आंतरिक आनंद, संतोष एवं ‘श्रीकृष्णजी की सेवा’ के भाव से नृत्य करनेवालीं देहली की प्रसिद्ध भरतनाट्यम् नृत्यांगना एवं नृत्यगुरु पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन् !
ईश्वर प्राप्ति के लिए संगीत योग
नृत्यसाधना
२६.१०.२०२२ को महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की साधिका संगीत विशारद एवं संगीत समन्वयक सुश्री (कु.) तेजल पात्रीकर (आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत) ने देहली की प्रसिद्ध भरतनाट्यम् नृत्यांगना एवं कर्नाटक की गायिका पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन से भेंटवार्ता की । नृत्यगुरु होते हुए भी वे पद्मश्री सहित अनेक नागरिक पुरस्कारों से सम्मानित हैं । उन्होंने ‘दूरदर्शन, वीडियो, चलचित्र, रंगमंच, नृत्य संरचना, नृत्य शिक्षा एवं नृत्य से संबंधित पत्रकारिता’ में कार्य किया है ।
सुश्री (कु.) तेजल पात्रीकर से संवाद करने के पूर्व उन्होंने ‘बसो मोरे नैनन में नंदलाला’ इस बंदिश का गायन किया । उनकी सुलझी हुई नृत्यसाधना की यात्रा यहां दे रहे हैं ।
(भाग १)
१. पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन को नृत्यसाधना करते हुए प्राप्त भिन्न गुरु एवं उनसे सीखने के लिए मिले विशेषतापूर्ण सूत्र
१ अ. नृत्यगुरु श्रीमती स्वर्ण सरस्वती – इनसे नृत्यकुशलता के साथ ही नृत्यकला आत्मसात करना सीखना तथा उनके मार्गदर्शन से नृत्यप्रशिक्षण की नींव दृढ होना : ‘मैंने ५ वर्ष की आयु में श्रीमती स्वर्ण सरस्वती के मार्गदर्शन में नृत्य सीखना आरंभ किया । उन्होंने कभी भी प्रेक्षकों के लिए नृत्य प्रस्तुत नहीं किया । वे केवल धार्मिक कृत्यों के लिए नृत्यसेवा प्रस्तुत करती थीं । उनके लिए नृत्य ही ईश्वर की ‘पूजा’ और ईश्वर के लिए किया ‘समर्पण’ था । इसलिए उनका नृत्य कलात्मक एवं कौशलपूर्ण था । कौशल एवं कला में बहुत बडा अंतर है । हम कौशल सीख सकते हैं; परंतु कला आत्मसात करनी पडती है । उसे अनुभूत करना होता है एवं वह अपने कण-कण में बसानी पडती है । यह सीख मुझे स्वर्ण अम्मा ने दी । उनके मार्गदर्शन से मेरे नृत्यप्रशिक्षण की नींव दृढ हुई । वे एक उत्कृष्ट गायिका थीं । संगीत की सभी बारीकियां वे नृत्य द्वारा प्रकट करती थीं । उनकी नृत्यशैली में संगीत एवं नृत्य का सुंदर मेल-जोल रहता । वही शैली मैं आज भी संजोए रखती हूं । ‘ऐसे गुरु के पास मैं अनेक वर्ष नृत्य सीख सकी’, इसके लिए मुझे बहुत कृतज्ञता लगती है ।
१ अ १. श्रीमती स्वर्ण सरस्वती के द्वारा शिष्या की कभी भी प्रशंसा न करना : गुरु सदैव शिष्या को सर्व दृष्टि से उच्च स्थान की ओर ले जाने के लिए प्रयत्नरत रहते हैं । श्रीमती स्वर्ण सरस्वती ने कभी भी मेरी प्रशंसा (सराहना) नहीं की । वे केवल उनकी गरदन हिलातीं, जो मेरे लिए सबसे बडी प्रशंसा होती । इसलिए मुझे बुरा लगता एवं रोना आता । एक बार मेरी मां उनसे मिलने गई । तब उन्होंने मेरी मां से कहा, ‘उसे कैसे संभालना है, वह मुझे पता है । वह अच्छा नृत्य करती है; परंतु मैं कभी भी उसकी प्रशंसा नहीं करूंगी; क्योंकि वह सिर पर चढ जाएगी (उसका अहंकार बढ जाएगा) । मुझे उसकी नृत्य करने की क्षमता बढानी है ।’ गुरु शिष्य का व्यक्तित्व तथा स्वभाव सटीक पहचानते हैं ।
