आचार ही धर्म की नींव है !

‘धर्म’ वह है, जो व्यक्ति की ऐहिक एवं पारमार्थिक उन्नति के साथ समाजव्यवस्था उत्तम बनाए रखता है !

सात्त्विक आचार से हमारा दैनिक जीवन सात्त्विक बनाते समय हम ईश्वरीय गुणों को अंगीकृत करते हैं । गुणों के विकास से हमें ईश्वरप्राप्ति करना सुलभ होता है । हमारे पाठकों के लिए इस विषय में जानकारी यहां प्रस्तुत है ।

१. आचारप्रभवो धर्मः धर्मस्य प्रभुरच्युतः । – नारदपुराण, पूर्वखण्ड, अध्याय ४, श्लोक २२

अर्थ : धर्म आचार से उत्पन्न हुआ है तथा उस धर्म के प्रभु पुराणपुरुष अच्युत, अर्थात श्रीविष्णु हैं ।’

२. धर्मस्य निष्ठा तु आचारः ।  -  महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय २५१, श्लोक ६

अर्थ : (भीष्म कहते हैं,) ‘सदाचार धर्म का आधार है ।’

३. ‘धर्म आचारप्रधान है; अर्थात वह सदाचार की नींव पर टिका है । आचार से धर्म अभिव्यक्त होता है ।’

४. ‘धर्म वह है जो प्रजा को धारण करता है’, ऐसी धर्म की सामान्य व्याख्या है । धर्म का पालन सदाचार के नियमों का पालन करते हुए ही करना चाहिए । धर्म का पालन, अर्थात धर्मशास्त्र में बताई गई नीतियोंके अनुसार आचरण करना; क्योंकि धर्म आचाराधीन है ।

५. ‘आचार’ सदाचार हो या दुराचार; जब आचार को धर्म से जोडा जाता है, तब वह सदाचार ही होता है ।

६. ‘सनातन हिन्दू संस्कृति में आचार को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है । ‘प्रत्येक को श्रुति-स्मृतियों द्वारा प्रतिपादित आचारधर्म का पालन करना चाहिए’, इस पर धर्मशास्त्र बल देता है ।’

७. ‘आचारधर्म के कारण धर्म का अनुष्ठान सर्व लोगों के लिए सरल होता है । इससे जीवनसंघर्ष सुसह्य होता है ।’

८. ‘स्वयं का हित हो’, ऐसी इच्छा रखनेवाले व्यक्ति आचारों का पालन करें ।

आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च ।
तस्मादस्मिन् सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः ।।
– मनुस्मृति, अध्याय १, श्लोक १०८

अर्थ : वेद तथा स्मृति में प्रतिपादित श्रेष्ठ आचारधर्म का विवरण यहां दिया गया है । आचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है । अतः ‘स्वयं का हित होे’, ऐसी इच्छा रखनेवाले द्विज तथा बुद्धिमान, इस धर्म के पालन का प्रयास करते रहें ।

विवरण : ‘आचार ही श्रेष्ठ धर्म है । (मनुष्यजीवन में धर्मपालन हेतु ‘आचार’ ही प्रमुख हैं ।) इसलिए ‘स्वयं का हित हो, ऐसी इच्छा रखनेवाले द्विज को (ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य, इन तीनों वर्णोंके प्रत्येक व्यक्तिको) आचार के विषय में सदैव तत्पर रहना चाहिए । शूद्र आचार के विषय में त्रैवर्णिकों से मार्गदर्शन लेकर तदनुसार कृत्य करें ।’ – गुरुदेव डॉ. काटेस्वामीजी

९. आधुनिक शिक्षा से नहीं, अपितु धर्मशिक्षा प्राप्त कर तदनुसार आचरण करने से ही मनुष्यजन्म सार्थक होता है; क्योंकि धर्मशिक्षा से ही यह समझमें आता है, ‘आचार कैसा हो ।’

१०. ‘धर्माचरण का फल ‘ईश्वरभक्ति’ है ।’ ‘आचार जीव को मोक्षप्राप्ति करवाते हैं, इसलिए उन्हें ‘धर्म’ की संज्ञा प्रदान की गई है । हिन्दू धर्म ही मानव को उत्तम आचरण सिखाकर उत्तम आचार भी प्रदान करता है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी के माध्यम से)

११. निष्काम साधना से ही वास्तविक धर्माचरण सम्भव है । इससे मोक्षप्राप्ति होती है ।

१२. आचारधर्म अर्थात धर्म की अपेक्षासे अर्थ-काम का विनियोग : धर्मसापेक्ष अर्थ-कामका विनियोग शाश्वत वर्णधर्म, जातिधर्म तथा कुलधर्म से होता है । ऐसा है यह आचारधर्म ।

१३. आचार साधना की बीजस्वरूप नींव : ‘आध्यात्मिक उन्नति की साधनास्वरूप बीजरूपी नींव आचारधर्म पर ही आधारित है । यदि आचार उत्तम होगा, तो ही उत्तम विचारों का संवर्धन हो सकता है । यही सात्त्विक विचार जीव को ईश्वरीय गुणों को अंगीकृत करना अर्थात साधना करना सिखाते हैं । इसी से सत्त्वशील विचारों की निर्मिति होती है तथा मनुष्य चैतन्यमय होकर पिण्ड की चेतना के परे जाकर मोक्षप्राप्ति करता है ।’

– एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी के माध्यम से, २९.१०.२००७, सवेरे ९.४६)

(संदर्भ – सनातन का ग्रंथ ‘आचारधर्म : दिनचर्या’)