सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार
‘स्वतंत्रता से पूर्व के काल में राष्ट्र एवं धर्म का विचार करनेवाले जनप्रतिनिधि हुआ करते थे । स्वतंत्रता के उपरांत अपने उत्तरदायित्व का नहीं, केवल स्वार्थ का विचार करने वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या बढती गई । इस कारण राष्ट्र की स्थिति दयनीय हो गई है !’
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थकों, मानव को मानव देहधारी प्राणी मत बनाओ !
‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर उसके समर्थक आकाश सिर पर उठा लेते हैं । वे भूल जाते हैं कि प्राणी और मानव में महत्त्वपूर्ण भेद यही है कि प्राणी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अनुसार अर्थात स्वेच्छा से आचरण करते हैं; इसके विपरीत मानव व्यक्तिगत स्वतंत्रता को भूलकर, क्रमशः परिवार, समाज राष्ट्र एवं धर्म के हित का विचार कर आचरण करता है । इसका अर्थ है कि क्रमशः स्वेच्छा के स्थान पर परेच्छा से आचरण करना और अंत में ईश्वरेच्छा से आचरण करना उससे अपेक्षित
है । ऐसा करने पर ही वह वास्तव में मानव बनता है; अन्यथा वह केवल मानव देहधारी प्राणी रह जाता है !’
बच्चों को साधना न सिखाने का परिणाम !
‘बुढापे में बच्चे ध्यान नहीं देते’, ऐसा कहनेवाले वृद्धजनों, आपने बच्चों पर साधना के संस्कार नहीं किए, इसका यह फल है । इसके लिए बच्चों के साथ आप भी उत्तरदायी
हैं !’
– सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले