गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरुरेव परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः
इस श्लोक से ‘गुरु’ शब्द की महानता ध्यान में आती है ।
१. ‘गुरु’ शब्द का अर्थ
शिष्य का अज्ञान दूर हो तथा उसकी आध्यात्मिक उन्नति हो, इसलिए जो उससे उपयुक्त साधना करवा लेते हैं और इस प्रकार सहजता से वास्तविक अनुभूति प्रदान करा देते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं । शिष्य का परममंगल अर्थात मोक्षप्राप्ति केवल गुरुकृपा से ही हो सकती है ।
२. गुरुदेशना
‘प्राचीन काल से गुरु-शिष्य परंपरा चली आ रही है । शिष्य के लिए कौनसी साधना आवश्यक है, यह गुरु समझते हैं । शिष्य को क्या चाहिए, इसका ज्ञान गुरु को होेना, साथ ही साधक की / शिष्य की साधना में अवस्था कैसी है, उसे आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से क्या आवश्यक है, यह जानकर वे उसे देते हैं । यही गुरुदेशना (साधना संबंधी निर्देश) है । गुरु ही शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति करवा लेते हैं । इस हेतु शिष्य गुरुचरणों में रहता है । गुरु साधना बताकर उससे करवा लेते हैं और उसे अनुभूति भी प्रदान करते हैं ।
गुरु-शिष्य का पवित्र नाता ज्ञानवृद्धि और साधनावृद्धि पर आधारित होना
‘जगत में गुरु-शिष्य का नाता पवित्र माना गया है । यही एक नाता सत्य है । गुरु-शिष्य संबंध केवल आध्यात्मिक स्तर के होते हैं । शिष्य को एक ही भान होना चाहिए कि ‘मेरा उद्धार हो’ । ‘इसका उद्धार हो’ यही एक भान गुरु को होता है । गुरु-शिष्य का नाता किसी की आयु पर निर्धारित नहीं होता, अपितु ज्ञानवृद्धि और साधनावृद्धि पर आधारित होता है । अन्य सभी नाते भय अथवा सामाजिक बंधनों से निर्धारित होते हैं । इसलिए उनमें व्यवहार सीमित होता है । इन नातों में अहंभाव निरंतर निहित रहता है । इन नातों में ज्ञान और साधना का कोई मूल्य नहीं होता ।’
– स्वामी विद्यानंद, मुंबई. (संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘शिष्य’)
गुरु की सीख के प्रति निरंतर कृतज्ञभाव में रहना ही खरी गुरुवंदना है !
संत ज्ञानेश्वर ने कहा है, ‘ज्ञानियों के राजा गुरु महाराज’ । ज्ञान देते हैं वे गुरु हैं ! शिला से शिल्प बन सकता है; परंतु उसके लिए शिल्पकार चाहिए । इसी प्रकार साधक और शिष्य ईश्वर को प्राप्त कर सकते हैं; परंतु इसके लिए गुरु की आवश्यकता है । गुरु जब अपने ज्ञानामृत से साधक और शिष्य का अज्ञान दूर करते हैं, तभी ईश्वरप्राप्ति होती है । साधना करते समय साधक और शिष्य क्या करें, किसका त्याग करें आदि का बोध गुरु कराते हैं । केवल उपदेश से ही नहीं, किंतु सामान्य प्रतीत होनेवाले अपने आचरण से भी गुरु बहुत कुछ सिखाते हैं । इसलिए पग-पग पर गुरुचरणों में कृतज्ञता व्यक्त की जाए, वह भी स्वल्प ही है ।
गुरु के विषय में कुछ
१. गुरुभक्ति का महत्त्व
गुरुभक्ति सरल है । उसे करने से अपना उद्देश्य तुरंत साध्य होता है । इसकी अपेक्षा कितने भी तप, अनुष्ठान करने पर भी उद्देश्य साध्य होने में अत्यधिक समय लगता है । अनेक प्रकार के तप, अनुष्ठान, होमहवन, महादान करते समय अनेक बडे-बडे विघ्न आते हैं एवं अपना उद्देश्य साध्य होना कठिन हो जाता है । जो गुरुभक्ति करेगा, उसका उद्देश्य तत्काल साध्य होगा एवं उसे यज्ञ, दान, तप का फल, तथा सर्व सिद्धियां प्राप्त होंगी । अतः सबसे सुलभ बात है, जो एकनिष्ठता से गुरुसेवा एवं आराधना करते हैं, उनका उद्देश्य बिना परिश्रम साध्य होता है; इसलिए श्री गुरु की शरण जाएं । (गुरुचरित्र अध्याय ४१, पंक्ति ९१ से ९४ का अनुवाद)
२. गुरुसेवा एवं गुरुकृपा
जो गुरु की सेवा करते हैं, उन्हें सर्व ज्ञान प्राप्त होता है । गुरु संतुष्ट होने पर वेदशास्त्रों का भी ज्ञान ऐसे व्यक्तियों को होता है । श्री गुरु को संतुष्ट करने से अष्टसिद्धि हमारे नियंत्रण में रहती हैं एवं क्षण का भी विलंब किए बिना उन्हें वेदशास्त्र साध्य होता है । (गुरुचरित्र, अध्याय १, पंक्ति ३१, ३२ का अनुवाद)
३. गुरुतत्त्व
‘गुरुतत्त्व अर्थात मन को विकारों के परे ले जाने, बुद्धि को नियंत्रण में रखने तथा अहं का लय कर उसे ईश्वर के अधीन करने में सहायक सिद्ध होनेवाला श्रेष्ठत्व ।’
– एक विद्वान (श्रीचित्शक्ति [श्रीमती] अंजली गाडगीळजीके माध्यमसे, ८.४.२०१२)
गुरु का स्वरूप
१. शिष्य का विश्वास
गुरु विश्वास पर निर्भर है । हमारे अपने विश्वास पर ही गुरु की महत्ता आधारित है । गुरु तुम्हारे भी विश्वास पर हैं । तुम्हारे विश्वास में ही गुरु है ।
भावार्थ : ‘गुरु विश्वास पर निर्भर है । अपने विश्वास पर ही गुरु की महत्ता आधारित है’, इसमें गुरु शब्द बाह्य गुरुके संदर्भमें प्रयोग किया गया है । गुरु पर विश्वास होगा, तो ही गुरु ‘गुरु’ का कार्य कर सकते हैं । ‘गुरु भी तुम्हारे विश्वास पर है । तुम्हारे विश्वास में ही गुरु है,’ इसमें गुरु अंतर्यामी गुरु के रूप में हैं ।
२. निरसनात्मक उत्तर
मेरे मत में संदेहात्मक प्रश्न ही शिष्य है एवं निरसनात्मक उत्तर ही गुरु है । जब तक संदेहात्मक प्रश्नरूपी अज्ञान का अंधकार दूर होकर नष्ट नहीं हो जाता एवं निरसनात्मक उत्तर से ज्ञान का उदय नहीं होता, तब तक यह विवाद रहता है । वास्तव में गुरु एवं शिष्य एकरूप ही हैं ।