बांसुरीवादन के द्वारा संगीत साधना, क्रियायोग की ध्यानसाधना तथा चिन्मय मिशन की ज्ञानसाधना के आनंद की निरंतर अनुभूति लेनेवाले बांसुरीवादक पंडित हिमांशु नंदा !
महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय की संगीत समन्वयक सुश्री (कु.) तेजल पात्रीकर (आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत, संगीत विशारद) ने पंडित हिमांशु नंदा से उनके पुणे स्थित आवास पर भेंट की । उस समय सुश्री (कु.) तेजल ने उनकी संगीत साधना के विषय में उनसे संवाद किया । इस लेख में पंडित हिमांशु नंदा द्वारा की गई संगीत एवं आध्यात्मिक साधना तथा उस विषय में उनके विचार से संबंधित सूत्र दिए गए हैं ।
१. पंडित हिमांशु नंदा का परिचय
पंडित हिमांशु नंदा मैहर घराने के सुप्रसिद्ध बांसुरीवादक पद्मविभूषण पंडित हरिप्रसाद चौरसिया के शिष्य हैं । वे मूल ओडिशा के हैं तथा वर्तमान में पुणे में रह रहे हैं । उन्होंने ‘चिन्मय मिशन’ के पू. स्वामी तेजोमयानंदजी की प्रेरणा से स्थापित ‘चिन्मय नादबिंदु गुरुकुल’ के संगीत निर्देशक (म्युजिक डाइरेक्टर) के रूप में कार्य किया है । वर्तमान में वे देश-विदेशों के अनेक विद्यार्थियों को बांसुरीवादन की शिक्षा दे रहे हैं ।
२. पंडित हिमांशु नंदा द्वारा अनुभव किया हुआ श्री गुरु का मार्गदर्शन !
२ अ. धृपद परंपरा के ८ मात्रा के जोड की गणना करने में चूकने से श्री गुरु की शरण में जाना और श्री गुरु ने केवल ‘ध्यान करो’, इतना ही कहना : धृपद परंपरा में (टिप्पणी १) एक जोड (टिप्पणी २) होता है । इसमें ८ मात्रा का एक आवर्तन होता है । उसमें तबला नहीं बजता, अपितु ८ मात्राओं का यह चक्र अपने मन में गिनना होता है; परंतु मुझे यह करना संभव नहीं हो रहा था । इसलिए मैं गुरु के पास जाकर उनकी शरण में गया । वे मुझे कहने लगे, ‘‘ध्यान करो ।’’ उसके अनुसार ध्यान करने से ‘संगीत में ध्यान क्या होता है ?’, यह मेरी समझ में आ गया । गुरु मेरे साथ केवल आध्यात्मिक विषयों पर ही बोलते थे । वे सदैव कहते थे, ‘‘संगीत का अर्थ केवल सिखना नहीं है, अपितु वह जीवन जीने का एक मार्ग है ।’’
टिप्पणी १ – भारतीय संगीत ख्याल गायकी के प्रचार में आने से पूर्व धृपद-धमार गायकी में ही समाया हुआ था । उस काल की अत्यंत लोकप्रिय गायनशैली थी धृपद !
टिप्पणी २ – धीमी गति की आलापी और उसके उपरांत थोडीसी लय बढाकर वादन करते हैं, उसे ‘जोड’ कहते हैं ।
२ आ. श्री गुरु ने जब ‘आनंदप्राप्ति के लिए तुम्हें सबकुछ छोडना पडेगा’, ऐसा कहा, तब एक क्षण भी विचार किए बिना आयु के ३० वें वर्ष में सबकुछ छोडकर गुरुकुल में जाना : वर्ष २००५ में श्री गुरु से कहा, ‘‘मैं पैसा अर्जित कर रहा हूं । मुझे काम मिल रहा है । मेरे सांगितिक जीवन में स्थिरता आई है; परंतु तब भी मैं आनंदित नहीं हूं ।’’ तब श्री गुरु ने कहा, ‘‘तो तुम्हें सबकुछ छोडना पडेगा ।’’ यह सुनते ही मैने एक क्षण का भी विलंब लगाए बिना सबकुछ छोडने के लिए तैयार हुआ । मैने ‘आई.आई.टी.’ की बांसुरीवादन सिखाने की अर्धकालीन नौकरी छोड दी ।’’ उस समय मैं केवल ३० वर्ष का था; परंतु तब भी मैं सबकुछ छोडकर गुरुकुल में रहने के लिए गया ।
सबकुछ छोडने का निर्णय सरल नहीं होता । उसके लिए गुरुकृपा ही चाहिए । श्री गुरु की कृपा के बिना कोई भी इतना महत्त्वपूर्ण निर्णय नहीं ले सकता । कुछ छोडे बिना नया कुछ नहीं मिलता । मैने नौकरी छोडी, उसका मुझे अभी भी दुख नहीं लगता; क्योंकि इस काल में मुझे श्री गुरु का सत्संग मिला ।
(‘श्री गुरु के प्रति की निष्ठा के कारण ही पंडित हिमांशु इतना बडा निर्णय ले पाए । इससे उनमें विद्यमान गुरुनिष्ठा, साधना की तीव्र लालसा और श्री गुरु का आज्ञापालन, ये गुण हम सीख सकते हैं ।’ – संकलनकर्ता)
३. पंडित हिमांशु नंदा के श्री गुरु के प्रति विचार !
भारत की गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार श्री गुरु शिष्य पर क्रोधित होते हैं और आवश्यकता पडने पर गालियां भी देते हैं; परंतु शिष्य को उसका बुरा नहीं लगता । अन्य किसी ने गाली दी, तो क्रोध आएगा; परंतु श्री गुरु ने गाली दी, तो शिष्य कहता है, ‘यह तो श्री गुरु की कृपा हुई !’ यही शिष्य का समर्पण है ।
४. पंडित हिमांशु नंदा के संगीत के विषय में मौलिक विचार !
४ अ. मंत्रजप एवं संगीत से संबंधित कोई कृति, उदा. पलटा (टिप्पणी ३) अथवा षड्ज लगाना एक समान होना; क्योंकि इन दोनों में मन को एकाग्र करने की आवश्यकता होना : संगीत अथवा कोई मंत्रजप तो मन का प्रशिक्षण ही है । इन दोनों विषयों में मन को एकाग्र करना पडता है, उदा. एक घंटा षड्ज (‘सा’ स्वर ) लगाना अथवा १०८ बार मंत्रजप करना, ये दोनों एक ही हैं । एक पलटा एक घंटेतक एक ही लय में बजाना तथा मंत्रजप करने में कोई भी अंतर नहीं है । इसके लिए मन की एकाग्रता तथा श्री गुरु के मार्गदर्शन की आवश्यकता है ।
टिप्पणी ३ – नियमबद्ध आरोह-अवरोह (स्वरों के बढते एवं ढलते क्रम) वाले स्वरसमूहों को ‘पलटा’ कहते हैं ।
४ आ. संगीत साधना के कारण व्यक्तित्व का विकास होना : एक अच्छा गुरु ही उसके शिष्य के व्यक्तित्व का विकास कर सकता है । संगीत सामान्य साधक को संगीतकार बनाता है । सामान्य साधक का संगीतकार बनना एक विकास है । प्राथमिक स्तर को मैं भी ‘सा रे ग म..’ ही बजाता था । अब आगे जाने पर समझ में आता है, ‘यह अथांग सागर है !’ मनुष्य का इस प्रकार से विकास होना ही व्यक्तित्व में सुधार आना है !
