‘स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन की प्रक्रिया, अर्थात साधकों की आध्यात्मिक उन्नति के लिए भगवान द्वारा दी गई संजीवनी है’, इसे अनुभव करनेवाली ६३ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर की श्रीमती अनुराधा निकम (वय ६४ वर्ष)!
‘अपने चित्त पर योग्य संस्कार कर अपनी व्यष्टि एवं समष्टि साधना चैतन्य के स्तर पर करनेवाले चैतन्य का स्रोत, अर्थात स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया ! यह प्रक्रिया करने पर स्वभावदोष एवं अहं का अभेद्य कवच तोडकर सद़्गुण एवं चैतन्य का स्रोत बहने लगता है और आनंदोत्सव का प्रारंभ होता है !
प्रारंभ में ‘हम जो भी करते हैं, वह हमें उचित ही लगता है’, यह हम स्वयं ही निर्धारित करते हैं । स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया आरंभ होने पर प्रथम बार ‘वे कृत्य एवं उसके पीछे की विचारप्रक्रिया कैसे ऊपरी-ऊपर (अयोग्य) है ?’, यह हमें ध्यान में आता है । हमारे द्वारा की हुई प्रत्येक कृति एवं उसके पीछे की विचारप्रक्रिया ईश्वर को अपेक्षित होने हेतु व्यष्टि साधना के ब्योरे होते हैं और हमारी आनंदयात्रा आरंभ होती है । भगवान की कृपा से ध्यान में आए उसके चरण कृतज्ञतापुष्प के रूप मैं उनके श्रीचरणों में अर्पण कर रही हूं ।
भाग १
१. स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया आरंभ करने पर ध्यान में आए चरण
१ अ. आरंभ में चूकें ध्यान में न आना एवं ध्यान में आने पर उसके लिए परिस्थिति अथवा अन्यों को उत्तरदायी ठहराना
१. आरंभ में हमें स्वयं से हुई चूकें ध्यान में नहीं आतीं ।
२. चूकें ध्यान में आना आरंभ होने के पश्चात भी उसके लिए ‘परिस्थिति अथवा अन्य व्यक्ति उत्तरदायी हैं’, ऐसा हम कहते हैं ।
३. हम स्वयं से हुई चूकों के लिए अपनी विचारप्रक्रिया पर अडे रहते हैं, ऐसा ध्यान में आया है ।
१ आ. अंतर्मन का चिंतन एवं मन का संघर्ष
१. कुछ ब्योरों के पश्चात अपने मन का बहिर्मुखता से अंतर्मन की ओर प्रवास होने से कृति एवं विचारों के स्तर पर अंतर्मन में चिंतन आरंभ होता है ।
२. हममें सुनने की वृत्ति निर्माण होने लगती है; परंतु स्वीकारने की स्थिति की ओर जाते समय हमारे मन में प्रचंड संघर्ष शुरू होता है ।
१ इ. चूकों का खेद होकर प्रार्थना होना : तदुपरांत हमें अपनी स्थिति के विषय में तीव्र खेद होने लगता है जिसके लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं । परिणामस्वरूप अश्रु का मार्ग खुल जाता है ।
१ इ १. भगवान से आर्तता से होनेवाली प्रार्थना !
अ. ‘हे भगवन, ‘आपसे दूर ले जानेवाले स्वभावदोष एवं अहं का निर्मूलन कैसे करना है ?’, वह आप ही देखें ।
आ. स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन के लिए प्रयत्न होने हेतु आप ही हमारी लगन बढाएं और मुझसे आपको अपेक्षित कृति होने दें ।
इ. हे भगवन ! मेरा तन, मन, धन, चित्त, बुद्धि, अहं एवं प्राण चैतन्य से युक्त कर आप ही आपके चरणों में अर्पण करवा लें ।
ई. ‘मेरी श्वास एवं उच्छवास आप ही हैं’, इसका भान मुझे सतत रहने दें ।
उ. मैं सर्वस्व आपकी होते हुए भी ‘मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा यह, मेरा वह’, ऐसा कहती हूं’, इसके लिए आप मुझे क्षमा करें । ‘अनंत कोटि ब्रह्मांड आपके हैं । उसी का अंश मैं भी आपकी ही हूं’, इसका भान मुझे सदैव रहने दें ।’
१ ई. स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन की प्रक्रिया खरे अर्थ में आरंभ होकर आनंद अनुभव करना
१. व्यष्टि साधना के ब्योरे में प्रसंग प्रमाणिकता (ईमानदारी) से बताना आरंभ होता है ।
२. एक-एक प्रसंग में हमें अपने स्वभावदोषों के अनेक पहलू ध्यान में आने लगते हैं ।
३. हममें ‘मुझे बदलना है’, ऐसी तीव्र इच्छा निर्माण होती है और अपने प्रयत्न अंतर्मन से होकर प्रक्रिया को गति मिलती है ।
४. पूर्व में केवल ब्योरे में बताने के लिए किए जानेवाले प्रयत्न अब ‘मुझे भगवान के चरणों में समर्पित होना है’, इस भाव से होने लगते हैं और अपने भाववृद्धि के प्रयत्नों को वेग आता है ।
५. ‘समष्टि में अपनी चूकें बताना और पूछना, क्षमायाचना करना, फलक पर चूकें लिखना, उन पर प्रायश्चित लेना एवं मन का ब्योरा लेना’, इसमें निरंतरता रहने लगती है ।
६. ‘प्रायश्चित न लेने पर प्रायश्चित एवं गलती करने पर प्रायश्चित’, ऐसे दुहरे प्रायश्चित लेना सीखते हैं ।
७. ‘प्रायश्चित लेते समय अपने स्वभावदोष एवं अहं के निर्मूलन हेतु प्रयत्न हो रहे हैं क्या ?’, इस पर हमारा ध्यान रहता है ।
८. अपने मन को ‘ध्येय का भान, लगन, खेद लगना’, इसमें वृद्धि होती है । इससे हम स्वभावदोष-निर्मूलन प्रक्रिया के प्रयत्न सतत सीखने की स्थिति में रहते हैं और इसलिए प्रत्यक्ष कृति करते समय उसे भाव की जोड देने लगते हैं ।
९. तदुपरांत हम भगवान को अपेक्षित ‘परप्रकाश से स्वयंप्रकाश की ओर’ जाने का आनंद अनुभव करते हैं ।’ (क्रमशः)
– श्रीमती अनुराधा हरिश्चंद्र निकम, फोंडा, गोवा. (३०.५.२०१९)
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