सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी के अमृतवचन !
१. मनमुक्तता का महत्त्व
अ. ‘जब (खेत में) नदी का पानी आता है, तब उसे पाट बनाकर दिशा देनी पडती है; अन्यथा वह समस्त (खेत) नष्ट कर देता है । उसीप्रकार मन में आ रहे विचारों को दिशा देनी पडती है ।
आ. ‘मन खोलना’, अर्थात ईश्वर द्वारा सुझाया गया बोलना एवं बताना । मन खाली करने के उपरांत ही वह शांत होता है । मन खोलना, अर्थात ‘हमें जो लगता है नहीं बताना चाहिए’, वही बताना ।
इ. मनोबल के साथ ही आत्मबल बढता है ।
२. स्वभावदोष एवं अहं
अ. (बुरी) आदतों को छोडने के लिए ईश्वर के सामने ध्येय रखकर कृति करने का प्रयत्न करना ।
आ. अपना निरीक्षण जागृत रहना चाहिए, तभ ही स्वयं में अहं के पहलू एवं त्रुटियां ध्यान में आती हैं ।
इ. जो अपनी चूकें बताता है एवं मान्य करता है, वही ईश्वर को प्रिय है एवं ईश्वर उसी की रक्षा करते हैं ।
ई. ‘हम जो भी करते हैं, वह अपनी शुद्धि के लिए है’, यह ध्यान में रखें ।
(संग्राहक : कु. पूनम चौधरी, देहली (९.१.२०२१))