स्वयंभू गणेशमूर्ति
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स्वयंभू गणेशमूर्ति का महत्त्व
श्री विघ्नेश्वर, श्री गिरिजात्मज एवं श्री वरदविनायक की मूर्तियां स्वयंभू हैं । बनाई गईं श्री गणेशमूर्ति की तुलना में स्वयंभू गणेशमूर्ति में चैतन्य अधिक होता है । स्वयंभू गणेशमूर्ति द्वारा वातावरणशुद्धी का कार्य अनंत गुना अधिक होता है । ऐसी मूर्ति एक ही समय पर सर्व दिशाओं में समान मात्रा में सात्त्विकता प्रक्षेपित कर सकती है ।
१. विशेषताएं
अ. स्वयंभू गणेशमूर्ति निसर्ग द्वारा ईश्वर की इच्छा से बनी होने से मानव द्वारा बनाई मूर्ति की तुलना में अधिक चैतन्यदायी होती हैं ।
आ. ऐसी मूर्ति में निर्गुण तत्त्व, अर्थात श्री गणेश के मूलतत्त्व की मात्रा अधिक होती है । वे तेजतत्त्व के अगले चरण पर (उदा. वायु, आकाश) कार्य करनेवाली होती हैंै ।
इ. स्वयंभू गणेशमूर्ति का चैतन्य टिके रहने की अवधि भी मानव-निर्मित मूर्ति से अधिक होतीहै ।
ई. स्वयंभू गणेशमूर्ति में किसी अवयव की (उदा. सूंड, कान, नेत्र आदि) बनावट अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से योग्य न भी हों, तब भी उसमें श्री गणेशतत्त्व कार्यरत होता है; इसलिए कि इस मूर्ति को स्थल और काल का बंधन नहीं होता है । इसके विपरीत मानव-निर्मित गणेशमूर्ति के सर्व अवयव धर्मशास्त्रानुसार बनाए होंगे, तब ही उसमें श्री गणेशतत्त्व आता है ।
उ. यह मूर्ति काल के अनुरूप उत्पन्न हुई होती है ।
ऊ. स्वयंभू गणेशमूर्ति में गणेशतत्त्व मूलतः कार्यमान होता है । इसके विपरीत मानव-निर्मित गणेशमूर्ति में पूजापाठ अथवा प्राणप्रतिष्ठा कर उसे लाना होता है ।
२. महत्त्व
अ. मानव-निर्मित मूर्ति सकाम साधना में फलदायी होती है, जबकि स्वयंभू गणेशमूर्ति निष्काम साधना में फल देनेवाली होती है ।
आ. स्वयंभू श्री गणेशमूर्ति का क्षेत्र एवं वातावरण शुद्धि के कार्य भी अनंत गुना अधिक होता है । एक ही समय पर समान मात्रा में सर्व दिशाओं में वह कार्य कर सकती है ।
– श्रीमती अंजली गाडगीळ, सनातन आश्रम, रामनाथी, फोंडा, गोवा.
सौजन्य : सनातन संस्था