‘जेएनयू’ में की गई ब्राह्मण विरोधी घोषणाओं (नारेबाजी) का अर्थ !
पिछले माह नई देहली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के (‘जेएनयू’ के) परिसर में स्थित अनेक दीवारों पर ब्राह्मणों एवं व्यापारियों के विरुद्ध घोषणाएं (नारे) लिखी गईं । यह कृत्य वामपंथी (कम्युनिस्ट) विचारधारा से संबंधित छात्रों द्वारा किए जाने का कहा जा रहा है । इसके संदर्भ में यूट्यूब वाहिनी ‘जम्बू द्वीप’ पर सनातन संस्था के राष्ट्रीय प्रवक्ता श्री. चेतन राजहंस एवं वरिष्ठ पत्रकार तथा ‘एच.वी. टीवी’ के संपादक हर्षवर्धन त्रिपाठी की परिचर्चा का आयोजन किया गया था । श्री. चेतन राजहंस द्वारा किए उद्बोधन का संपादित अंश यहां दे रहे हैं ।
१. भारत विरोधी शक्तियों के द्वारा संदेशवाहक के रूप में ‘जेएनयू’ का उपयोग !
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (‘जेएनयू’) में एक ‘एजेंडा’ के (विशिष्ट उद्देश्य के) अंतर्गत ‘ब्राह्मण विरोध’ किया जा रहा है । इस देश में अनेक वर्षाें से शिक्षा संस्थान (एकेडेमिया) एवं माध्यम (मीडिया) वामपंथियों के नियंत्रण में रहे हैं । उनमें से ‘जेएनयू’ आज के समय में वामपंथी विचारों के प्रसार का गढ बन गया है । आज के समय में ‘जेएनयू’ वामपंथियों, धर्म निरपेक्षतावादियों एवं मिशनरी संगठनों के संदेश पूरे देश में पहुंचाने का माध्यम बन चुका है, किंतु इन सभी भारत विरोधी शक्तियों के द्वारा ‘जेएनयू’ का उपयोग संदेशवाहक के रूप में किया जाता है । मूल रूप से उनका ‘एजेंडा बेस्ड प्रोपेगेंडा’ (उद्देश्यधारित प्रचार) राजनीतिक है ।
२. स्वतंत्रता के उपरांत दिखा भारत विरोधी शक्तियों का ब्राह्मण विरोधी ‘एजेंडा’!
‘जेएनयू’ में जो घोषणाएं की गईं, वह घटना कोई पहली बार की नहीं है; अपितु इससे पूर्व भी मिशनरियों, धर्मनिरपेक्षतावादियों एवं वामपंथियों की भारत विरोधी शक्तियों ने ब्राह्मण विरोधी ‘एजेंडा’ चलाया था । इन भारत विरोधी शक्तियों को ब्राह्मण समुदाय को अर्थात बुद्धिजीवी समाज को कलंकित कर भारत का होनेवाला पुनरुत्थान रोकना है ।
२ अ. गांधी हत्या के उपरांत के ब्राह्मण विरोधी दंगे : विशेष रूप से वर्ष १९४८ में गांधी हत्या हुई, उस समय नथुराम गोडसे ब्राह्मण होने से उनके विरुद्ध पूरे देश में तथा महाराष्ट्र के पुणे, ठाणे, मुंबई, नाशिक आदि स्थानों पर ब्राह्मण विरोधी दंगे हुए । उसमें रा.स्व. संघ के अनेक स्वयंसेवकों के घर ध्वस्त किए गए । ‘गोडसे का संघ कार्यकर्ता होना तथा ब्राह्मण होना’, उसका मुख्य कारण था । स्वतंत्रता के तुरंत उपरांत अर्थात वर्ष १९४८ में रा.स्व. संघ पर ‘ब्राह्मणों का संगठन’ के नाम से ठप्पा लगाया गया । उस समय संघ एक बडा एवं लोकप्रिय संगठन था । वह वो समय था, जिस समय ‘बीबीसी’ रेडियो पर केवल प.पू. गोळवलकर गुरुजी एवं जवाहर लाल नेहरू के ही भाषण प्रसारित होते थे । उस समय नेहरू को ‘संघ का नाम कलंकित हो’, ऐसा लग रहा था । उसके लिए ‘रा.स्व. संघ का अर्थ ब्राह्मण’, इस प्रकार दुष्प्रचार किया गया तथा गांधी की हत्या के उपरांत महाराष्ट्र में ब्राह्मण विरोधी दंगे किए गए । अर्थात यह रा.स्व. संघ का दमन करने के लिए ही था ।
