अंतर्मन को सुसंस्कारी बनानेवाली हिन्दी पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ संबंधी सेवा !
‘सनातन प्रभात’ नियतकालिकों के माध्यम से विगत अनेक वर्षाें से समाजप्रबोधन किया जा रहा है । ‘सनातन प्रभात’ नियतकालिकोंद्वारा ‘राष्ट्र एवं धर्म पर हो रहे प्रहार, संतों का मार्गदर्शन, साधकों को हुई अनुभूतियां, सूक्ष्म ज्ञान’ आदि के संबंध में विविध लेखों के माध्यम से समाज के व्यक्तियों का मार्गदर्शन किया जाता है एवं उन्हें साधनाप्रवण किया जाता है । दैनिक ‘सनातन प्रभात’ मराठी में ४ संस्करण, साप्ताहिक ‘सनातन प्रभात’ मराठी एवं कन्नड, पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषाओं में प्रकाशित किया जाता है । गुरुकृपा से मुझे लगभग ७ वर्ष हिन्दी पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ से संबंधित सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।
१ से १५ जनवरी २०२३ को प्रकाशित अंक में कु. रेणुका कुलकर्णी को सीखने के लिए मिले सूत्र प्रकाशित किये थे । अभी इस लेख में उसके आगे के सूत्र हम देखेंगे ।
५. हिन्दी पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ संबंधी सेवा करते समय आई अडचनें एवं इन पर ढूंढा समाधान !
५ अ. हिन्दी पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ संबंधी सेवा करते समय सूक्ष्म से आक्रमण होना : ‘सनातन प्रभात’ नियतकालिकों से संबंधित सेवा करना’ समष्टि सेवा है । यह सेवा करते समय मुझे भान होता था कि ‘मुझ पर सूक्ष्म से अनिष्ट शक्तियों के आक्रमण हो रहे हैं ।’ आध्यात्मिक कष्ट के कारण लगता था, ‘मुझे यह सेवा नहीं करनी है !’
५ आ. सहसाधकों से अपेक्षा करना : मेरे द्वारा इस सेवा का उचित नियोजन न होने से सेवा में चूकें होती थीं । मुझे सहसाधकों से अपेक्षा भी रहती थी । उस संदर्भ में उत्तरदायी साधिकाओं ने (सुश्री (कु.) युवराज्ञी शिंदे आध्यात्मिक स्तर ६३ प्रतिशत, आयु ४२ वर्ष तथा कु. वर्षा जबडे ने समय-समय पर मुझे मेरे स्वभावदोषों का भान भी करवाया ।
५ इ. पाक्षिक के पृष्ठों के आसपास श्रीकृष्णजी के नाम का मंडल बनाना तथा प्रति एक घंटे में प्रार्थना एवं स्वसूचना सत्र करना : हिन्दी पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ के अंक के संबंध में सेवा आरंभ करते समय हम कागद पर श्रीकृष्णजी के जप का (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय) मंडल कर उसमें ‘हे भगवान श्रीकृष्ण, पाक्षिक का अमुक अंक है । उसके संकलन, संरचना तथा छपाई में आनेवाली बाधाएं दूर होकर, संबंधित सेवा करनेवाले साधकों के मन जुड पाएं’, ऐसी प्रार्थना करते थे । संगणक में ‘इनडिजाइन’ नामक ‘सॉफ्टवेयर’ में पृष्ठों की संरचना की जाती है । हम इन पृष्ठों के सर्व ओर भी श्रीकृष्णजी के नामजप का मंडल करते थे । हम हर १ घंटे उपरांत सामूहिक स्वसूचना सत्र करते थे । तब ‘सङ्घे शक्तिः कलौयुगे । (अर्थ : कलियुग में संगठित रहेने में ही सामर्थ्य है ।) इस उक्ति के अनुसार संगठित प्रयासों के कारण हमें उत्साह लगता था ।
५ ई. हिन्दी पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ संबंधी सेवा करते समय किए भाव के स्तर पर प्रयास : पाक्षिक का नियोजन करते समय हम (मैं तथा कु. वर्षा जबडे) ‘प्रत्येक पाक्षिक करते समय कौन सा भाव रखें ?’, यह निश्चित करते थे, उदा. यदि ‘रामनवमी’ विशेषांक हो, तो प्रभु श्रीरामचंद्रजी का स्मरण करना, उनके श्रीचरणों में अंक समर्पित करना । यदि ‘कुंभ मेला स्मारिका’ हो तो सवेरे सेवा करने से पूर्व मानस गंगास्नान करना । मानस गंगास्नान करते समय हमें लगता था कि ‘हम प्रत्यक्ष प्रयाग घाट पर हैं ।’ प्रत्येक पाक्षिक की सेवा करने के उपलक्ष्य में ‘स्वयं में किन गुणों की वृद्धि करनी है ?’, यह भी निश्चित करते थे, उदा. ‘गत पाक्षिक के संदर्भ में सेवा करते समय अमुक समन्वय उचित पद्धति से नहीं हुआ था, तथापि इस समय वह समन्वय सावधानी से करेंगे । प्रत्येक बार पाक्षिक का अंक छपाई के लिए जाने के उपरांत संबंधित साधकों का सत्संग रहता था । उस समय गत पाक्षिक में हुई चूकें अगले पाक्षिक में किस प्रकार टाल सकते हैं, ऐसा ध्येय लेते थे ।
५ उ. हिन्दी पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ संबंधी सेवा अत्यावश्यक सेवा होने से कभी-कभी नामजप इत्यादि उपचार पूर्ण करने में समय अल्प पडना; परंतु सेवा भावपूर्ण करने से चैतन्य की अनुभूति होना : नामजप इत्यादि उपचार पूर्ण करने पर सेवा में एकाग्रता साध्य हो सकती है तथा साधक यदि नामजप इत्यादि उपचार करें, तो साधक के आसपास सुरक्षा-कवच निर्माण होता है । इसलिए युवराज्ञी दीदी प्रत्येक समय मुझे नामजप आदि उपचार पूर्ण करने के पश्चात ही पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ संबंधी सेवा करने को कहती थीं । कभी-कभी मुझे एक ही समय हिन्दी पाक्षिक ‘सनातन प्रभात’ एवं प्रसारसामग्री की सेवाएं आने से मुझे नामजप इत्यादि उपचार पूर्ण करने का समय नहीं मिलता था । तब युवराज्ञी दीदी मुझे निश्चित घंटे ही नामजप इत्यादि उपचार करने के लिए कहती । वह मुझे कहती, ‘सेवा द्वारा चैतन्य मिलेगा ।’ सेवा करते समय स्वसूचना सत्र करना, भजन सुनना, ऐसा करने से ‘अंतर्मन से भगवान से आंतरिक सान्निध्य है’, ऐसा हमें अनुभव होता था । पाक्षिक संबंधी सेवा पूर्ण होने के उपरांत थकान की अपेक्षा प्रफुल्लित लगता था ।
६. सेवा करते समय ध्यान में आई सहसाधकों की गुणविशेषताएं !
६ अ. स्थिर वृत्ति की एवं साधकों को आध्यात्मिक स्तर पर दृष्टिकोण देनेवाली सुश्री (कु.) युवराज्ञी शिंदे (आध्यात्मिक स्तर ६३ प्रतिशत) !
युवराज्ञी दीदी का सबसे बडा गुण है ‘स्थिरता’ ! सेवा शीघ्र पूर्ण करने की स्थिति में भी वे स्थिर रहती हैं । पाक्षिक से संबंधित सेवा करनेवाले साधकों में यदि कोई मनमुटाव हो एवं इस कारण उनकी मनःस्थिति अच्छी न हो, तो सेवा चाहे कितनी भी आवश्यक क्यों न हो, दीदी हमें सेवा रोक देने को कहती हैं । वे हमारे विचार समझकर ‘हम कहां चूक कर रहे हैं ?’, यह बात स्पष्टता से बताती हैं । ‘इस प्रसंग में हमें क्या करना चाहिए’, इसका भान करवाकर ही सेवा पुनः आरंभ करने के लिए कहती हैं । वे हमें कहती हैं, ‘कलुषित मन से की गई सेवा भगवान तक नहीं पहुंचती । भगवान को निर्मल मन ही अपेक्षित है ।’
६ आ. नम्र एवं सीखने की लगन से पूर्ण कु. वर्षा जबडे !
वर्षा दीदी में जिज्ञासा एवं सीखने की लगन है । आवश्यक सेवाओं के कारण, साथ ही मुझमें विद्यमान ‘अपेक्षा करना’ स्वभावदोष के कारण अनेक बार मेरा ध्यान सेवा से विचलित हो जाता एवं मेरे द्वारा ऊंचे स्वर में बोलना होता; परंतु वर्षा दीदी मुझसे सदैव नम्रता से ही बात करती हैं । उस समय ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ द्वारा आयोजित संगीत के प्रयोगों में सहभागी होने की मेरी इच्छा रहती । उस समय वर्षा दीदी मेरी रुचि समझकर मेरी सेवा का अगला नियोजन कर संगीत के प्रयोगों में सम्मिलित होने की अनुमति देती थी । उस समयावधि में वर्षा दीदी को पैरदर्द, प्राणशक्ति अल्प होना, ऐसी अनेक शारीरिक अडचनें थीं । ऐसा होते हुए भी उन्होंने प्रतिदिन अनेक घंटे पाक्षिक की सेवा की है । वर्षा दीदी के पास संवाद साध्य करने की कुशलता है । उनसे मैंने, ‘समन्वय कैसे किया जाए?’, यह सीखा । उनमें विद्यमान प्रेमभाव के कारण उन्होंने प्रसार के अनेक साधकों से मेल-जोल के संबंध स्थापित किए हैं ।
६ इ. प्रेमभरी तथा हिन्दी भाषा पर प्रभुत्व की श्रीमती अरुणा सिंह !
श्रीमती अरुणा सिंह में बहुत प्रेमभाव है । उन्होंने पाक्षिक के समाचारों के संकलन की सेवा अविरत की है । हिन्दी भाषा पर प्रभुत्व है । मैं उनसे अनेक नए शब्द सीख पाई ।
६ ई. सेवा की सूक्ष्मता (बारीकियां) सिखानेवाली श्रीमती दीपश्री जाखोटिया (पूर्वाश्रम की कु. दीपा तिवाडी) !
श्रीमती दीपश्री जाखोटिया से मैंने पाक्षिक की संरचना सीखी । उन्होंने मुझे सेवा की अनेक सूक्ष्मताएं सिखाईं तथा समय-समय पर उन्होंने मुझे सूत्र लिखने के लिए कहा । वे मुझसे कहतीं, ‘यदि हम सेवा की प्रत्येक बात लिखकर रखें, तो सीखनेवाले साधक के लिए आरंभ में ही सरल हो जाता है ।
६ उ. आधार देनेवाली कु. गीतांजली काणे
पाक्षिक की सेवा करते समय मुझे गीतांजली दीदी का आधार लगता । उस समय वे पाक्षिक की प्रत्यक्ष सेवा नहीं करती थीं; परंतु पाक्षिक छपाई को भेजते समय, ‘कुछ सहायता चाहिए क्या ?’, ऐसा पूछती थीं । उनमें विद्यमान निर्मलता के कारण मैं निःसंकोच उनके साथ मन खोलकर बोलती थी । पाक्षिक की सेवा करते समय मेरी गतिविधि तीव्र होती थी । मैं तीव्र गति से पढती थी । इससे मेरे द्वारा असावधानी की चूकें होती थीं । दीदी से मैंने उचित गति से कृत्य करना सीखा । मेरे पास अन्य छोटी-बडी सेवाओं का दायित्व था । तब मुझे सेवा करते समय तनाव आता था । दीदी ने मुझे ‘सेवा सरल पद्धति से कैसे कर सकते हैं ?’, यह सिखाया ।
७. कृतज्ञता :
शब्दसुमन हैं पिरोये, ‘अक्षरब्रह्म’ की आराधना में ।
दिन-रैन जागकर हार बनाया । संकलित कर शब्दों का ।
संरचना हो सात्त्विक और अर्पित हो श्री गुरु चरणों में ।
सेवा की मिली उपलब्धि, कृतज्ञता है जीवन में ।
(समाप्त)
– कु. रेणुका कुलकर्णी, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१६.१२.२०२२)