दायित्व लेकर सेवा करते समय स्वयं में होनेवाले अहं का निरीक्षण करने के संदर्भ में ६४ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर की कु. मधुरा भोसले द्वारा बताए गए मार्गदर्शक सूत्र !
‘दैवी बालसाधकों का ‘बालसत्संग’ लेने की अमूल्य सेवा मुझे प्राप्त हुई थी । उस समय मुझे बहुत कृतज्ञता लगी और मेरा भाव जागृत हुआ । ईश्वर कृपा से प्रतिदिन मैंने दैवी बालसाधकों का सत्संग लेना आरंभ किया । तत्पश्चात मेरे मन में विचार आने लगे कि, ‘मुझे दैवी बालसाधकों का सत्संग लेने का दायित्व दिया गया है । मुझे निरंतर कुछ बालसाधकों को सिखाने के लिए तथा उन्हें साधना की दृष्टि से सहायता करने के लिए बताया गया है । ‘इन सभी बातों से मेरा अहं बढकर मेरी साधना में अवनति तो नहीं होगी ?’ इस संदर्भ में मैंने परात्पर गुरुदेवजी को बहुत बारमन से प्रार्थना की । निरतंर शरणागत भाव में रहने का प्रयास किया । परंतु उन विचारों के कारण मुझे भय लगने से मैं हिम्मत हारने लगी ।
एक दिन इस संदर्भ में मैंने कु. मधुरा भोसले को बताया । उस समय उनके माध्यम से मुझे अनेक अनमोल सूत्र सीखने को मिले । ‘हे गुरुदेव, आप की अनंत कृपा के कारण मधुराताई के माध्यम से आपने मुझे जो सूत्र सीखाएं, वह लिखने का प्रयास कर रही हूं ।
(भाग १)
१. दायित्व लेकर सेवा करते समय ‘क्या मेरे अहं में वृद्धि होगी ?’, यदि ऐसा विचार मन में आ रहा है, तो यह दृष्टिकोण रखें
अ. ‘मैं अन्यों की अपेक्षा निराली हूं अथवा उनकी अपेक्षा श्रेष्ठ हूं ’, यदि ऐसे विचार मन में आ रहे हैं, तो स्वयं का अहं बढ रहा है’, यह ध्यान रखें । निरंतर सीखने की स्थिति में रहनेसे अहं नहीं बढता ।
आ. यदि अन्य साधक हमें कुछ सुझाव दें, तो उसे स्वीकार करें ।
इ. अपने आध्यात्मिक स्तर का कभी भी विचार न करें ।
ई. किसी ने यदि हमारी प्रशंसा की, तो ईश्वर के चरणों में अर्पण करें ।
उ. यदि हमारे मन में अहं के विचार हैं, तो अपराधीभाव से क्षमायाचना करें । साथ ही यदि मन में अहं के विचार नहीं हैं, तो शरणागतभाव से ईश्वर को प्रार्थना करें ।
ऊ. यह दृढ श्रद्धा रखें कि, ‘ईश्वर का मेरी ओर ध्यान है । अतः वह मेरे अहं की वृद्धि होने ही नहीं देंगें ।
२. अहं न्यून होने के लिए करने के प्रयास
अ. जिनमें अहं नहीं है, वही अन्यों का अहं नष्ट कर सकता है । अतः ऐसे परम श्रेष्ठ ईश्वर को ही शरण जाना चाहिए तथा उसे निरंतर प्रार्थना करनी चाहिए कि, ‘हे परमेश्वर, तेरे अतिरिक्त मेरा कोई भी नहीं है ।’
आ. यदि अन्य साधकों ने हमारी चूक बताई, तो तुरंत हमें स्वीकार करना चाहिए । ऐसा किया, तो ही अपना अहं न्यून होता है । इसके विपरित यदि हमने उसका ‘स्पष्टीकरण दिया, तो यह बात ध्यान में रखें कि, हमारा अहं बढा हुआ है अथवा कार्यरत हुआ है ।’
इ. हम किसी से भी कुछ भी अपेक्षा न रखें । हमें चिंतन करने के पश्चात ही अपना मत समष्टि में प्रस्तुत करना चाहिए । तदनंतर समष्टि ने हमें कुछ सुझाव दिया, तो वह भी सुनना चाहिए ।
ई. हमारे मन में यदि किसी सेवा के प्रति संभ्रम निर्माण हुआ है, तो हमें अपने स्तर पर विचार अथवा कृती करने की अपेक्षा उत्तरदायी साधक को पूछना चाहिए । पूछकर करने की वृत्ति के कारण हमारा अहं न्यून होता है ।
३. निरंतर भावस्थिति में रहने से सुप्त अहं के साथ लडना सहज होना
जिस समय हमारा भाव जागृत रहता है, उस समय अपना अहं सुप्त रहता है । साथ ही जिस समय हमारी भावस्थिति नहीं रहती, उस समय अपना अहं कार्यरत रहता है । हमारा अहं न्यून करने के लिए निरंतर भावस्थिति में रहना आवश्यक होता है ।
४. भावस्थिति में कैसे रहें ?
‘भावस्थिति अर्थात ईश्वर ही सर्व कर रहे हैं’, ऐसा ही निरतंर लगना । ‘हम शरीर से कुछ भी करें, किंतु हमारा अनुसंधान ईश्वर के साथ रहना चाहिए’, अर्थात भावस्थिति में रहकर सेवा करना ।
५. ‘सात्त्विक अहं’ सूक्ष्म अहं रहता है । वह भी हमें नहीं चाहिए ।
मधुराताई के यह सूत्र बताने के पश्चात मुझे स्वयं में स्थित सात्त्विक एवं सूक्ष्म अहं प्रतीत हुआ । तत्पश्चात मैंने मेरी गुणवृद्धि करने के लिए प्रत्येक बालसाधक का निरीक्षण करना आरंभ किया । उससे मुझ में स्थित अहं न्यून होने के लिए सहायता प्राप्त हुई तथा मैं निरंतर सीखने की स्थिति में रहने का प्रयास करने लगी ।’ (अगले रविवार के दिन क्रमशः पढें )
– कु. अपाला औंधकर (आयु १४ वर्ष, आध्यात्मिक स्तर ६१ प्रतिशत), महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा । (१८.१०.२०२१)