भगवान को नमस्कार करने की उचित पद्धति तथा उससे संबंधित शोध
‘देवालय में देवता के दर्शन करते समय हम दोनों हाथ जोडकर भगवान को नमस्कार करते हैं । दोनों हाथों के तलुओं को एक-दूसरे पर रखने से (अर्थात एक-दूसरे को चिपकाकर) जो मुद्रा बनती है, उसे ‘नमस्कार’ कहते हैं । भगवान को नमस्कार करते समय होनेवाली मुद्रा के कारण देवता से प्रक्षेपित चैतन्य को हम ग्रहण कर पाते हैं । ‘भगवान को नमस्कार करने की उचित पद्धति कौनसी है ?’, इसका विज्ञान के द्वारा अध्ययन करने के लिए एक परीक्षण किया गया । इस परीक्षण के लिए ‘पी.आई.पी. (पॉलीकाँट्रास्ट इंटरफेरंस फोटोग्राफी)’ प्रौद्योगिकी का उपयोग किया गया । इसकी सहायता से वस्तु एवं व्यक्ति के ऊर्जाक्षेत्र का (‘औरा’ का) अध्ययन किया जा सकता है । इस परीक्षण में प्राप्त निरीक्षणों का विवेचन आगे दिया गया है ।
१. परीक्षण में किए गए निरीक्षणों का विवेचन
इस परीक्षण में साधक के द्वारा नमस्कार की मुद्रा करने से पूर्व तथा उसके द्वारा एक-एक पद्धति से अगली ३ पद्धतियों से नमस्कार की मुद्रा करने पर ‘पी.आई.पी.’ प्रौद्योगिकी के द्वारा वातावरण के छायाचित्र खींचे गए । इन छायाचित्रों के किए गए तुलनात्मक अध्ययन से ध्यान में आया कि ‘भगवान को नमस्कार करने की कौनसी पद्धति सबसे अधिक उचित है ?’
अ. केवल हाथ जोडकर नमस्कार करना : इस पद्धति में साधक ने दोनों हाथों के तलुवे एक-दूसरे से जोडकर शरीर के आगे लेकर नमस्कार किया ।
आ. हाथ जोडकर अनाहतचक्र को स्पर्श कर नमस्कार करना : इस पद्धति में साधक ने दोनों हाथों के तलुओं को एक-दूसरे से जोडकर अनाहतचक्र के स्थान पर (अर्थात छाती को) स्पर्श कर तथा सिर को थोडासा नीचे झुकाकर नमस्कार किया ।
इ. हाथ जोडकर हाथों के अंगूठों से भ्रूमध्य को स्पर्श कर नमस्कार करना : इस पद्धति में साधक ने दोनों हाथों के तलुओं को एक-दूसरे से जोडकर हाथों के अंगूठों से भ्रूमध्य के स्थान को स्पर्श कर, पीठ में थोडा नीचे झुककर तथा सिर को थोडासा नीचे झुकाकर नमस्कार किया ।
२. ‘पी.आई.पी.’ छायाचित्रों में विद्यमान (प्रभामंडल में विद्यमान) नकारात्मक एवं सकारात्मक स्पंदनों का कुल स्तर, साथ ही सकारात्मक स्पंदनों में से कुछ महत्त्वपूर्ण स्पंदनों का स्तर
साधक के द्वारा तीनों पद्धतियों से किए गए नमस्कार के प्रभामंडल की तुलना नमस्कार करने से पूर्व के प्रभामंडल से की गई है । इससे निम्न सूत्र ध्यान में आए ।
अ. नमस्कार करने से पूर्व की तुलना में साधक के केवल हाथ जोडकर नमस्कार करने से वातावरण में विद्यमान सकारात्मक स्पंदनों का कुल स्तर घट गया तथा नकारात्मक स्पंदनों का कुल स्तर बढा । साथ ही सकारात्मक स्पंदन दर्शानेवाले पीले रंग का स्तर भी बहुत घट गया ।
आ. नमस्कार करने से पूर्व की तुलना में उसके द्वारा अनाहतचक्र के स्थान से स्पर्श कर नमस्कार करने के उपरांत वातावरण में विद्यमान सकारात्मक स्पंदनों का कुल स्तर बढा तथा नकारात्मक स्पंदनों का कुल स्तर घट गया । साथ ही सकारात्मक स्पंदन दर्शानेवाले पीले रंग का स्तर बहुत बढा ।
इ. नमस्कार करने से पूर्व की तुलना में उसके द्वारा हाथों के अंगूठों से भ्रूमध्य को स्पर्श कर किए गए नमस्कार के कारण वातावरण में विद्यमान सकारात्मक स्पंदनों का कुल स्तर सर्वाधिक बढा तथा नकारात्मक स्पंदनों का कुल स्तर बहुत घट गया । साथ ही सकारात्मक स्पंदन दर्शानेवाले पीले तथा नीले मिश्रित श्वेत रंग का स्तर बहुत बढा ।
३. निष्कर्ष
साधक के द्वारा हाथों के अंगूठों से भ्रूमध्य को स्पर्श कर किए गए नमस्कार से वातावरण में चैतन्य एवं पवित्रता के स्पंदन सर्वाधिक स्तर पर प्रक्षेपित हुए । इससे भगवान को नमस्कार करने की यह पद्धति सबसे उचित है, यह ध्यान में आता है ।
४. परीक्षण में प्राप्त निरीक्षणों का अध्यात्मशास्त्रीय विश्लेषण
४ अ. हाथों के अंगूठों से भ्रूमध्य को स्पर्श कर किए गए नमस्कार से वातावरण में चैतन्य एवं पवित्रता के स्पंदन सर्वाधिक स्तर पर प्रक्षेपित होने का कारण : साधक ने केवल हाथ जोडे, तब उसका भाव जागृत नहीं हुआ । उसके कारण वह बडे स्तर पर चैतन्य ग्रहण नहीं कर पाया; परंतु जब उसने हाथ जोडकर अनाहतचक्र को स्पर्श कर तथा सिर को थोडा नीचे झुकाकर नमस्कार किया, उस समय उसका अनाहतचक्र कार्यरत हुआ । उसके कारण उसका भाव जागृत होकर उसे अधिक स्तर पर चैतन्य ग्रहण करना संभव हुआ । जब उसने हाथों के अंगूठों से भ्रूमध्य को स्पर्श कर अर्थात आज्ञाचक्र को स्पर्श कर, पीठ में थोडासा नीचे झुककर तथा सिर को थोडासा नीचे झुकाकर नमस्कार किया, उस समय उसका शरणागतभाव जागृत हुआ । शरणागतभाव जागृत होने के कारण साधक में विद्यमान ‘अहंभाव’ (अर्थात ‘स्वयं’ के अस्तित्व का भान) अल्प होने में सहायता मिली । उसके कारण उसे सर्वाधिक स्तर पर चैतन्य ग्रहण करना संभव हुआ । संक्षेप में कहा जाए, तो इस पद्धति से नमस्कार करने के कारण व्यक्ति को सर्वाधिक स्तर पर आध्यात्मिक स्तर के लाभ मिलते हैं, यह इस परीक्षण से स्पष्ट हुआ ।’
– श्रीमती मधुरा धनंजय कर्वे, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (२४.१२.२०२२)
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