्रीय आधार
१. ‘वैश्वदेव’ करना
अ. अज्ञानवश होनेवाली हिंसाका परिमार्जन करने के लिए ‘वैश्वदेव’ आवश्यक : झाडू लगाते समय हमारे हाथों से अनेक प्रकार के कृमि-कीटक मरते हैं । भोजन बनाने के लिए चूल्हा जलाते समय भी इसी प्रकार की हिंसा होती है । इस प्रकार अज्ञानवश होनेवाली दैनिक स्थूल एवं सूक्ष्म जीवहत्याओं का प्रायश्चित गृहस्थ के लिए प्रतिदिन करना आवश्यक है । मूसल, चक्की तथा सिल-बट्टा, चूल्हा, गागर एवं झाडू के प्रयोग के कारण अज्ञानवश होनेवाली हिंसा का परिमार्जन करने के लिए ‘वैश्वदेव’ किया जाता है ।
आ. ‘वैश्वदेव’ द्वारा संस्कारित शुद्ध अन्न, सर्व दृष्टि से हितकारी
१. ‘वैश्वदेव’द्वारा दोषरहित शुद्ध अन्न शरीर एवं मन विशुद्ध रखने के लिए अपरिहार्य है; इसलिए अन्न ‘वैश्वदेव’द्वारा संस्कारित कर ही सेवन करें ।
२. ‘धर्मशास्त्रीय विधि से बना भोजन विधिपूर्वक ही सेवन करें । उस अन्न से आरोग्य, बल, शान्ति, स्वास्थ्य एवं सद्बुद्धि प्राप्त होती है । वही भोजन हितकारी है । ऐसे पवित्र अन्न से ही मनुष्य को ओज, तेज, बल, सन्तोष, पुष्टि, प्रतिभा एवं स्वास्थ्य प्राप्त होता है ।’
– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी
२. देवता को अन्न का नैवेद्य चढाना
अ. मनुष्य ईश्वरीय शक्ति एवं ज्ञान के आधार पर ही, अर्थात ईश्वर की कृपा से ही सर्व कर सकता है । ‘कर्ता-करावनहार ईश्वर ही हैं । उनके बिना मैं कुछ नहीं कर सकता । उनकी कृपा से ही यह अन्न मिला है । अतः जो भी मिला है, उसे ईश्वर को प्रथम अर्पित करूंगा’, इस कृतज्ञ भाव से देवता को भोजन-पूर्व नैवेद्य चढाया जाता है ।
आ. देवता को भोग लगाने के उपरान्त उस अन्न को देवता का प्रसाद मानकर ग्रहण करने से उस अन्न से देवता के तत्त्व एवं चैतन्य का लाभ होता है ।
३. भोजन करने हेतु बैठने का स्थान
अ. भोजनकक्ष में भोजन करने से लाभ एवं अन्यत्र भोजन करने से हानि : ‘पूर्वकाल में स्त्रियां भोजन बनाते समय अन्यों को वहीं गरम-गरम भोजन परोसती थीं । सभी अग्नि के समीप, एक प्रकार से शुद्ध वायुमण्डल में भोजन करते थे । इस कारण भोजन की क्रिया में होनेवाला अनिष्ट शक्तियों का हस्तक्षेप भी टल जाता था । परंतु वर्तमान में भोजन करने एवं बनाने का स्थान पृथक-पृथक होने से भोजन के माध्यम से अनिष्ट शक्तियों की पीडा भी बढ गई है तथा अब पहले जैसा प्रदीप्त सात्त्विक अग्निरूपी वायुमंडल भी लुप्त हो गया है । (आजकल चूल्हे के स्थान पर गैस का उपयोग किया जाता है ।) इस कारण कलियुग के मानव को जीवन में गंभीर रूप की रज-तमात्मक समस्याओं का सामना करना पड रहा है ।’
– एक विद्वान (श्रीमती अंजली मुकुल गाडगीळजी के माध्यम से, २९.१०.२००७, सवेरे ९.४६)
४. भोजन के लिए बैठने की दिशा
अ. पूर्व दिशा की ओर मुख कर अन्न ग्रहण करें ।
प्राङ्मुखोऽन्नानि भुञ्जीत्तोच्चरेद्दक्षिणामुख: ।
उदङ्मुखो मूत्रं कुर्यात्प्रत्यक्पादावनेजनमिति ।।
– आपस्तम्बधर्मसूत्र, प्रश्न १, पटल ११, काण्डिका ३१, सूत्र १
अर्थ : पूर्व दिशा में मुख कर अन्न ग्रहण करें, दक्षिण दिशा में मुख कर मलविसर्जन, उत्तर दिशा में मुख कर मूत्रविसर्जन एवं पश्चिम दिशा में मुख कर पैर धोएं ।
संदर्भ – सनातन का ग्रंथ ‘भोजन-पूर्वके आचार’