पितृपक्ष में श्राद्ध !
पितृपक्ष के निमित्त…
हिन्दू धर्मशास्त्र में बताए गए ईश्वरप्राप्ति के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है – ‘देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण एवं समाजऋण, ये चार ऋण चुकाना’ । इनमें से पितृऋण चुकाने के लिए ‘श्राद्ध’ करना आवश्यक है । माता-पिता, तथा अन्य निकटसंबंधियों के मृत्यु उपरांत की यात्रा सुखमय एवं क्लेश रहित हो, उन्हें सद्गति मिले इस हेतु किए जानेवाले संस्कार अर्थात ‘श्राद्ध’ । श्राद्ध के मंत्रोच्चारों में पितरों को गति देने की सूक्ष्म शक्ति समाहित होती है । श्राद्ध के माध्यम से पितरों को हविर्भाग देने से वे संतुष्ट होते हैं । इसके विपरीत श्राद्ध न करने से पितरों की इच्छा अतृप्त रहने से ऐसे वासना युक्त पितर अनिष्ट शक्तियों के नियंत्रण में जाकर उनके दास (गुलाम) बनते हैं । ऐसे पितरों का उपयोग कर अनिष्ट शक्तियां परिवार के सदस्यों को अधिक मात्रा में कष्ट दे सकती हैं । श्राद्ध के कारण पितरों की इन कष्टों से मुक्ति होती है तथा हमारा जीवन भी सुलभ होता है ।
श्राद्ध का इतना महत्त्व होते हुए भी आज हिन्दुओं में धर्मशिक्षा का अभाव, अध्यात्म पर अविश्वास, उनकी विचारधारा पर पश्चिमी संस्कृति के अंधानुकरण का प्रभाव इत्यादि के कारण श्राद्धविधि दुर्लक्षित, काल्पनिक तथा अनावश्यक कर्मकांड में गिना जाने लगा है; इसलिए अन्य संस्कारों के समान ही ‘श्राद्ध’ संस्कार की आवश्यकता के विषय में बताना महत्त्वपूर्ण है । १० से २५ सितंबर २०२२ की कालावधि में पितृपक्ष है । इस निमित्त श्राद्ध संबंधी लेख प्रकाशित कर रहे हैं ।
श्राद्ध करने की पद्धति
अ. भाद्रपद प्रतिपदा से अमावस तक प्रतिदिन महालयश्राद्ध करना चाहिए, ऐसा शास्त्रवचन है । यदि यह संभव न हो, तो जिस तिथि पर अपने पिता का देहांत हुआ हो, उस दिन इस पक्ष में सर्व पितरों को उद्देशित कर महालयश्राद्ध करने का परिपाठ है । यह श्राद्ध पितृत्रयी – पिता, पितामह (दादा), प्रपितामह (परदादा); मातृत्रयी-माता, पितामही, प्रपितामही; सापत्नमाता, मातामह (नाना), मातृपितामह, मातृप्रपितामह, मातामही (नानी), मातृपितामही, मातृप्रपितामही, पत्नी, पुत्र, कन्या, पितृव्य (चाचा), मातुल (मामा), बंधु, बूआ, मौसी, बहन, पितृव्यपुत्र, जंवाई, बहनका बेटा, ससुर-सास, आचार्य, उपाध्याय, गुरु, मित्र, शिष्य इन सबके प्रीत्यर्थ करना होता है । जो कोई जीवित हैं, उन्हें छोडकर अन्य सभी का नाम लेकर इसे करते हैं ।
आ. देवताओं की जगह धूरिलोचन संज्ञक विश्वेदेव को लें । संभव हो, तो भगवान के लिए दो, चार पार्वण (मातृत्रयी, पितृत्रयी, मातामहत्रयी एवं मातामहीत्रयी) हेतु प्रत्येक के लिए तीन एवं पत्नी इत्यादि एकोद्दिष्ट गण हेतु, प्रत्येक के लिए एक ब्राह्मण बुलाएं । इतना संभव न हो, तो देवता के लिए एक, चार पार्वणों के लिए चार और सर्व एकोद्दिष्ट गण के लिए एक, ऐसे पांच ब्राह्मण बुलाएं ।
इ. योग्य तिथि पर महालयश्राद्ध करना संभव न हो, तो ‘यावद्वृश्चिकदर्शनम्’ अर्थात सूर्य के वृश्चिक राशि में जाने तक किसी भी योग्य तिथि पर करें ।’
(संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ ‘श्राद्धविधिका अध्यात्मशास्त्रीय आधार’)