सामाजिक माध्यम चला रहे हैं ‘मनमानी न्यायालय´! – मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमणा
रांची (झारखंड) – हम देखते हैं कि सामाजिक माध्यम ‘मनमाना न्यायालय’ (कंगारू कोर्ट) चला रहे हैं । इसके कारण कभी-कभी अनुभवी न्यायाधीशों को भी योग्य-अयोग्य न्यायदान देने में कठिनाई होती है । मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमणा ने आलोचना की है कि कई न्यायिक स्रोतों पर दी जानेवाली त्रुटिपूर्ण सूचनाएं और अपनी पसंद की कार्यसूची आगे करना लोकतंत्र के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है । रमणा यहां एक कार्यक्रम में बोल रहे थे ।
"Media Running Kangaroo Courts, Agenda-Driven Debates" : CJI Ramana Expresses Concerns Over Campaigns Against Judges https://t.co/elI7n1dWFV
— Live Law (@LiveLawIndia) July 23, 2022
मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमणा द्वारा प्रस्तुत सूत्र
दायित्वशून्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यम !
हम अपने उत्तरदायित्व से भाग नहीं सकते । यह ‘प्रवृत्ति’ (मनमानी न्यायालय चलाने की) हमें दो कदम पीछे ले जा रही है । यद्यपि मुद्रित माध्यम (समाचार पत्रों) में अभी भी कुछ दायित्व की भावना है, किंन्तु इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने दायित्व त्याग दिया है ।
न्यायाधीश सामाजिक वास्तविकता से आंखें नहीं मूंद सकते !
न्यायाधीश सामाजिक वास्तविकता को अनदेखा नहीं कर सकते । समाज को बचाने और संघर्षों से बचने के लिए, न्यायाधीशों को अधिक दबाव वाले प्रकरणों को प्राथमिकता देनी पडती है । वर्तमान में न्यायपालिका के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती न्यायदान में ऐसे सूत्रों को प्राथमिकता देना है ।
न्यायाधीशों पर आक्रमणों में वृद्धि !
राजनेताओं, नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों को प्राय: सेवानिवृत्ति के बाद भी सुरक्षा दी जाती है । विडंबना यह है कि न्यायाधीशों को उतनी सुरक्षा नहीं दी जाती । सांप्रत काल में न्यायाधीशों पर शारीरिक आक्रमण दिनों दिन बढ़ रहे हैं । न्यायाधीशों को उस समाज में बिना सुरक्षा के रहना पड़ता है, जिसमें उनके आरोपित लोग रहते हैं ।
न्यायाधीश का जीवन सहज सरल नहीं होता !
लोग प्राय: भारतीय न्यायिक प्रक्रिया में प्रलंबित प्रकरणों पर शिकायत करते हैं । मैंने स्वयं अनेक अवसरों पर अनेक प्रलंबित प्रकरणों को उठाया है । मैं न्यायाधीशों को उनकी पूरी क्षमता से कार्यसंपादन करने में सक्षम बनाने के लिए भौतिक और व्यक्तिगत दोनों प्रकार के बुनियादी ढांचे में सुधार करने की आवश्यकता पर जोर देता हूं । जनमानस में यह भ्रांति है कि ‘न्यायाधीश का जीवन बहुत सहज होता है किन्तु यह स्वीकार करना बहुत कठिन है ।
संपादकीय भूमिकाजनमानस का विचार है कि ऐसे सामाजिक माध्यमों पर न्यायालय को प्रतिबंध लगाने चाहिए ! |