१ आ. दूसरे नृत्यगुरु दक्षिणामूर्ति : तदुपरांत मैंने दूसरे नृत्यगुरु दक्षिणामूर्ति के पास नृत्य सीखा । उन्होंने मुझे रंगमंच पर नृत्य करने का कौशल सिखाया । एक कलाकार की दृष्टि से वह भी महत्त्वपूर्ण है ।
१ इ. एक नृत्यांगना एवं अर्थशास्त्री श्रीमती जमुना कृष्णन् – इनके द्वारा समकालीन नृत्य सिखाया जाना : तत्पश्चात मैं श्रीमती जमुना कृष्णन् के पास नृत्य सीखने गई । उन्होंने मुझे समकालीन (टिप्पणी) नृत्य सिखाया । वे स्वयं एक नृत्यांगना तथा अर्थशास्त्री थीं । इसलिए मैं उन्हें भिन्न-भिन्न प्रश्न पूछती एवं उस पर विचार-विनिमय करती । आजकल की युवा पीढी कहती है कि हमने नृत्य देखा है, परंतु उसके संदर्भ में हमें कुछ भी पता नहीं । इसका मुझे बहुत बुरा लगता है । इस नृत्यकला में बहुत कुछ छिपा हुआ है । यदि बारंबार उसकी खोज करने का प्रयास करें, तो प्रत्येक समय एक-दो नए रत्न अथवा नया ज्ञान मिलेगा । नृत्ययात्रा बहुत लंबी एवं उतनी ही अद्भुत है । नृत्य में पहले से जो कुछ विद्यमान है, उसे ढूंढते समय मुझे प्रतिदिन रोमांचक लगता है । नृत्य एक अथाह सागर की भांति है । इसमें अनंत की यात्रा एवं खोज सदैव चलते रहेगी !
(टिप्पणी : समकालीन नृत्य – जिसमें आधुनिक, जैज, भावपूर्ण एवं शास्त्रीय नृत्य समाहित हैं । आज २० वें शतक में विकसित हुई यह एक प्रचलित शैली है ।)
२. नृत्य एवं संगीत केवल प्रस्तुतीकरण नहीं, अपितु वह सेवा का एक रूप होना
२ अ. वृंदावन में ‘राधारमण मंदिर’ में नृत्य करते समय नृत्य करने का उद्देश्य ध्यान में आना, तदुपरांत प्रेक्षकों के लिए नृत्य करने की अपेक्षा स्वयं की अंतर्शुद्धि, संतोष एवं आनंद के लिए नृत्य करना : ‘मेरे लिए नृत्य एवं संगीत केवल प्रस्तुतीकरण नहीं; अपितु वह सेवा का एक रूप है । श्रीकृष्णजी की सेवा विविध माध्यमों द्वारा कर सकते हैं । उसमें ‘गायन’, ‘वादन’ तथा ‘नृत्य’, ये तीनों सबसे उच्च स्तरीय सेवाएं हैं । ऐसा कहा जाता है कि श्रीकृष्णजी को प्रसन्न करने का यह सबसे सरल मार्ग है ।’ वर्षाें पूर्व मैं वृंदावन गई थी । वहां मुझे ‘राधारमण मंदिर’ में नृत्यसेवा का अवसर प्राप्त हुआ था । तब मुझे लगा, ‘यहां कुछ तो भिन्न हो रहा है ।’ ‘मैं नृत्य क्यों कर रही हूं ? उसका उद्देश्य क्या है ?’, वह उस समय मेरे ध्यान में आया । उसके पश्चात मैंने कभी भी प्रेक्षकों के लिए नृत्य नहीं किया । मैंने केवल इस नृत्यकला से कुछ विशेष अनुभव प्राप्त करने के लिए तथा अंतर्शुद्धि, आंतरिक संतोष एवं आनंद प्राप्ति के लिए नृत्य किया ।
२ आ. नृत्य एवं गायन का अभ्यास करने से आंतरिक आनंद एवं संतोष मिलना : मैं अपने आसपास के प्रभामंडल का (‘औरा’ का) मूल्यांकन नहीं कर सकती; परंतु ‘नृत्य करना तथा न करना’, इसमें व्याप्त अंतर को मैंने निश्चित ही अनुभव किया है । जिस दिन मेरे द्वारा नृत्य अथवा गायन का अभ्यास नहीं किया जाता, उसकी तुलना में जिस दिन अभ्यास किया जाता है, उस दिन मुझे आंतरिक शांति अनुभव होती है । उस दिन मेरा वर्तन अधिक अच्छा रहता है । प्रतिदिन नृत्य अथवा गायन का अभ्यास करने का महत्त्वपूर्ण कारण है कि अभ्यास करने से मुझे आंतरिक आनंद एवं संतोष मिलता है ।
(क्रमशः)
– पद्मश्री श्रीमती गीता चन्द्रन (भरतनाट्यम नृत्यांगना एवं नृत्यगुरु), देहली (२६.१०.२०२२)