समाज मन पर हिन्दू धर्म, भारतीय संस्कृति एवं साधना का महत्त्व अंकित कर उसे कार्यप्रवीण बनानेवाले स्वामी विवेकानंदजी !
स्वामी विवेकानंदजी के समाज के लिए हिन्दू धर्म, भारतीय संस्कृति एवं साधना से संबंधित कुछ उद्बोधक अमूल्य विचार यहां दे रहे हैं ।
१. धर्म एवं साधना के विषय में मार्गदर्शन
१ अ. धर्म हिन्दू जाति के जीवन की रीढ है तथा यदि वह टूट गई, तो हिन्दुओं का संपूर्ण एवं सर्वांगीण विध्वंस अटल है ! : आप यदि धर्म छोडकर जड को सर्वस्व माननेवाली पश्चिमी सभ्यता के पीछे दौडेंगे, तो आप तीन पीढियों में ही नष्ट हो जाएंगे । हिन्दुओं ने धर्म छोड दिया, तो हिन्दुओं के जीवन की रीढ ही टूट जाएगी, इसे आप समझ लें । जिस नींव पर इस धर्म का सुविशाल प्रासाद खडा किया गया है, वह भग्न हो गया, ऐसा समझें । इसका परिणाम सुनिश्चित है तथा वह है ‘सर्वांगीण विध्वंस !’
१ आ. ‘ब्रह्मस्वरूप को जानकर तद्रूप बन जाना’ (प्रत्यक्षानुभूति) का अर्थ धर्म है ! : धर्म केवल सिद्धांत में, मतमतांतरण में अथवा बौद्धिक वादविवाद में नहीं है । हम ब्रह्मस्वरूप हैं, यह जानकर तद्रूप बन जाना धर्म है ! धर्म का अर्थ प्रत्यक्षानुभूति है !
१ इ. ईश्वर का साक्षात्कार होने के लिए साधना ही करनी होगी ! : ‘अन्न, अन्न’ इन शब्दों की रट लगाने में तथा प्रत्यक्ष भोजन करने में बहुत बडा अंतर होता है । उसी प्रकार केवल ‘ईश्वर, ईश्वर’ की रट लगाने से हमें ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकेगा, उसके लिए हमें प्रत्यक्ष प्रयास अर्थात ‘साधना’ ही करनी होगी ।
२. भारतीय ग्रंथों का दृढतापूर्वक अध्ययन एवं अनुशीलन करना आवश्यक
अनेक लोगों की दृष्टि को भारतीय विचार, प्रथाएं, आचार-व्यवहार, तत्त्वज्ञान एवं साहित्य प्रथम अनुभव से चमत्कारिक लगते हैं; परंतु वहीं न रुककर भारतीय लोग यदि दृढतापूर्वक अध्ययन करेंगे तथा मन से भारतीय ग्रंथों का अनुशीलन करेंगे, तो आपको दिखाई देगा कि उनमें से ९९ प्रतिशत भारतीय विचारों का सौंदर्य एवं भाव के कारण मुग्ध हो गए ।
शेष जीवन समाधि अवस्था में व्यतीत करने के विचारों से श्री रामकृष्ण परमहंसजी के द्वारा विवेकानंदजी को परावृत्त करनास्वामी विवेकानंदजी ने युवावस्था में निर्विकल्प समाधि का अनुभव किया था । उनके गुरु श्री रामकृष्णजी की परमकृपा से ही यह संभव हो पाया । ‘अब अपना शेष जीवन इस समाधि अवस्था में ही व्यतीत करूं’, ऐसा उन्हें लग रहा था; परंतु उनके गुरु ने उन्हें इन विचारों से परावृत्त किया; क्योंकि वेदों के महान संदेशों का भान करा देने का मानवकार्य उन्हें अभी करना था । इसलिए विवेकानंदजी को ध्यान एवं समाधि में मग्न रहकर अपना भविष्य बनाने का विचार हटाना पडा । |
३. भारत के पास आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचंड भंडार है; इसलिए भारतीयों को अब विश्व को अध्यात्म सिखाना होगा !
आपको अंग्रेज एवं अमेरिकन लोगों की बराबरी तक आना हो, तो उनसे सीखने के साथ ही आपको उन्हें भी सिखाना होगा । आपके पास आनेवाली अनेक शताब्दियों तक विश्व को दे पाएं, इतने आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार भी है; इसलिए आपको यह कार्य करना ही होगा ।
४. देश भूमि के टुकडे के कारण नहीं, अपितु त्यागी, निष्कपट एवं सुसंस्कृत लोगों के कारण ही महान बनता है !
स्वदेश के लिए सर्वस्व अर्पण करनेवाले तथा संपूर्ण निष्कपट लोग आपमें उत्पन्न होंगे, उस समय हिन्दुस्थान सभी दृष्टि से महान बनेगा । लोगों के कारण ही देश महान बनता है । केवल भूमि के टुकडे में क्या है ?
५. भारतीय संस्कृति में स्त्री के प्रति सम्मान विश्व में और कहीं भी दिखाई नहीं देगा !
जिस समाज में सीता माता उत्पन्न हुईं, उस समाज में स्त्री के प्रति अत्यंत सम्मान का भाव है । मैं भलीभांति जानता हूं कि भारत में स्त्री का जितना तेजस्वी सम्मान है, उतना विश्व में और कहीं भी नहीं किया जाता ।
६. सामर्थ्यशाली, तेजस्वी एवं आत्मविश्वास से युक्त केवल १०० युवक संपूर्ण विश्व में क्रांति लाने के लिए पर्याप्त हैं !
सच्चे लोगों की आवश्यकता है । उसके उपरांत सबकुछ सहजता से प्राप्त होगा । हमें आवश्यकता है सामर्थ्यशाली, तेजस्वी एवं आत्मविश्वास से युक्त सच्चे हृदय के युवक ! ऐसे सौ युवक भी मिले, तब भी इस विश्व में वास्तव में क्रांति आ जाएगी ।
(साभार : ‘शक्तिदायी विचार’, स्वामी विवेकानंदजी, (छठा संस्करण), रामकृष्ण मठ, नागपुर)