परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार
‘ईश्वर पर तथा साधना पर विश्वास न हो, तब भी चिरंतन आनंद की आवश्यकता प्रत्येक व्यक्ति को होती है । वह केवल साधना से ही प्राप्त होता है । एक बार यह ध्यान में आ जाए, तो साधना का कोई पर्याय न होने के कारण, मानव साधना की ओर प्रवृत्त होता है ।’
स्वभावदोष एवं अहं निर्मूलन का महत्त्व !
‘ईश्वर में स्वभावदोष एवं अहं नहीं होता । उनसे एकरूप होना हो, तो हममें भी उनका अभाव आवश्यक है ।’
बुद्धिप्रमाणवादियों का अध्यात्म के विषय में हास्यास्पद अहंकार !
‘बुद्धिप्रमाणवादी चिकित्सा, अभियांत्रिकी इत्यादि बौद्धिक स्तर के विषयों पर डॉक्टर, अभियंता इत्यादि से वाद-विवाद नहीं करते; परंतु बुद्धि के परे के और जिसमें उन्हें स्वयं शून्य ज्ञान है, ऐसे अध्यात्मशास्त्र के विषय में ‘मैं सर्वज्ञ हूं’, इस विचार से संतों पर टीका-टिप्पणी करते हैं !’
सतही उपाय करनेवाले शासनकर्ता !
‘निर्गुण ईश्वरीय तत्त्व से एकरूप होने पर ही सच्ची शांति अनुभव होती है । ऐसा होते हुए भी शासनकर्ता जनता को साधना न सिखाकर सतही मानसिक स्तर के उपाय करते हैं, उदा. जनता की समस्याएं दूर करने के ऊपरी प्रयास करना, मनोरोग चिकित्सालय स्थापित करना इत्यादि ।’
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले