सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने ‘साधना के आरंभिक काल में विभिन्न प्रसंगों के माध्यम से कैसे तैयार किया ?’, इस विषय में श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी द्वारा चुने हुए क्षण मोती !
‘७.१२.२०२२ अर्थात दत्तजयंती के दिन सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी की एक आध्यात्मिक उत्तराधिकारिणी श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में रामनाथी, गोवा के सनातन के आश्रम में भावसमारोह संपन्न हुआ । सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी, उनकी एक दूसरी आध्यात्मिक उत्तराधिकारिणी श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळजी, श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी के परिजन तथा कुछ साधकों की उपस्थिति में यह भावसमारोह संपन्न हुआ । इस भावसमारोह में श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) गाडगीळजी द्वारा व्यक्त मनोगत का कुछ भाग हमने १ से १५ जनवरी २०२३ के अंक में देखा था । उसका शेष भाग हम यहां देखेंगे ।
मैंने (श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी) जब साधना आरंभ की, उस समय मुझे परात्पर गुरुदेवजी का प्रत्यक्ष सान्निध्य मिला । ‘उस समय उन्होंने मुझे कैसे तैयार किया ?’, उसके कुछ चुनिंदा प्रसंग यहां बताती हूं ।
६. परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने ‘स्वेच्छा न रखकर ईश्वरेच्छा से संगीत साधना करनी है’, इसका स्मरण कराया
गुरुदेवजी के बताए अनुसार मैंने २ माह तक रसोईघर में सेवा की । मुझे उस सेवा से बहुत आनंद मिलने लगा । उस आनंद में मैं पहले जो संगीत साधना करती थी, वही भूल गई । उस समय गुरुदेवजी ने मुझे बुलाकर पूछा, ‘‘आपको संगीत साधना से संबंधित आगे की साधना करनी है न ?’’ मैंने उनसे पूछा, ‘‘अब मुझे रसोईघर में ही अच्छा लग रहा है, तो क्या मैं वहीं सेवा करूं ?’’ उस पर गुरुदेवजी कहने लगे, ‘‘अब आपको संगीत के अगले स्तर की साधना करनी है । अब स्वेच्छा नहीं चाहिए; ईश्वरेच्छा से चलना है ।’’
७. उत्तरदायी साधकों की बात न सुनकर परात्पर गुरु डॉक्टरजी के भोजन की थाली में नींबू की फांक को वैसे ही रखा देखकर स्वेच्छा से आचरण करने का भान होना
मैं जब रसोईघर में सेवा करती थी, उस समय गुरुदेवजी ने मुझे कु. रेखा काणकोणकर (आज की सनातन की संत पू. रेखा काणकोणकरजी) की बात सुनने का निर्देश दिया था । उस समय मैंने उनसे कहा, ‘‘जी हां । अब मैं उनसे पूछकर ही सब करती हूं ।’’ रसोईघर में १ माह सेवा करने के उपरांत मुझे एक दिन गुरुदेवजी के लिए रसोई बनाने का अवसर मिला । मुझे यह अवसर मिले; इसके लिए मैंने पूरे दिन बहुत प्रार्थना की । उनके लिए सभी पदार्थ बनाकर मैंने उन्हें एक थाली में परोसा तथा ‘मैंने सब ठीक से परोसा है न ?’, यह दिखाने के लिए मैं रेखादीदी के पास गई । रेखादीदी कहने लगीं, ‘‘काकूजी, अन्य सबकुछ ठीक है; परंतु आप केवल वह नींबू की फांक निकालकर रखिए ।’’ मुझे ऐसा लगा, ‘थाली में फीकी दाल-चावल है, तो उसके लिए नींबू तो चाहिए ही !’ उसके कारण मैंने रेखादीदी से कहा, ‘‘नींबू की फांक को रहने दीजिए । वे खा लेंगे ।’’
उसके उपरांत मैं वह थाली गुरुदेवजी जहां भोजन करते थे, उस पटल पर रखकर आई । वापस आने के उपरांत विद्यालयीन जीवन में १० वीं कक्षा के परिणाम के समय जैसे पेट में गोला आता है, वैसा ही मुझे हुआ । मैं गुरुदेवजी का भोजन समाप्त होने की प्रतीक्षा करती रही । उन्होंने भोजन कर थाली वापस भेजी । मैंने जब ढंकी हुई थाली खोलकर देखी, तो उन्होंने केवल वह नींबू की फांक एक ओर रख दी थी । रेखादीदी की बात अनसुनी कर मैंने स्वेच्छा से थाली में नींबू की फांक रख दी थी । मेरे अहंकार का वह नींबू गुरुदेवजी ने वापस भेजकर मुझे यह सिखाया कि स्वेच्छा से कुछ नहीं करना है !
८. सूक्ष्म परीक्षण करते समय ‘जहां हम सहजता से जा सकते हैं, ऐसे स्थान पर प्रत्यक्ष जाकर सूक्ष्म की गतिविधियां जाननी चाहिए तथा उसके लिए साधना की ऊर्जा व्यय नहीं करनी चाहिए’, परात्पर गुरु डॉक्टरजी का ऐसा बताना
फोंडा में एक वाटिका है । परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने मुझे उस वाटिका का सूक्ष्म परीक्षण करने के लिए कहा था । परीक्षण कर मैं उन्हें बताने के लिए गई । उस समय गुरुदेवजी कहने लगे, ‘‘आप इतनी शीघ्र वहां जाकर आ गईं ?’’ मैंने उनसे कहा, ‘‘मैं वाटिका गई ही नहीं, यहीं बैठकर मैंने परीक्षण किया ।’’ उस पर वे कहने लगे, ‘‘ऐसा करने से साधना व्यय होती है । वाटिका तो पास ही है न, तो हम वहां प्रत्यक्ष रूप से जा सकते हैं । जहां प्रत्यक्ष जाना संभव नहीं होता, ऐसी स्थिति में दूर जाने के लिए साधना व्यय करनी चाहिए ।’’
९. एक साधिका की मृत्यु के उपरांत परात्पर गुरु डॉक्टरजी ने उसकी लिंगदेह का सूक्ष्म परीक्षण करना सिखाया
स्थूल से घटित होनेवाली घटनाओं का सूक्ष्म परीक्षण करना सिखाने के उपरांत एक दिन गुरुदेवजी मुझे कहने लगे, ‘‘अब मृत्युपरांत लिंगदेह की यात्रा कैसे होती है’, उसका परीक्षण करना है ।’’ उस समय एक साधिका कैंसर की पीडा के कारण बहुत कराहती थी । गुरुदेवजी ने उसकी मृत्यु के उपरांत उसकी लिंगदेह का परीक्षण करने के लिए कहा । सूक्ष्म परीक्षण करते समय मुझे उसके कराहने की आवाज आती थी । ‘मृत्यु के उपरांत भी उसके कराहने की आवाज क्यों आती है ?’, ऐसा जब मैंने गुरुदेवजी से पूछा, उस समय उन्होंने कहा, ‘‘मृत्यु से पूर्व जब उसे पीडा होती थी, उस समय उसके चित्त पर पीडा एवं कराहने का संस्कार हुआ था; इलिए आपको उसके कराहने की आवाज आती है । आप सूक्ष्म से उस साधिका को बताइए कि अब उसकी मृत्यु के कारण उसकी स्थूल देह के साथ उसकी पीडाएं भी दूर हो गई हैं ।’’ इस प्रकार गुरुदेवजी ने मुझे ‘मृत्योपरांत का विश्व कैसा होता है ?’, यह भी सिखाया ।
१०. विभिन्न प्रसंगों से ‘सत्संग कैसे लेना चाहिए ?’, इसकी सूक्ष्मता सिखाना
एक दिन गुरुदेवजी ने मुझे अहं निर्मूलन के लिए साधकों की बैठक लेने के लिए कहा । उस समय बैठक लेकर मैंने साधकों को उनमें स्थित अहंभाव के लक्षण बताए । उसके उपरांत गुरुदेवजी ने पूछा, ‘‘बैठक कैसी थी ?’’ मैंने कहा, ‘‘अच्छी हुई ।’’ उन्होंने पूछा, ‘‘तो क्या सत्संग में आप ही बोलती रहीं ? इस पर मैंने जब ‘हां’ कहा, तब उन्होंने कहा, ‘‘ऐसा नहीं होना चाहिए । आप प्रत्येक साधक से पूछिए कि उनमें किस प्रकार के अहं के लक्षण दिखाई देते हैं । प्रत्येक साधक का अहंकार कैसा है, आप यह खोजिए ।’’ इस प्रकार ‘सत्संग कैसे लेना है ?’ तथा ‘सभी से कैसे बात करनी चाहिए ?’, यह गुरुदेवजी ने ही मुझे सिखाया है ।
११. ‘अध्यात्मका प्रस्तावनात्मक विवेचन’ ग्रंथ के मुखपृष्ठ पर अंकित चित्र से ‘गुरुदेवजी ही सर्वस्व हैं’, यह सिखाना
साधना के आरंभिक काल में भी मुझसे मेरी कुलदेवी का नामजप नहीं हो रहा था । एक दिन मैंने गुरुदेवजी को यह बताया, तब उन्होंने एक साधिका को सनातन का एक ग्रंथ लाने के लिए कहा । उस समय ‘अध्यात्मका प्रस्तावनात्मक विवेचन’ ग्रंथ के मुखपृष्ठ पर ‘कुलदेवी साधक को गुरुदेवजी की ओर ले जा रही हैं’, इस आशय का चित्र था । ग्रंथ पर स्थित वह चित्र दिखाकर गुरुदेवजी मुझे कहने लगे, ‘‘अभी आप मेरे पास आई हैं न, तो आपका कुलदेवी का नामजप कैसे होगा ?’’ इस प्रकार उन्होंने चित्र से यह सिखाया ‘गुरुदेवजी ही मेरे लिए सर्वस्व हैं ।’
गुरु की कृपा के बिना साधक ईश्वरप्राप्ति नहीं कर सकता । इसी प्रकार गुरुदेवजी मुझे अभी भी अनेक प्रसंगों के माध्यम से सिखा रहे हैं । उनसे अखंडित सीखते रहने के लिए प्रतिक्षण ‘शिष्या’ बनकर रहना है !’
– श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली मुकुल गाडगीळजी (७.१२.२०२२)