#Diwali गोवत्सद्वादशी का महत्त्व
१. गौका महत्त्व
वसुबारस अर्थात गोवत्स द्वादशी दीपावली के आरंभ में आती है । यह गोमाता का सवत्स अर्थात उसके बछडे के साथ पूजन करने का दिन है ।
२. व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र का उत्कर्ष करनेवाली गौ सर्वत्र पूजनीय है
सत्त्वगुणी, अपने सान्निध्यसे दूसरोंको पावन करनेवाली, अपने दूधसे समाजको पुष्ट करनेवाली, अपना अंग-प्रत्यंग समाजके लिए अर्पित करनेवाली, खेतोंमें अपने गोबरकी खादद्वारा उर्वराशक्ति बढानेवाली, ऐसी गौ सर्वत्र पूजनीय है । हिंदू कृतज्ञतापूर्वक गौको माता कहते हैं । जहां गोमाताका संरक्षण-संवर्धन होता है, भक्तिभावसे उसका पूजन किया जाता है, वहां व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्रका उत्कर्ष हुए बिना नहीं रहता। भारतीय संस्कृतिमें गौको अत्यंत महत्त्व दिया गया है ।
३. गौ में सभी देवताओं के तत्त्व आकर्षित होते हैं
गौ भगवान श्रीकृष्णको प्रिय हैं । दत्तात्रेय देवताके साथ भी गौ है । उनके साथ विद्यमान गौ पृथ्वीका प्रतीक है । प्रत्येक सात्त्विक वस्तुमें कोई-ना-कोई देवताका तत्त्व आकर्षित होता है । परंतु गौकी यह विशेषता है, कि उसमें सभी देवताओंके तत्त्व आकृष्ट होते हैं । इसीलिए कहते हैं, कि गौमें सर्व देवी-देवता वास करते हैं । गौसे प्राप्त सभी घटकोंमें, जैसे दूध, घी, गोबर अथवा गोमूत्रमें सभी देवताओंके तत्त्व संग्रहित रहते हैं ।
४. गोवत्सद्वादशी का अध्यात्मशास्त्रीय महत्त्व
शक संवत अनुसार आश्विन कृष्ण द्वादशी तथा विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण द्वादशी गोवत्स द्वादशीके नामसे जानी जाती है । यह दिन एक व्रतके रूपमें मनाया जाता है । गोवत्सद्वादशीके दिन श्री विष्णुकी आपतत्त्वात्मक तरंगें सक्रिय होकर ब्रह्मांडमें आती हैं । इन तरंगोंका विष्णुलोकसे ब्रह्मांडतकका वहन विष्णुलोककी एक कामधेनु अविरत करती हैं । उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए कामधेनुके प्रतीकात्मक रूपमें इस दिन गौका पूजन किया जाता है । गौ सात्त्विक है, इसलिए गोवत्सद्वादशीके दिन किए जानेवाले इस पूजनद्वारा उसके सात्त्विक गुणोंका सबको स्वीकार करना चाहिए । शक संवत अनुसार आश्विन कृष्ण द्वादशी तथा विक्रम संवत अनुसार कार्तिक कृष्ण द्वादशी गोवत्स द्वादशीके नामसे जानी जाती है । यह दिन एक कातके रूपमें मनाया जाता है ।
अ. दीपावली के काल में निर्माण होनेवाली अस्थिरता से वातावरण की रक्षा होना ।
दीपावलीके कालमें वातावरणमें ऊर्जामय शक्तिप्रवाह कार्यरत होता है । उसके कारण वातावरणका तापमान बढता है । परिणामस्वरूप पृथ्वीके वातावरणको सूक्ष्म स्तरपर हानि पहुंचती है । इससे वातावरणमें अस्थिरता उत्पन्न होती है । इस कारण होनेवाली हानिसे बचने हेतु दीपावली के पूर्व गोवत्सद्वादशीका व्रतविधान किया गया है । गोवत्सद्वादशीके दिन श्रीविष्णुके प्रकट रूपकी तरंगे वायुमंडलमें प्रक्षेपित होती है हैं । इन तरंगोंके माध्यमसे वातावरणमें स्थिरता बने रहनेमें सहायता होती है ।
आ. विष्णुलोक के कामधेनु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना ।
गोवत्सद्वादशीके दिन श्री विष्णुकी आपतत्त्वात्मक तरंगे सक्रीय होकर ब्रह्मांडमें आती हैं । इन तरंगोंका विष्णुलोकसे ब्रह्मांडतक का वहन विष्णुलोककी एक कामधेनु अविरत करती है । उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करनेके लिए कामधेनुके प्रतीकात्मक रूपमें इस दिन गौका पूजन किया जाता है ।
