हिन्दू संस्कृति में आचारों का अत्यधिक महत्त्व है !

१. आचरण, आचार एवं आचार धर्म, इन संज्ञाओं के अर्थ

१ अ. आचरण (ऋषि-मुनियों द्वारा जीवनकी प्रत्येक क्रिया को दिया गया उचित दिशादर्शन अर्थात आचरण) : ‘जीवन का प्रत्येक कृत्य एक आचरण है । आचरण अर्थात वह जो ईश्वर के चरणों तक पहुंचाने में सहायक है । एक बार देह में साधना का बीज अंकुरित हो जाए, तो जीव धर्मनियमों के अनुरूप सुसंगत जीवन व्यतीत करना सीखता है, यही ‘आचरण’ है । प्राचीनकाल से ही हिन्दू धर्म में ऋषि-मुनियों की सहायता से जीवन की प्रत्येक क्रिया को उचित दिशा में मोडकर एक प्रकार से उसे सत्त्वगुणी रूप दिया गया है । इसी को ‘आचरण’ कहते हैं ।’

– एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी के माध्यम से, २९.१०.२००७, सवेरे ९.४६)

१ आ. आचार

१ आ १. आचरण हेतु प्रेरित करनेवाला विचार ही ‘आचार’: ‘प्रातः नींद से जागने से लेकर रात को सोने तक प्रत्येक कृत्य (आचरण) कैसा हो, इसकी एक मूलभूत एवं चैतन्य निर्मिति के बल पर रखी गई नींव, हिन्दुओं की आदर्श आध्यात्मिक जीवन जीने की उत्कृष्ट शैली दर्शानेवाला सक्रिय सिद्धान्त है । इसी सिद्धान्त को ‘आचार’ कहा गया है ।

१ इ. आचारधर्म

१ इ १. ‘आचारधर्म अर्थात कर्मबन्धनयोग । इसी को ‘कर्मयोग’ कहते हैं ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी के माध्यम से,२२.१०.२००७, रात्रि ८.३३)

विवरण : ‘कर्मयोग’ अर्थात ‘कर्म के माध्यम से ईश्वरप्राप्ति का मार्ग ।’ कायिक, वाचिक अथवा मानसिक, इसमें से प्रत्येक आचार, कर्म ही है तथा उस आचार के पालन से व्यक्ति की यात्रा ईश्वरप्राप्ति की दिशा में होती है । इसी अर्थ से आचारधर्म को ‘कर्मयोग’ कहा गया है ।

१ इ २. ‘जब ईश्वर के चरणों तक पहुंचनेके लिए आन्तरिक लगन से आचरण होने लगता है, तभी वह ‘आचारधर्म’ बन जाता है ।’

– एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी के माध्यम से, २९.१०.२००७, सवेरे ९.४६)

२. आचार का महत्त्व

२ अ. आचार ही धर्म की नींव है !

धर्म आचार से उत्पन्न हुआ है तथा उस धर्म के प्रभु पुराणपुरुष अच्युत, अर्थात श्रीविष्णु हैं ।’

संदर्भ – सनातन का ग्रंथ ‘आचारधर्मकी प्रस्तावना’


आचारधर्म का पालन करने के लाभ

१. शुद्धि (शौच, शुचिता)

मनुस्मृति के अनुसार (५.१०५) यज्ञपूजादि कर्म, सूर्यदर्शन, मिट्टी, जल छिडकना, जल, अग्नि, तप, ज्ञान, मन, वायु तथा काल (कालावधि), ये सर्व साधन मनुष्य को शुद्ध करते हैं । आचारधर्म का पालन करने से मनुष्य की विविध प्रकार से और विविध स्तरों पर शुद्धि कैसे होती है, यह आगे दिया है –

१ अ. शरीर शुद्धि

१ अ १. स्नान से बाह्य शरीर शुद्धि होना : प्रतिदिन के स्नान से शरीर शुद्धि होती ही है, साथ ही रजस्वला स्त्री का स्पर्श, जननाशौच, मृताशौच, प्रेतस्पर्श, चाण्डाल स्पर्श, ऐसे संसर्ग हों, तो उनके परिणामों को दूर करने हेतु भी शास्त्र में सचैल (वस्त्रसहित) स्नान बताया गया है । (शरीर शुद्धि हेतु गोेमूत्र, गोमय, मिट्टी, राख, चावल, बेलफल आदि का भी उपयोग किया जाता है ।)

१ अ २. आचमन से अंतर्शुद्धि होना : ‘आचमन से केवल स्वयं की ही शुद्धि नहीं होती, अपितु अखिल विश्व तृप्त होता है ।

अ. लघुशंका, शौच, स्नान एवं भोजन के उपरांत आचमन करें ।

आ. अधोवायु निकलना, झूठ बोलना, क्रोध अथवा आक्रोश करने जैसे कृत्यों से देह अशुद्ध होती है; आचमन करने से ये दोष नष्ट हो जाते हैं ।’

– गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

१ अ ३. कुछ कृत्यों के उपरांत दाहिने कान को स्पर्श करने से शुद्धि होना

संदर्भ – सनातन का ग्रंथ ‘आचारधर्मकी प्रस्तावना’