व्यष्टि एवं समष्टि साधना करते समय आवश्यक प्रयास !
१. व्यष्टि साधना करते समय आवश्यक प्रयास
१ अ. समष्टि साधना करना संभव न हो, तो घर पर रहकर ही स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन की प्रक्रिया अपनानी चाहिए ! : ‘कुछ शारीरिक तथा पारिवारिक समस्याओं, साथ ही बीमारी के कारण जिन्हें समष्टि साधना करना संभव न हो, तो वे संतों के बताए अनुसार घर पर रहकर ही साधना और सेवा करने का प्रयास करें । ऐसे में घर के नित्य कर्म करते समय होनेवाली चूकें लिखकर रखना तथा उसके लिए प्रायश्चित भी लें । रात को सोते समय भगवान को घर के कामों का ब्योरा देने का प्रयास करें । घर के लोगों को ही हमारी ओर ध्यान रखने के लिए कहें तथा साधना में उनकी सहायता लें । उनके संदर्भ में स्वयं की कुछ चूकें ध्यान में आएं, तो उसके लिए अपने कान पकडकर उनसे क्षमायाचना करें ।
१ आ. साधना के कारण हमारे आचरण में आए सकारात्मक परिवर्तन को देखकर घर के अन्य सदस्यों का भी साधना आरंभ करना तथा उससे घर के वातावरण में परिवर्तन आना ! : हमने स्वयं ही अपनी शुद्धीकरण प्रक्रिया आरंभ की, तो घर के लोगों का हमारी ओर देखने का दृष्टिकोण बदलता है । बार-बार होनेवाली चूकों पर ध्यान रखकर उसके अनुसार स्वसूचनाएं लेने से धीरे-धीरे हममें समाहित स्वभावदोष अल्प होने लगते हैं तथा उससे हमारा चेहरा एवं मन आनंदित होने लगता है । घर के लोगों को भी हममें आया परिवर्तन दिखाई देने लगता है । स्वयं की अपेक्षा हमारे घर के सदस्य ही हमारे आचरण का निरीक्षण करते रहते हैं । साधना के कारण हममें आई स्थिरता को देखकर अन्यों को भी हमारा आधार लगने लगता है । उन्हें लगता है, ‘अरे, ये पहले कैसे थे और साधना कर इनमें कितने सकारात्मक परिवर्तन आए हैं ?’ उस समय घर के अन्य सदस्य भी धीरे-धीरे हमारा आदर्श सामने रखकर साधना करने लगते हैं । इससे घर के कुल वातावरण में ही परिवर्तन आ जाता है ।
१ इ. ‘घर में हमारे साथ साक्षात भगवान हैं’, इस दृढ श्रद्धा से साधना करनी चाहिए ! : घर में अकेले रहकर साधना करना संभव हो, ऐसी सरल सेवाएं ही करनी चाहिए । ‘मैं घर में अकेली हूं, तो मैं क्या कर सकूंगी ?’, ऐसा विचार नहीं करना है । हमारे साथ साक्षात भगवान हैं, वे ही समस्त ब्रह्मांड के संचालनकर्ता हैं । वे हमारे जीवन के सारथी हैं’, इस दृढ श्रद्धा के साथ ही साधना करनी चाहिए ।
२. साधना की प्रगति के लिए समष्टि साधना का महत्त्व
२ अ. भगवान सहसाधकों के माध्यम से हमारे दोष दिखा देते हैं; इसलिए समष्टि में साधना दांव पर लगना : अकेले रहकर हमें जितना सीखने के लिए नहीं मिलता, उतना समष्टि में आने पर सीखने का अवसर मिलता है । समष्टि में रहने से हमारे गुण एवं दोष तुरंत हमारे ध्यान में आते हैं । हमारी साधना की कसौटी समष्टि में जाने पर ही होती है । घर में रहकर नामजपादि साधना करना सरल है; क्योंकि वहां हमें कोई हमारे स्वभावदोष नहीं दिखाते; परंतु समष्टि साधना करते समय भगवान हमारे सहसाधकों के माध्यम से सहस्रों आंखों से हमारे गुण-दोष देखते रहते हैं ।
२ आ. समष्टि में अपने मन से करने का भाग अल्प होकर अहं-निर्मूलन होने में सहायता मिलना : अकेले होते समय हम जो करते हैं, वह सही अथवा चूक, स्थूल से यह बतानेवाला कोई साथ नहीं होता । अकेलेपन से बाहर निकलकर जब हम समष्टि के साथ साधना करने लगते हैं, उस समय अपने मन से कुछ करने का भाग अल्प होकर अन्यों की बात सुनने की वृत्ति बढती है । अन्यों से पूछकर कार्य करने का संस्कार मिलता है । उसके कारण हमारा अहं अल्प होने में सहायता मिलती है ।
२ इ. समष्टि साधना करते समय सहसाधकों द्वारा बताई चूकों को स्वीकार करने से भगवान को प्रिय ‘विनम्रता’ गुण का संवर्धन होना : समष्टि साधना करने के लिए अनुकूल वातावरण हो, तो ऐसे में हमें सहसाधकों के सान्निध्य में जाकर सेवा को ही अधिक प्रधानता देनी चाहिए; क्योंकि उसके कारण हमारी प्रगति शीघ्र होती है । समष्टि में सहसाधकों के माध्यम से ‘समष्टि-ईश्वर’ हमें हममें स्थित गुण-अवगुण दिखाकर साधना में आगे बढने में सहायता करते रहते हैं । इसलिए सहसाधक जब हमारी चूकें दिखाते हैं, तब अंतर्मन से हमें उन्हें स्वीकार करना चाहिए । इसी में हमारा हित होता है । स्वीकार करने की वृत्ति बढने से हममें ‘विनम्रता’ गुण का संवर्धन होता है । विनम्रता के कारण हम साधकों के, संतों के तथा अंततः ईश्वर के भी लाडले बन जाते हैं ।
२ ई. समष्टि सत्संग के कारण मनोलय एवं बुद्धिलय होकर ईश्वर की प्राप्ति होना : समष्टि के सत्संग का बडा महत्त्व है । जितना संभव है, उतना समष्टि में रहकर साधना तथा सेवा करने का प्रयास कर स्वयं की चूकों की ओर निरंतर ध्यान देने से तीव्र गति से गुरुकृपा प्राप्त की जा सकती है । उसके कारण मनोलय एवं बुद्धिलय होने से ईश्वरप्राप्ति शीघ्र होती है ।’
– श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळ (२६.३.२०२०)