४ इ. ‘जीवन में कोई बडा बनना है’, ऐसा लक्ष्य रखना ही जीवन को व्यर्थ गंवाना है । उसकी अपेक्षा ‘भगवान मुझे कहां ले जा रहे हैं ?’, इसकी ओर ध्यान देना आवश्यक होना : १० वर्ष पूर्व आपने मुझे पूछा होता, ‘‘आप संगीत क्षेत्र में क्यों कार्यरत हैं ?’’ तो मैने कहा होता, ‘‘मुझे बडा कलाकार बनना है !’’ अब ऐसा ‘कुछ अलग बनने की’ आवश्यकता ही प्रतीत नहीं होती । बाहर के कलाकारों का ‘मुझे बडा कलाकार बनकर बहुत पैसे कमाने हैं’, यह ध्येय होता है । ‘मैने ऐसा कोई ध्येय नहीं रखा, अपितु भगवान मुझे कहां ले जाएंगे, वहां मैं जानेवाला हूं । ‘उन्होंने मेरे लिए मार्ग निर्धारित किया है’, यह ध्यान में आ गया, तो जीवन बहुत सरल बन जाता है । ‘कुछ तो बनने की होड में हम अपना जीवन जीना ही भूल जाते हैं । इसके लिए ‘भगवान हमें कहां ले जा रहे हैं ?’, इसकी ओर ध्यान देना चाहिए ।’
(‘इससे ‘पंडित हिमांशु स्वेच्छा से ईश्वरेच्छातक पहुंच गए हैं’, यह ध्यान में आता है ।’ – संकलनकर्ता)
४ ई. पूर्वाभ्यास सिखते समय विद्यार्थियों से केवल वादन न करवा लेकर उन्हें सात्त्विक जीवनशैली सिखाकर उनसे ध्यान करवा लेना : विद्यार्थियों को सिखाते समय हम उनसे केवल बांसुरीवादन ही नहीं करवा लेते, अपितु उसके साथ ही उनसे ध्यान करवा लेना, उन्हें सात्त्विक जीवनशैली सिखाना इत्यादि सात्त्विक कृत्य करवा लेते हैं । उसके कारण ‘समाज के सात्त्विक बच्चे ही यहां आकर्षित होते हैं’, यह मेरे ध्यान में आया है ।
५. अन्य वाद्यों की तुलना में बांसुरी की अलग विशेषताएं !
५ अ. मानवीय शरीर की भांति बांसुरी में भी ९ छेद होना : बांसुरी में ७ छेद तथा उपर के ७ छेदों और नीचे की रिक्ति को मिलाकर कुल ९ छेद होते हैं । मनुष्य शरीर में भी ९ द्वार हैं; उसके कारण मनुष्य शरीर और बांसुरी में समानता है ।
५ आ. बांसुरी में फूंक मारी जाती है, तो योग करने समय सांस ली जाती है और छोडी जाती है । इसका अर्थ ‘बांसुरी बजाना’ भी एक प्रकार का योग ही है ।
५ इ. बांसुरीवादन – एक साधना ! : आध्यात्मिक साधना का उच्चतम ध्येय क्या है ? स्वयं को संपूर्णरूप से रिक्त अर्थात अहंकाररहित बनाना ! बांसुरी मूलतः रिक्त ही है । बांसुरीवादन केवल वादन नहीं है, अपितु हम उसकी ओर साधना के रूप में देख सकते हैं । भगवान श्रीकृष्ण ने बांसुरीवादन किया; क्योंकि बांसुरी अन्य वाद्यों की तुलना में बहुत ही सादगीपूर्ण है । भगवान को इससे सादगी सिखानी है ।
६. अंततः नाद को छोडने से ही अनाहत नाद की प्राप्ति
‘आरंभ में विद्यार्थी को आलंबन अर्थात एकाग्रता अथवा अनुसंधान करना सिखाना पडता है । उसके उपरांत उसे सब छोडना ही पडता है । वादन को भी छोडना पडता है और नाद को भी छोडना पडता है; क्योंकि इससे भी उच्च स्थिति शांति है । वहां किसी नाद का अस्तित्व नहीं होता । यह शांति हममें स्वयंभू है । वाद्यों का नाद आहतनाद है, तो शांति ‘अनाहत नाद’ है । उसके कारण शांति के अनाहत नाद को प्राप्त करना हो, तो वाद्यों के इस नाद को छोडना पडता है । मनुष्य के अंदर से स्थिर होने पर ही उसे अंदर का शांति का नाद अर्थात ‘अनाहत नाद’ सुनाई देता है । साधक जब उस नाद से एकरूप होता है, तब बाहर के अन्य सभी नाद उसे शोर (Noise) लगने लगते हैं ।’
– सुश्री (कु.) तेजल पात्रीकर (आध्यात्मिक स्तर ६२ प्रतिशत, संगीत विशारद) संगीत समन्वयक, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा.