व्यक्ति के चेहरे के परिवर्तित हावभाव के अनुसार उसके द्वारा प्रक्षेपित स्पंदनों में भी परिवर्तन आना
‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ ने ‘यू.ए.एस. (यूनिवर्सल औरा स्कैनर)’ उपकरण द्वारा किया वैज्ञानिक परीक्षण
‘व्यक्ति में समाहित स्पंदन मूलरूप से उसके आध्यात्मिक स्तर, उसे आध्यात्मिक पीडा होना अथवा न होना, उसकी साधना इत्यादि अनेक घटकों पर निर्भर होते हैं । व्यक्ति का चेहरा, विशेषतः उसकी आंखों के भाव मानो उसके मन के दर्पण होते हैं । उसके मन के विचारों का प्रतिबिंब उसके चेहरे पर दिखनेवाले हावभाव के रूप में स्पष्टता से दिखाई देता है । उदा. व्यक्ति को क्रोध आने पर उसका चेहरा क्रोधित दिखाई देता है, साथ ही उसकी आंखों से उसके मन का क्रोध व्यक्त होता है । इसके विपरीत व्यक्ति आनंदित हो, तो उसका चेहरा आनंदित दिखाई देता है तथा उसकी आंखों से आनंद व्यक्त होता है ।
‘व्यक्ति के चेहरे के हावभाव में परिवर्तन आने से उसके द्वारा प्रक्षेपित स्पंदनों में कौन से परिवर्तन आते हैं ?’, इसका अध्ययन करने के लिए ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ ने ‘यू.ए.एस. (यूनिवर्सल औरा स्कैनर)’ उपकरण की सहायता से एक परीक्षण किया । इस परीक्षण में प्राप्त निरीक्षणों का विवेचन आगे दिया गया है ।
१. परीक्षण में किए गए निरीक्षणों का विवेचन
इस प्रयोग में आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त २ साधिकाओं तथा आध्यात्मिक पीडारहित २ साधिकाओं के आनंदित हावभाव सहित तथा आनंदित हावभाव रहित छायाचित्र खींचकर ‘यू.ए.एस.’ उपकरण द्वारा उनका परीक्षण किया गया ।
१ अ. आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त तथा आध्यात्मिक पीडा रहित साधिकाओं के आनंदित हावभाव से युक्त छायाचित्रों से अधिक मात्रा में सकारात्मक स्पंदन प्रक्षेपित होना : इन चारों साधिकाओं के आनंदित हावभाव रहित छायाचित्रों में अल्प मात्रा में सकारात्मक ऊर्जा तथा अधिक मात्रा में नकारात्मक ऊर्जा दिखाई दी । इसके विपरीत उनके आनंदित हावभाव युक्त छायाचित्रों में अल्प मात्रा में नकारात्मक ऊर्जा तथा अधिक मात्रा में सकारात्मक ऊर्जा दिखाई दी । निम्न सारणी से यह ध्यान में आता है –
टिप्पणी – परीक्षण के स्थान पर जगह पर्याप्त न होने से २३.५० मीटर के आगे का सटीक प्रभामंडल नापा नहीं जा सका ।
२. परीक्षण में किए गए निरीक्षणों का अध्यात्मशास्त्रीय विश्लेषण
२ अ. व्यक्ति के मन की स्थिति में परिवर्तन आने पर उसके चेहरे के हावभाव में अपनेआप परिवर्तन आना : व्यक्ति को उसके नित्य जीवन में प्रतिदिन विविध प्रसंगों अथवा परिस्थितियों का सामना करना पडता है । कुछ कठिन प्रसंगों में स्थिर रहना संभव न होने से वह दुःखी अथवा उदास हो जाता है । इसके विपरीत कुछ सुखदायक प्रसंग होने पर वह आनंदित होता है । संक्षेप में कहा जाए, तो जैसे ही उसके मन की स्थिति में परिवर्तन आता है, वैसे ही उसके चेहरे के हावभाव में भी अपनेआप परिवर्तन आता है । उसके परिवर्तित हावभाव के अनुसार उसकी ओर से वातावरण में उसी प्रकार के स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं । उसकी ओर से प्रक्षेपित अच्छे अथवा कष्टदायक स्पंदनों का परिणाम उसके आस-पास भी होता है, उदा. किसी दुःखी अथवा उदास व्यक्ति की ओर देखने पर हमारे मन को अच्छा नहीं लगता; परंतु उसके विपरीत उत्साहित अथवा आनंदित व्यक्ति की ओर देखने पर हमें अच्छा लगता है ।
२ आ. निरंतर आनंदित रहने का महत्त्व समझ लें ! : व्यक्ति के छायाचित्र से उसके स्पंदन प्रक्षेपित होते हैं । हम सदैव यह अनुभव करते हैं कि कैमरे से (छायाचित्रक से) छायाचित्र खींचनेवाला व्यक्ति हमारा छायाचित्र खींचने से पूर्व ‘स्माइल प्लीज’ अर्थात ‘कृपया मुस्कुराइए’ कहता है । जब हम अच्छी मुस्कुराहट देते हैं, तब वह तुरंत ही हमारा मुस्कुराता हुआ छायाचित्र खींच लेता हैै । अपने मुस्कुराते छायाचित्र की ओर देखकर हमें स्वयं को, साथ ही वह छायाचित्र देखनेवाले व्यक्ति को भी आनंद होता है । इस परीक्षण में सम्मिलित साधिका के आनंदित हावभाव रहित छायाचित्र की तुलना में उनके आनंदित हावभाव से युक्त छायाचित्र में सकारात्मक ऊर्जा का स्तर बहुत अधिक, जबकि नकारात्मक ऊर्जा का स्तर बहुत अल्प है । इससे केवल मुस्कुराने की मुद्रा रखने से व्यक्ति पर आया हुआ कष्टदायक स्पंदनों का आवरण न्यून होकर उसकी सात्त्विकता बढती है । सोचिए, जीवन में यदि सचमुच का आनंद मिले, तो उससे कितना लाभ मिलता होगा !’
– श्रीमती मधुरा धनंजय कर्वे, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (९.१.२०२३)
ई-मेल : mav.research2014@gmail.com
आनंद मिले, यह इच्छा क्यों होती है ?‘आनंदाचे कोटी । साठविल्या आम्हा पोटी ।’ भावार्थ : आनंद हमारे भीतर ही संग्रहित होता है । साधना करने पर हमें आनंद की अनुभूति होती है । शरीररूपी डोह में आनंद की तरंगें आती हैं । संपूर्ण शरीर में आनंद ही आनंद प्रतीत होता है । स्वयं में समाहित आनंद की अनुभूति आने पर चराचर में व्याप्त आनंद की अनुभूति होती है । आनंद जीव का एवं विश्व का स्थायी भाव, स्वभाव एवं स्वधर्म है; इसलिए किसी भी जीव की स्वाभाविक प्रवृत्ति उसके मूल स्वरूप की ओर जाने की अर्थात आनंद प्राप्त करने की तथा मूल स्वरूप में आने पर उस आनंद की अनुभूति को बनाए रखने की ओर होती है । (संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘आनन्दप्राप्ति हेतु अध्यात्म (सुख, दुःख एवं आनंद का अध्यात्मशास्त्रीय विश्लेषण)’ |
बुरी शक्ति : वातावरण में अच्छी तथा बुरी (अनिष्ट) शक्तियां कार्यरत रहती हैं । अच्छे कार्य में अच्छी शक्तियां मानव की सहायता करती हैं, जबकि अनिष्ट शक्तियां मानव को कष्ट देती हैं । प्राचीन काल में ऋषि-मुनियों के यज्ञों में राक्षसों ने विघ्न डाले, ऐसी अनेक कथाएं वेद-पुराणों में हैं । ‘अथर्ववेद में अनेक स्थानों पर अनिष्ट शक्तियां, उदा. असुर, राक्षस, पिशाच को प्रतिबंधित करने हेतु मंत्र दिए हैं ।’ अनिष्ट शक्ति के कष्ट के निवारणार्थ विविध आध्यात्मिक उपचार वेद आदि धर्मग्रंथों में वर्णित हैं । |