२ आ. तमिलनाडु में ब्राह्मण विरोध : आगे जाकर ईसाई-द्रविड संगठनों ने इसी चतुराई का उपयोग तमिलनाडु में कर वहां ब्राह्मण विरोधी अभियान चलाया, जो वर्ष १९७० तक चला । इस अभियान में ब्राह्मण विरोधी पेरियार को गुरु माना गया । इस अभियान के कारण मूल ब्राह्मणों ने तमिलनाडु से पलायन किया । इसके फलस्वरूप आज वहां के मंदिरों अथवा तीर्थस्थलों में ब्राह्मण नहीं मिल रहे हैं । वहां विवाह लगाने के लिए भी ब्राह्मण नहीं मिल रहा है, ऐसी भयानक स्थिति उत्पन्न हुई है ।
२ इ. कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के पलायन की उपेक्षा : कश्मीर घाटी से जिहादी आतंकी शक्तियों ने कश्मीरी हिन्दुओं को वहां से पलायन करने के लिए बाध्य किया, उस समय धर्मनिरपेक्षतावादी एवं वामपंथी राजनीतिक शक्तियों ने कश्मीरी पंडितों को ब्राह्मण समुदाय कहकर उनके पलायन की उपेक्षा की ।
स्वतंत्रता के उपरांत संपूर्ण ब्राह्मण समुदाय को लक्ष्य बनाना ही केवल धर्मनिरपेक्षतावादियों एवं वामपंथियों का राजनीतिक कार्यक्रम रहा है । सबसे दुर्भाग्यशाली तथा आश्चर्यचकित करनेवाली बात यह है कि इन वामपंथियों में सर्वाधिक ब्राह्मण जाति के ही लोग हैं । धर्मनिरपेक्षतावादियों में भी सर्वाधिक ब्राह्मण जाति के ही लोग हैं । ईसाई संगठन दलितों के नाम पर ब्राह्मण विरोध का कार्यक्रम चलाते हैं तथा ये दोनों शक्तियां उनकी सहायता करती हैं । कुल मिलाकर भारत विरोधी शक्तियों को १२ प्रतिशत ब्राह्मण समुदाय को लक्ष्य बनाकर एक प्रकार से हिन्दू धर्म को ही लक्ष्य बनाना है ।
३. भारत विरोधी शक्तियों के द्वारा राजनीतिक उद्देश्य से ‘टूल किट’ के रूप में ‘जेएनयू’ का उपयोग !
‘जेएनयू’ का ‘उपयोग टूल किट’ (किसी विशिष्ट उद्देश्य से दुष्प्रचार करने का षड्यंत्र) के रूप में किया गया है । वहां ‘ब्राह्मण छोडो’ की केवल एक ही घोषणा नहीं की गई है, अपितु ‘बनिया छोडो’ (व्यापारियों, देश छोडकर चले जाओ) की घोषणा भी की गई । उसके उपरांत ‘खून बहेगा, खून बहेगा’ (रक्त बहेगा, रक्त बहेगा) की भी घोषणा की गई । इससे ब्राह्मण एवं बनिया (व्यापारी), इन दोनों को ही लक्ष्य बनाया गया है । यहां ध्यान में लेने योग्य सूत्र यह है कि ये भारत विरोधी शक्तियां आजकल अंबानी एवं अदानी जैसे उद्योगपति जिस गति से आर्थिक व्यापार में उन्नति कर रहे हैं, राष्ट्रवादी उनकी इस उन्नति की ओर सरकार एवं उद्योगपतियों में सांठ-गांठ होने की दृष्टि से देख रहे हैं । भारत के प्रमुख उद्योगपतियों को लक्ष्य बनाने के लिए ही वैश्य समुदाय को लक्ष्य बनाया जा रहा है, जो गंभीर है । उसमें भी कुछ दिन पूर्व गुजरात चुनाव के समय, ‘बनिया, देश छोडो’ की घोषणा की गई थी । गुजराती समुदाय में व्यापारी समुदाय धनवान वर्ग माना जाता है, इसका अर्थ यह एक प्रकार से राजनीतिक नारा ही था, इसे हमें ध्यान में लेना होगा ।
४. ‘जेएनयू’ में देश विरोधी छात्र संगठनों की अभिव्यक्ति नहीं; अपितु भारत विरोधी शक्तियों का ‘एजेंडा बेस्ड प्रोपेगेंडा’ (विशिष्ट नीति पर आधारित प्रचार) अभियान !
भारत के किसी भी वर्ग का किया जानेवाला विरोध लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से भी अनुचित है; क्योंकि भारतीय संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सामाजिक स्वास्थ्य, लोकतांत्रिक व्यवस्था, सदाचार अथवा नैतिकता की सीमाओं में बद्ध किया गया है । किसी विशिष्ट वर्ग को अर्थात ब्राह्मण एवं व्यापारी समुदाय को ‘भारत छोडकर चले जाओ’ का विद्वेषपूर्ण आवाहन करना सामाजिक स्वास्थ्य को बिगाडनेवाला है । यह जातिगत विद्वेष है तथा एक प्रकार से लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरुद्ध युद्ध है । ‘खून बहेगा’ का नारा पूर्णरूप से कानून विरोधी है । यह कोई भी सदाचारी अथवा नैतिक कृत्य नहीं है, जो संविधान को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अभिप्रेत है । भारत सरकार को गंभीरता से इसका संज्ञान लेकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर नहीं, अपितु ‘एजेंडा बेस्ड प्रोपेगेंडा’ का अभियान चलानेवालों को कारागार में भेजना चाहिए ।
५. सर्वाेच्च न्यायालय को अपने दायित्व का विस्मरण अथवा जानबूझकर अनदेखी !
‘जेएनयू’ एक विश्वविद्यालय है । वहां अन्वेषण करने के लिए सरकारी अन्वेषण विभागों पर मर्यादाएं हैं; क्योंकि विश्वविद्यालय तो कुलपति, राज्यपाल अथवा राष्ट्रपति से संबंधित संस्था होती है । वहां की व्यवस्था उन्हीं के नियंत्रण में है तथा वे वहां स्वायत्तता से काम करते हैं । ऐसी स्थिति में ‘स्युओमोटो’ की (किसी प्रकरण में न्यायालय स्वयं ध्यान देकर याचिका चलाता है) कार्यवाही करना न्यायालयों के हाथ में होता है । जेएनयू में कार्यवाही करने के लिए सरकार एवं सरकारी तंत्र को आनेवाली मर्यादाओं को ध्यान में रखकर सर्वाेच्च न्यायालय को ‘स्युओमोटो’ की कार्यवाही करना आवश्यक था । इस प्रकार की घोषणा इन छात्रों ने की, जो आगे जाकर भारत के नागरिक बननेवाले हैं । जो इतनी बडी सरकारी व्यवस्था में शिक्षा ग्रहण करते हैं तथा वहां के प्रत्येक छात्र के लिए सरकार के ३ लाख रुपए का व्यय होता है, वहां इस प्रकार की घोषणा करना अत्यंत गंभीर है । अतः यह घोषणा सर्वाेच्च न्यायालय तक पहुंचकर उसके द्वारा ‘स्युओमोटो’ जैसी कार्यवाही करना अपेक्षित था । अन्वेषण विभाग प्रमाण रखेंगे तथा न्यायालय न्याय करेगा भी; परंतु न्यायाधीश भी प्रतिदिन समाचार पत्र पढते हैं अथवा सामाजिक माध्यमों पर सक्रिय होते हैं, तो वे ऐसी घटनाओं की कैसे उपेक्षा कर सकते हैं ?
– श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था (२१.१२.२०२२)
‘जेएनयू’ में देश विरोधी गुट का ‘प्रोपेगेंडा’ (प्रचार) ध्वस्त होने के मार्ग पर अग्रसर ! – हर्षवर्धन त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार तथा संपादक, ‘एच.वी. टीवी’‘जेएनयू’ हो अथवा अन्य कोई भी विश्वविद्यालय हो, वह द्वेष, घृणा एवं विष फैलाने के प्रयास करनेवाले अभियान का भाग नहीं बन सकता । यह कुछ लोगों की घृणास्पद मानसिकता है, जो युवकों तथा शिक्षा केंद्र ‘जेएनयू’ से जोडकर प्रचारित की जाती है । ‘जेएनयू’ में इस प्रकार के लोग बहुत नहीं हैं; परंतु उन्हें लंबे समय से सत्ता एवं संरक्षण मिलने से उनका प्रभाव अधिक दिखाई देता है । ऐसा लगता है कि वे ही ‘जेएनयू’ की वास्तविक पहचान हैं । इसी ‘जेएनयू’ में प्राचीन काल से ही स्वामी विवेकानंदजी के आदर्श पर चलते हुए राष्ट्र को बलवान बनानेवाले छात्र आगे आकर अपना मत व्यक्त करते रहते हैं । जब ‘जेएनयू’ की दीवारों पर ‘ब्राह्मण, भारत छोडो’, इस प्रकार से कुछ लिखा जाता है, वह लोगों को प्रभावित करता है । ‘जेएनयू’ में बडे उत्साह के साथ श्री रामनवमी अथवा दुर्गाेत्सव मनाए जाते हैं; परंतु इन सबसे ऊपर दुर्गादेवी के विषय में आपत्तिजनक वक्तव्यों की ही अधिक चर्चा होती है । मुझे ऐसा लगता है कि ऐसे लोगों की संख्या न्यून है । इन लोगों को चुनकर इस चर्चा से बाहर रखना पडेगा । उनकी यह घृणा एवं विष फैलाने की पद्धति धीरे-धीरे निष्फल बनती जा रही है । पहले उन्हें इसमें बडी सहजता से सफलता मिलती थी; परंतु अब उन्हें ‘जैसे को वैसा’ उत्तर मिल रहा है तथा उससे उनका ऐसा ‘प्रोपेगेंडा’ भी ध्वस्त हो रहा है । |
ब्राह्मण का अर्थ क्या है ?
१. दर्शनशास्त्र में ‘ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मणः । (अर्थ : जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्राह्मण है ।)’, इस प्रकार ब्राह्मण की परिभाषा दी गई है । किसी व्यक्ति की जब उच्च स्तर की आध्यात्मिक उन्नति होती है, उस समय उसे ‘मैं स्वयं ब्रह्म हूं’ की आत्मानुभूति होती है तथा उसी को ब्राह्मण कहा गया है । प्राचीन काल में ऐसी अनुभूति प्राप्त ऋषियों को ब्राह्मण कहा गया ।
२. रामायण एवं महाभारत में जो वर्णव्यवस्था दिखाई गई, उसमें ‘ब्रह्म को जानने के लिए अध्ययन (अर्थात स्वयं साधना अथवा तपस्या करनेवाले) तथा अध्यापन का कार्य करनेवाले को ब्राह्मण’ माना गया है । महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण ने वर्णव्यवस्था के विषय में बहुत सुंदर विवेचन किया है ।
‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ४, श्लोक १३
अर्थ : ‘मैंने (भगवान श्रीकृष्ण ने) गुण एवं कर्म के आधार पर चार वर्णों की निर्मिति की’, ऐसा कहा गया है । इस अर्थ से देखा जाए, तो ब्रह्म को जानने के लिए आवश्यक सात्त्विक गुणों से युक्त अथवा उसके लिए अध्यापन का कार्य करनेवालों को ब्राह्मण कहा गया । ‘क्षतात त्रायते इति क्षत्रियः’ अर्थात समाज का दुख दूर करने के लिए आवश्यक राजसिक गुण जिन में थे, उन्हें ‘क्षत्रिय’ कहा गया ।
३. हिन्दू दर्शनशास्त्र में ‘व्यक्ति जन्म से शुद्र होता हैे’, ऐसा बताते समय ही ‘व्यक्ति की साधना, गुण-कर्म एवं संस्कारों के कारण वह विभिन्न वर्ण प्राप्त करता है’, ऐसा कहा गया है ।
४. लगभग ५ सहस्र वर्ष पूर्व वर्णव्यवस्था को ग्लानि आने के कारण जाति व्यवस्था प्रचलित हुई तथा जन्म के आधार पर जातियों की निर्मिति आरंभ हुई । वास्तव में देखा जाए, तो जाति व्यवस्था किसी भी समाज की एक प्राकृतिक व्यवस्था होती है । भारत में जिस प्रकार से जाति व्यवस्था है, उस प्रकार से अरबस्तान में ‘कबिले’ हैं, तो यूरोप में ‘हाउजेस’ हैं ।
ब्राह्मण जाति में जन्म होने पर समाज ने उस पर अध्ययन एवं अध्यापन का कार्य सौंपा । जो दुखों का परिहार करता है अथवा दुखों से समाज की रक्षा करता है, उसे क्षत्रिय कहा गया । उसी प्रकार प्रत्येक जाति के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को काम वितरित किए गए थे ।
हमारे यहां धर्म का ऱ्हास होता है तथा पुनः धर्मसंस्थापना होती है । आज पतन का समय चल रहा है । आजकल ब्राह्मण जाति भी पतन से ग्रसित है । उसके कारण सभी ब्राह्मणों की ओर आदर्श दृष्टि से देखने की अपेक्षा ब्रह्म को जाननेवाले को ही ब्राह्मण कहना चाहिए । कोई जन्म से शूद्र होते हुए भी अपनी तपस्या से ब्राह्मण बन सकता है । इसलिए धर्मसंस्थापना करनी हो, तो आध्यात्मिक गुणों एवं कर्माें के आधार पर व्यक्ति का विचार करना चाहिए अथवा ‘ब्राह्मण’ शब्द का आध्यात्मिक अर्थ ‘धर्म’ समझना चाहिए ।
– श्री. चेतन राजहंस, राष्ट्रीय प्रवक्ता, सनातन संस्था (२१.१२.२०२२)