इ. श्री विष्णुकी के तरंगोंका लाभ प्राप्त करना ।
श्री विष्णुकी अप्रकट रूपकी तरंगे भूतलपर आकृष्ट करनेके लिए श्री विष्णुके प्रकट रूपकी तरंगे भी क्रियाशील होती हैं । इन तरंगोंको आकृष्ट करनेकी सर्वाधिक क्षमता गौमें होती है । गोवत्सद्वादशीके दिन गौमें श्री विष्णुके प्रकट रूपकी तरंगे आकृष्ट होनेके कारण वायुमंडलसे ब्रह्मांडतक श्री विष्णुकी चैतन्यदायी तरंगोंका आच्छादनके रूपमें प्रक्षेपण होता है । गौपूजन करनेवाले व्यक्तिको श्री विष्णुकी इन तरंगोंका लाभ होता है ।
५. गोवत्सद्वादशी व्रत के अंतर्गत उपवास
इस व्रतमें उपवास एक समय भोजन कर रखा जाता है । परंतु भोजनमें गायका दूध अथवा उससे बने पदार्थ, जैसे दही, घी, छाछ एवं खीर तथा तेलमें पके पदार्थ, जैसे भुजिया, पकौडी इत्यादि ग्रहण नहीं करते, साथ ही इस दिन तवेपर पकाया हुआ भोजन भी नहीं करते । प्रातः अथवा सायंकालमें सवत्स गौकी पूजा की जाती हैं ।
६. गोवत्सद्वादशी को गौपूजन प्रातः अथवा सायंकाल में करने का शास्त्रीय आधार
प्रातः अथवा सायंकाल में श्री विष्णुके प्रकट रूपकी तरंगें गौमें अधिक मात्रा में आकर्षित होती हैं । ये तरंगें श्री विष्णुके अप्रकट रूपकी तरंगों को १० प्रतिशत अधिक मात्रा में गतिमान करती है । इसलिए गोवत्सद्वादशी को गौपूजन सामान्यतः प्रातः अथवा सायंकाल में करने के लिए कहा गया है ।
गौपूजन आरंभ करते समय प्रथम आचमन किया जाता है । उपरांत ‘इस गौके शरीरपर जितने केश हैं, उतने वर्षोंतक मुझे स्वर्गसमान सुख की प्राप्ति हो, इसलिए मैं गौपूजन करता हूं । इस प्रकार संकल्प किया जाता है । प्रथम गौ पूजनका संकल्प किया जाता है । गोमाता को अक्षत अर्पित कर आवाहन किया जाता है । अक्षत अर्पित कर आसन दिया जाता है । तत्पश्चात पाद्य, अर्घ्य, स्नान इत्यादि उपचार अर्पित किए जाते हैं। वस्त्र अर्पित किए जाते हैं । उपरांत गोमाताको चंदन, हलदी एवं कुमकुम अर्पित किया जाता है । उपरांत अलंकार अर्पित किए जाते हैं । पुष्पमाला अर्पित की जाती है । तदुपरांत गौके प्रत्येक अंगको स्पर्श कर न्यास किया जाता है ।
गौ पूजन के उपरांत बछडे को चंदन, हलदी, कुमकुम एवं पुष्पमाला अर्पित की जाती है । उपरांत गौ तथा उसके बछडे को धूपके रूपमें दो उदबत्तियां दिखाई जाती हैं । उपरांत दीप दिखाया जाता है । दोनों को नैवेद्य अर्पित किया जाता है । उपरांत गौकी परिक्रमा की जाती है । तुलसीपत्र का हार अर्पित कर मंत्रपुष्प अर्पित किया जाता है । उपरांत पुन: अर्घ्य दिया जाता है । अंतमें आचमनसे पूजाका समापन किया जाता है ।
पूजन के उपरांत पुनः गोमाता को भक्तिपूर्वक प्रणाम करना चाहिए । गौ प्राणी है । भय के कारण वह यदि पूजन करने न दें अथवा अन्य किसी कारणवश गौका षोडशोपचार पूजन करना संभव न हों, तो पंचोपचार पूजन भी कर सकते हैं । इस पूजनके लिए पुरोहितकी आवश्यकता नहीं होती ।
७. गोवत्सद्वादशी से मिलनेवाले लाभ
गोवत्सद्वादशी को गौपूजन का कृत्य कर उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है । इससे व्यक्ति में लीनता बढती है । फलस्वरूप कुछ क्षण उसका आध्यात्मिक स्तर बढता है । गौपूजन व्यक्ति को चराचर में ईश्वरीय तत्त्वका दर्शन करने की सीख देता है । व्रती सभी सुखों को प्राप्त करता है ।
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव व व्रत’
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